मुरारी पासवान की रिपोर्ट
जब प्यार करने वाले शादी के बंधन में बंधे बिना ही साथ रहने का फैसला लेते हैं, तो उसे लिव-इन रिलेशनशिप कहते हैं। लेकिन, देश के कई आदिवासी इलाकों में ‘ढुकू’ नाम से लिव-इन की प्रथा सदियों से चली आ रही है। यहां ढुकू कपल्स 70 की उम्र में भी शादी रचा लेते हैं। यह प्रथा झारखंड में सबसे ज्यादा खूंटी, गुमला और सिमडेगा जिले में प्रचलित है। वैसे यह पूरे जनजातीय समाज में सदियों पुरानी परंपरा है। खूंटी में अब निमित संस्था की ओर से सामूहिक विवाह समारोह भी आयोजित होता है। इसमें जिंदगी के कई बसंत पार कर चुके ‘ढुकू’ रहने वाले बुजुर्ग जोड़ी विवाह बंधन में बंधते हैं। शादी के बाद इनके ऊपर से ‘ढुकू’ का टैग हट जाता है। उनकी शादी को सामाजिक मान्यता मिल जाती है।
ईसाई धर्म के एक विवाह कार्यक्रम में सबसे बुजुर्ग जोड़ी सैदवा आइंद और फूलमनी आइंद की शादी हुई थी। तोरपा के चुरगी, मनहातु के रहने वाले करीब 75 वर्षीय सैदवा आइंद और करीब 70 वर्षीय फूलमनी आइंट के संतान नहीं हैं।
ढुकू प्रथा
‘ढुकू’ शब्द ‘ढुकना’ से जन्मा है। इसका मतलब है- घर में प्रवेश करना। अगर कोई महिला बिना शादी के किसी के घर में रहती है तो उसे ‘ढुकू’ या ढुकनी महिला कहा जाता है। यानी वह महिला किसी के घर में दाखिल हो चुकी है यानी घुस आई है।
लिव-इन में रहने वाले कपल्स को ‘ढुकू’ कपल्स कहा जाता है। शादी के लिए पूरे गांव को भोज खिलानी पड़ती है, इसलिए आर्थिक रूप से कमजोर लोग ढुकू कपल बनते हैं।
दरअसल, झारखंड के इन गांवों में शादी को लेकर रस्में काफी अलग हैं। जिन कपल्स को शादी करनी होती है, उनके परिवार को पूरे गांव वालों को भोज देनी होती है। लड़की वाले अपने गांव में लोगों को खाना खिलाते हैं और लड़के के गांव में अलग दावत होती है। गांव के लोगों को मांस, चावल खिलाने के साथ ही हड़िया का भी इंतजाम करना होता है। इसमें करीब एक लाख रुपये तक का खर्च आता है। दिन के 200-250 रुपये कमाने वाले परिवारों के लिए इतनी बड़ी रकम जमा करना काफी मुश्किल होता है। ऐसे में प्यार करने वाले जोड़े बिना शादी के ही साथ रहना शुरू कर देते हैं। इसलिए ये महिलाएं ढुकू कहलाती हैं। इन्हें समाज में इज्जत नहीं मिलती। ढुकू कपल्स के बच्चों को कानूनी अधिकार नहीं मिलता है। सिंदूर तो लगा लेती है, लेकिन घर की पूजा में शामिल होने की इजाजत नहीं मिलती है।
ढुकू कपल्स को शादी करने के लिए गांव वालों को दावत देने के साथ ही पंचायत को जुर्माना भी भरना पड़ता है। यह नियम हर गांव में अलग-अलग है। ऐसा माना जाता है ढुकू कपल्स समाज की परंपरा को तोड़कर साथ में रहते हैं, इसलिए उन्हें शादी करने से पहले एक आर्थिक दंड के रूप में कुछ रुपये गांव की पंचायत को देना होगा।
खूंटी की असीमा मिंज बताती हैं कि वह ढुकू इसलिए भी बनीं, क्योंकि दोनों परिवार आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थे। भोज देने के लिए पैसे नहीं थे। गांव वालों को खिलाने के लिए करीब डेढ़ लाख तक का खर्च आता है, इतने पैसे किसी के पास नहीं थे। जब शादी करने गईं तब गांव वालों ने उनके ऊपर जुर्माना भी लगाया था। शादी करना जरूरी इसलिए था क्योंकि, जिन ढुकू कपल्स के बच्चे होते हैं, उन्हें समाज और कागज में पहचान नहीं मिलती। बच्चों को पिता का नाम नहीं मिल पाता है। यही दिक्कत राशन कार्ड और स्कूल में दाखिले के समय आती है। इन बच्चों को पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। उनकी विधिवत शादी इसलिए करा दी जाती है ताकि, उन्हें उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिल सके। अपनी संतानों की भी विधिवत शादी कर सकें।
एक ही मंडप में कई पीढ़ियाें की होती है शादी
झारखंड के इन गांवों में ढुकू कपल्स का विवाह कराने वाली सामाजिक संस्था निमित्त की संस्थापक सदस्य निकिता सिन्हा बताती हैं कि 2016 में सामूहिक विवाह की पहल शुरू हुई। अब तक करीब चार हजार से अधिक ढुकू कपल्स की शादी करा चुकी हैं। पैसे की तंगी के कारण ये कपल्स शादी नहीं कर पाते थे, इनमें से कुछ की हालत तो ऐसी भी थी कि उनके ढुकू होने के कारण बच्चों के भी रिश्ते नहीं हो पा रहे थे। बिरसा कालेज स्टेडियम में निमित्त संस्था की ओर से आयोजित सामूहिक विवाह समारोह में पहली बार महिला पुरोहितों ने जोड़ियों का विवाह कराया। सरना धर्मावलंबियों का विवाह अंगनी पाहनाईन ने कराया। वहीं, ईसाई धर्मावलंबियों का विवाह दो महिला पुरोहितों ने संपन्न कराया।
स्वजन की इजाजत के बिना पति पत्नी की तरह रहनेवाले ढुकू
पडहा राजा सोमा मुंडा कहते हैं कि समाज में जब युवती-युवक एक दूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं, तो प्रस्ताव अपने माता-पिता को देते हैं। घरवाले अगर इस शादी के लिए राजी हो गए, तब तो उनकी विधिवत शादी करा दी जाती है। लेकिन, कुछ मामलों में घरवाले इसके लिए राजी नहीं होते। तब ऐसे युवक-युवती लिव इन में पति-पत्नी की तरह रहने लगते हैं। इन्हें ढुकू कहा जाता है।
पडहा राजा सोमा मुंडा कहते हैं कि पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के तहत सामाजिक मान्यता के लिए गांव के पाहन आदि के पास जाता है। कई मामलों में पंच की ओर से जुर्माना लगाकर उनकी शादी करा दी जाती है। ढुकु रहने वाले जोड़ी में अगर शादी से पहले किसी कारणवश किसी की मृत्यु हो जाती है, तो उसे गांव के सामूहिक मसना में दफनाया भी नहीं जाता है। सरना समाज में एक ही गोत्र के युवक व युवती के बीच शादी नहीं होती है। ऐसी शादी को समाज कभी मान्यता नहीं देता है।
Author: samachar
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