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26 December 2024 10:00 am

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भारत का वो ‘रत्न’, ‘अटल’ आदर्श की शती

96 पाठकों ने अब तक पढा

अनिल अनूप

‘मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं…लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?’ अटल जी के ये शब्द कितने साहसी हैं…कितने गूढ़ हैं। अटल जी कूच से नहीं डरे, उन जैसे व्यक्तित्व को किसी से डर लगता भी नहीं था। वो ये भी कहते थे…जीवन बंजारों का डेरा आज यहां, कल कहां कूच है, कौन जानता किधर सवेरा। आज अगर वो हमारे बीच होते तो वो अपने जन्मदिन पर नया सवेरा देख रहे होते। मैं वो दिन नहीं भूलता जब उन्होंने मुझे पास बुलाकर अंकवार में भर लिया था और जोर से पीठ में धौल जमा दी थी। वो स्नेह, वो अपनत्व, वो प्रेम, मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा है। आज 25 दिसंबर का यह दिन भारतीय राजनीति और भारतीय जनमानस के लिए एक तरह से सुशासन का अटल दिवस है। आज पूरा देश अपने भारत रत्न अटल को, उस आदर्श विभूति के रूप में याद कर रहा है, जिन्होंने अपनी सौम्यता, सहजता और सहृदयता से करोड़ों भारतीयों के मन में जगह बनाई। पूरा देश उनके योगदान के प्रति कृतज्ञ है। उनकी राजनीति के प्रति कृतार्थ है। 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के लिए उनकी एनडीए सरकार ने जो कदम उठाए, उसने देश को एक नई दिशा, नई गति दी। 1998 के जिस काल में उन्होंने पीएम पद संभाला, उस दौर में पूरा देश राजनीतिक अस्थिरता से घिरा हुआ था। 9 साल में देश ने चार बार लोकसभा के चुनाव देखे थे। लोगों को शंका थी कि यह सरकार भी उनकी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाएगी। ऐसे समय में एक सामान्य परिवार से आने वाले अटल जी ने देश को स्थिरता और सुशासन का मॉडल दिया।

अटल बिहारी वाजपेयी स्वतंत्र भारत के ऐसा व्यक्तित्व हैं, जिनकी जीवन यात्रा राजनीति से लेकर साहित्य तक और विचारधारा से लेकर काव्य तक, हर आयाम में प्रेरणादायक है। भारतीय राजनीति के इस दिव्य पुरुष ने ना केवल अपने कामों के माध्यम से देश को गौरवान्वित किया, बल्कि अपनी ओजस्वी कविताओं और मधुर भाषाशैली से लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। वे बहुत बड़े ओहदे पर भी पहुंचकर शांतचित्त, निर्विकार, निर्द्वंद्व और उतने ही संवेदनशील बने रहे जितना कि उनका कवि हृदय पहले था। अपनी कविताओं के माध्यम से वे दूसरों को भी कहते हिदायतें देते हैं कि बड़े बन कर ठूंठ के जैसे खड़े होना अकेला हो जाना विकल्प नहीं है, उनके शब्दों में

जो जितना ऊंचा

उतना ही एकाकी होता है,

हर भार स्वयं ही ढोता है।

चेहरे पर मुस्कानें चिपका

मन ही मन रोता है

जरूरी यह है कि

ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो

जिससे मनुष्य

ठूँठ सा खड़ा न रहे,

औरों से घुले मिले

किसी को साथ ले

किसी के संग चले।

साल 1996 की 31 मई को उनकी सरकार को महज 13 दिन ही हुए थे, वह सदन का विश्वास हासिल करने में विफल रहे थे और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। तब उनका ओजपूर्ण भाषण पूरे देश में चर्चित हुआ था। उन्होंने कहा था, देश आज संकटों से घिरा है और ये संकट हमने पैदा नहीं किए हैं, जब-जब कभी आवश्यकता पड़ी, संकटों के निराकरण में हमने उस समय की सरकार की मदद की है, सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी बिगड़ेंगी, मगर ये देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए। उनकी सरकार गिर गई लेकिन उनमें हिम्मत बाकी थी, फिर वे ही अटल थे जिन्होंने 13 महीने और फिर 1999 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता के तौर पर 24 दलों के समर्थन से तीसरी प्रधानमंत्री बने और पहले ग़ैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।

अटल सबके थे, सब उनके थे। विरोधी भी उनके अपने थे तभी तो जवाहरलाल नेहरू भी उनके भाषणों को सुनने के लिए उत्सुक रहते थे कारण, उनकी वाक्पटुता और हाजिरजवाबी। उनका कवि होना उनकी राजनीतिक यात्रा में बाधक नहीं बना बल्कि यह उन्हें शीर्ष पर के जाने का साधक साबित हुआ। वे साहित्य को अधिनायकवादियों तक पर अंकुश का एक असरदार माध्यम मानते थे। उनकी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ के सम्पादक डॉ. चन्द्रिकाप्रसाद शर्मा ने उनसे इसको लेकर सीधा सवाल भी किया था कि “साहित्यकार को राजनीति से कितना सरोकार रखना चाहिए?” तो अटल का स्पष्ट उत्तर था : “साहित्य और राजनीति के कोई अलग-अलग खाने नहीं हैं।

… जब कोई साहित्यकार राजनीति करेगा तो वह अधिक परिष्कृत होगी। यदि राजनेता की भूमि साहित्यिक है तो वह मानवीय संवदेनाओं को नकार नहीं सकता। कहीं कोई कवि यदि डिक्टेटर बन जाए तो वह निर्दोषों के खून से अपने हाथ नहीं रंगेगा। तानाशाहों में क्रूरता इसीलिए आती है कि वे संवेदनाहीन हो जाते हैं। एक साहित्यकार का हृदय दया, क्षमा, करुणा आदि से आपूरित रहता है, इसलिए वह खून की होली नहीं खेल सकता।”

अटल बिहारी वाजपेयी को अक्सर “सबका दोस्त” भी कहा जाता था। इस उपाधि के पीछे उनकी अजातशत्रु छवि थी। वह राजनीतिक विरोधियों के साथ वैचारिक असहमति के बावजूद उनके प्रति सम्मान बनाए रखते थे। संसद में उनके भाषण इसके सटीक उदाहरण हैं, जिनमें व्यंग्य का पुट होता था लेकिन कड़वाहट नहीं। राजनीति के इस दुर्लभ गुण ने उन्हें सभी के बीच लोकप्रिय बनाया।उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान उन्होंने वैश्विक मंच पर भारत को मजबूती से स्थापित किया। रूस, अमेरिका और एशियाई देशों के साथ संबंधों को मजबूत करते हुए उन्होंने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की दिशा में कार्य किया। यही कारण है कि वे न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भी सम्मानित हुए।

वे अपने भाषणों से गुदगुदाते थे, कभी गंभीर बना देते थे, कभी रोष से भर देते थे। उनका आकर्षण ऐसा था कि लोग एकटक बिनाशोरगुल किए उनको सुनते थे। उनको सुनने के लिए लोग बहुत दूर-दूर से आते थे। लखनऊ में डॉ. दिनेश शर्मा का चुनाव प्रचार करने वे आख़िरी बार 2006 में यहाँ आये थे और कपूरथला चौराहे पर रात में उनकी सभा हुई थी। उनको सुनने के लिए मैं अपने बड़े पिता जी के साथ स्कूटर से गया था। पूरा चौराहा खचाखच था, जगह नहीं मिली तो स्कूटर पर बैठकर ही उनका पूरा भाषण सुना। उस समय जो जहां था वहीं पर रुक कर उनको सुनने लगा था। ऐसा उनका आकर्षण था।

लखनऊ की इसी आख़िरी सभा में उन्होंने दिनेश शर्मा को मेयर के लिए चुनने के लिए लखनऊवसियों से हास्यविनोद भी किया था। उन्होंने सभा में आये लोगों से पूछा, ‘अगर मैं केवल कुर्ता पहनूं और पायजामा न पहनूं, तो कैसा दिखूंगा?’ अटल के इस सवाल पर जनता हैरत में थी कि दरअसल अटल क्या कहना चाहते हैं? इस बीच कोई चिल्लाया…खराब दिखेंगे। इस पर अटल ने कहा, ‘लखनऊ से सांसद का चुनाव जिताकर आप लोगों ने मुझे कुर्ता दिया। अब आपको मुझे नगर निगम मेयर चुनाव में जिताकर पायजामा भी देना चाहिए।’ इस पर पूरी सभा ठहाकों से भर गई।

ऐसा भी मौक़ा आया जब पोखरण में परमाणु परीक्षण हुआ और अमेरिका ने भारत पर कड़े प्रतिबंध लगाये। अटल निश्चिंत रहे उन्होंने संसद से दुनिया को ये साफ संदेश दिया कि ये भारत बदला हुआ भारत है, दुनिया से आंख मिलाकर और हाथ मिलाकर चलना चाहता है। किसी प्रतिबंध से झुकेगा नहीं और शांति और सुरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा। इसका नतीजा रहा कि आज भारत की वैश्विक शक्ति और साख पूरी दुनिया में जो बढ़ी हुई है उसकी नींव अटल ने ही रखी थी। देश में सामाजिक न्याय, दूसरी संचार क्रांति, स्वर्ण चतुर्भुज एवं ग्रामीण सड़क योजना, सर्व शिक्षा अभियान, कारगिल लड़ाई में विजय जैसे अभियानों से देश को नई दिशा दी।

वे न केवल एक श्रेष्ठ राजनेता और विचारक थे, बल्कि वे करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत भी हैं। उनका जीवन हमें सिखाता है कि राजनीति केवल शासन का काम नहीं है, बल्कि सेवा और आदर्शों का माध्यम भी है। वे योग्य राजनेता, कूटनीतिज्ञ, विचारक, और कवि थे। उनका पूरा जीवन न केवल भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय हैं, बल्कि उनकी कविताएँ एवं कृतित्व आज भी हर भारतीय के दिल में उनकी यादों को जीवित रखते हैं।अटल जी की सम्मोहक वाणी, काव्य आत्मीयता और राष्ट्रहित के प्रति उनकी निष्ठा उन्हें युगपुरुष बनाती है। वे सही मायनों में “अटल” थे – अद्वितीय, अनमोल और अडिग।

भारत को नव विकास की गारंटी दी। वो ऐसे नेता थे, जिनका प्रभाव भी आज तक अटल है। वो भविष्य के भारत के परिकल्पना पुरुष थे। उनकी सरकार ने देश को आईटी, टेलीकम्यूनिकेशन और दूरसंचार की दुनिया में तेजी से आगे बढ़ाया। उनके शासन काल में ही एनडीए ने टेक्नॉलजी को सामान्य मानव की पहुंच तक लाने का काम शुरू किया। भारत के दूरदराज के इलाकों को बड़े शहरों से जोडऩे के सफल प्रयास किए गए। वाजपेयी जी की सरकार में शुरू हुई जिस स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ने भारत के महानगरों को एक सूत्र में जोड़ा, वो आज भी लोगों की स्मृतियों पर अमिट है। लोकल कनेक्टिविटी को बढ़ाने के लिए भी एनडीए गठबंधन की सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सडक़ योजना जैसे कार्यक्रम शुरू किए। उनके शासनकाल में दिल्ली मेट्रो शुरू हुई, जिसका विस्तार आज हमारी सरकार एक वल्र्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के रूप में कर रही है। ऐसे ही प्रयासों से उन्होंने न सिर्फ आर्थिक प्रगति को नई शक्ति दी, बल्कि दूरदराज के क्षेत्रों को एक दूसरे से जोडक़र भारत की एकता को भी सशक्त किया। जब भी सर्व शिक्षा अभियान की बात होती है, तो अटल जी की सरकार का जिक्र जरूर होता है। शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मानने वाले वाजपेयी जी ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां हर व्यक्ति को आधुनिक और गुणवत्ता वाली शिक्षा मिले। वो चाहते थे कि भारत के वर्ग, यानी ओबीसी, एससी, एसटी, आदिवासी और महिला सभी के लिए शिक्षा सहज और सुलभ बने। उनकी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कई बड़े आर्थिक सुधार किए। इन सुधारों के कारण भाई-भतीजावाद में फंसी देश की अर्थव्यवस्था को नई गति मिली। उस दौर की सरकार के समय में जो नीतियां बनीं, उनका मूल उद्देश्य सामान्य मानव के जीवन को बदलना ही रहा। उनकी सरकार के कई ऐसे अद्भुत और साहसी उदाहरण हैं जिन्हें आज भी हम देशवासी गर्व से याद करते हैं। देश को अब भी 11 मई 1998 का वो गौरव दिवस याद है, जब एनडीए सरकार बनने के कुछ ही दिन बाद पोखरण में सफल परमाणु परीक्षण हुआ। इसे ‘ऑपरेशन शक्ति’ का नाम दिया गया। इस परीक्षण के बाद दुनियाभर में भारत के वैज्ञानिकों को लेकर चर्चा होने लगी। इस बीच कई देशों ने खुलकर नाराजगी जताई, लेकिन तब की सरकार ने किसी दबाव की परवाह नहीं की। पीछे हटने की जगह 13 मई को न्यूक्लियर टेस्ट का एक और धमाका कर दिया गया। 11 मई को हुए परीक्षण ने तो दुनिया को भारत के वैज्ञानिकों की शक्ति से परिचय कराया था। लेकिन 13 मई को हुए परीक्षण ने दुनिया को यह दिखाया कि भारत का नेतृत्व एक ऐसे नेता के हाथ में है, जो एक अलग मिट्टी से बना है। उन्होंने पूरी दुनिया को यह संदेश दिया, यह पुराना भारत नहीं है। पूरी दुनिया जान चुकी थी कि भारत अब दबाव में आने वाला देश नहीं है। इस परमाणु परीक्षण की वजह से देश पर प्रतिबंध भी लगे, लेकिन देश ने सबका मुकाबला किया। वाजपेयी सरकार के शासनकाल में कई बार सुरक्षा संबंधी चुनौतियां आईं। कारगिल युद्ध का दौर आया। संसद पर आतंकियों ने कायरना प्रहार किया।

अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से वैश्विक स्थितियां बदलीं, लेकिन हर स्थिति में अटल जी के लिए भारत और भारत का हित सर्वोपरि रहा। जब भी आप वाजपेयी जी के व्यक्तित्व के बारे में किसी से बात करेंगे तो वो यही कहेगा कि वो लोगों को अपनी तरफ खींच लेते थे। उनकी बोलने की कला का कोई सानी नहीं था। कविताओं और शब्दों में उनका कोई जवाब नहीं था। विरोधी भी वाजपेयी जी के भाषणों के मुरीद थे। युवा सांसदों के लिए वो चर्चाएं सीखने का माध्यम बनतीं। कुछ सांसदों की संख्या लेकर भी, वो कांग्रेस की कुनीतियों का प्रखर विरोध करने में सफल होते। भारतीय राजनीति में वाजपेयी जी ने दिखाया, ईमानदारी और नीतिगत स्पष्टता का अर्थ क्या है। संसद में कहा गया उनका यह वाक्य…सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, मगर यह देश रहना चाहिए…आज भी मंत्र की तरह हम सबके मन में गूंजता रहता है। वो भारतीय लोकतंत्र को समझते थे। वो यह भी जानते थे कि लोकतंत्र का मजबूत रहना कितना जरूरी है। आपातकाल के समय उन्होंने दमनकारी कांग्रेस सरकार का जमकर विरोध किया, यातनाएं झेली। जेल जाकर भी संविधान के हित का संकल्प दोहराया। एनडीए की स्थापना के साथ उन्होंने गठबंधन की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित किया। वो अनेक दलों को साथ लाए और एनडीए को विकास, देश की प्रगति और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बनाया। पीएम पद पर रहते हुए उन्होंने विपक्ष की आलोचनाओं का जवाब हमेशा बेहतरीन तरीके से दिया। वो ज्यादातर समय विपक्षी दल में रहे, लेकिन नीतियों का विरोध तर्कों और शब्दों से किया। एक समय उन्हें कांग्रेस ने गद्दार तक कह दिया था, उसके बाद भी उन्होंने कभी असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया।

उनमें सत्ता की लालसा नहीं थी। 1996 में उन्होंने जोड़-तोड़ की राजनीति न चुनकर इस्तीफा देने का रास्ता चुन लिया। राजनीतिक षड्यंत्रों के कारण 1999 में उन्हें सिर्फ एक वोट के अंतर के कारण पद से इस्तीफा देना पड़ा। कई लोगों ने उनसे इस तरह की अनैतिक राजनीति को चुनौती देने के लिए कहा, लेकिन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी शुचिता की राजनीति पर चले। अगले चुनाव में उन्होंने मजबूत जनादेश के साथ वापसी की। संविधान के मूल्य संरक्षण में भी, उनके जैसा कोई नहीं था। डा. श्यामा प्रसाद के निधन का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा था। वो आपात के खिलाफ लड़ाई का भी बड़ा चेहरा बने। इमरजेंसी के बाद 1977 के चुनाव से पहले उन्होंने जनसंघ का जनता पार्टी में विलय करने पर भी सहमति जता दी। मैं जानता हूं कि यह निर्णय सहज नहीं रहा होगा, लेकिन वाजपेयी जी के लिए हर राष्ट्रभक्त कार्यकर्ता की तरह दल से बड़ा देश था, संगठन से बड़ा संविधान था। हम सब जानते हैं, अटल जी को भारतीय संस्कृति से भी बहुत लगाव था। भारत के विदेश मंत्री बनने के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण देने का अवसर आया, तो उन्होंने अपनी हिंदी से पूरे देश को खुद से जोड़ा। उनकी उपलब्धियों की सूची लंबी है। बहरहाल, राष्ट्र उनकी जयंती पर उन्हें नमन करता है।

1 thought on “भारत का वो ‘रत्न’, ‘अटल’ आदर्श की शती”

  1. अटल जी यह तो नाम तथा गुण की होती तो चरितार्थ करने वाले देश के महान नेता थे। वे अजातशत्रु थे। उनका भाषण सुनकर के पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें एक दिन देश की बाग डोर संभालने का आशीर्वाद दिया था। उसके बदले अटल जी ने देश की महान नेत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को देवी की उपाधि देकर जवाहरलाल जी का ऋण चुकता किया। जबकि आज के राजनैताओं का अमूल्य समय आरोप प्रत्यारोप गुजर जाता है।

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