मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट
हमारे समाज और सरकारों की यौन उत्पीड़न, बलात्कार और अन्य अपराधों के प्रति प्रतिक्रिया और असफलताओं को उजागर करता है। 2024 के कोलकाता रेपकांड, जो एक सरकारी अस्पताल में महिला डॉक्टर के साथ हुए यौन हिंसा और उसकी हत्या से संबंधित है, ने पश्चिम बंगाल और पूरे देश में एक अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया। सैकड़ों की संख्या में लोग सड़कों पर इंसाफ की मांग कर रहे थे, जिनमें ज्यादातर महिलाएं शामिल थीं। यह एक महत्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व स्वयं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कर रही थीं। इस घटना ने यह सवाल उठाया कि जब सत्ता में बैठे लोग ही विरोध कर रहे हैं, तो न्याय किससे मांगा जा रहा है?
इस विरोध के बाद ममता बनर्जी सरकार ने 17-सूत्रीय ‘उपचार’ प्रस्तावित किया, जो यौन हिंसा के मामलों से निपटने के लिए सुझाव थे। हालांकि, इन उपायों की आलोचना ‘रीक्लेम द नाइट’ अभियान और अन्य महिला संगठनों द्वारा की गई।
उन्होंने सरकार द्वारा सुझाए गए उपायों को तालिबानी सोच के रूप में वर्णित किया, जो महिलाओं की आज़ादी और सुरक्षा को और सीमित करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के तौर पर, रात में महिलाओं की सुरक्षा के लिए महिला सुरक्षाकर्मियों की तैनाती, जो खुद उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है, और सीसीटीवी को ‘सेफ रूम’ का नाम दिया जाना, जिनकी विफलता खुद आर.जी. कर रेपकांड में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
बलात्कार और यौन हिंसा के मामलों में न्याय की कमी केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं है। यह एक राष्ट्रीय समस्या है, और इस संदर्भ में दंड की दर पर ध्यान देना आवश्यक है। 1973 में अरुणा शानबाग कांड के समय देश में बलात्कार के मामलों में दंड की दर 44.3% थी, जो 2023 तक घटकर 27% के करीब आ गई है। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि राज्य इस प्रकार के अपराधों से निपटने में असफल हो रहा है।
इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। अदालती प्रक्रियाओं की धीमी गति, न्यायपालिका की लचरता, साक्ष्यों की कमी और राजनीतिक संरक्षण, सब इस समस्या में योगदान देते हैं। लेकिन इससे भी बड़ी समस्या राज्य की मानसिकता है, जो इन अपराधों को गंभीरता से लेने में विफल है। वी. गीता की पुस्तक Challenging Impunity में इस विचार पर चर्चा की गई है कि राज्य खुद को कानून और न्याय के दायरे से ऊपर रखता है और अपने द्वारा किए गए कष्टों को स्वीकार करने से इनकार करता है।
इसका एक उदाहरण नगालैंड में देखा जा सकता है, जहां सैन्यबलों की क्रूरता को बलात्कारों के सामान्यीकृत रूप में देखा जाता है। आफ्सपा के तहत सैनिकों द्वारा किए गए बलात्कार को ही बलात्कार माना जाता है, क्योंकि इससे नगा अस्मिता को चुनौती मिलती है, जबकि अन्य प्रकार की यौन हिंसा को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह दंडहीनता की संस्कृति केवल नगालैंड या कश्मीर तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे भारत में फैल चुकी है, जहां जाति, धर्म और राजनीतिक संरक्षण के आधार पर अपराधियों को बचाया जाता है।
यही कारण है कि ‘रीक्लेम द नाइट’ जैसे अभियान पुलिसिया निगरानी और सैन्यकरण को समस्या का समाधान मानने के बजाय इसे समस्या का हिस्सा मानते हैं। राज्य की विफलता महिलाओं की सुरक्षा और उनके अधिकारों को और कमजोर बनाती है, और जब स्वयं सरकारें विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनती हैं, तो यह प्रश्न उठता है कि असल में न्याय की मांग किससे की जा रही है?
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार की प्रतिक्रिया, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देश में यौन अपराधों के खिलाफ केंद्रीय कानून बनाने की मांग की, विडंबनापूर्ण लगती है। जब राज्य खुद ऐसे अपराधों से निपटने में असफल हो जाता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर समाधान की मांग करना केवल एक राजनीतिक चाल लग रहा है।
Author: News Desk
Kamlesh Kumar Chaudhary