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November 23, 2024 7:02 am

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मुश्किल सियासी जमीन पर उम्मीद की फसल बोने की कोशिश में अखिलेश यादव की सियासी चालें पढिए

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आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट

लखनऊ: समाजवादी पार्टी की ताकत और जमीन भले उत्तर प्रदेश मानी जाती हो, लेकिन इस समय उसके मुखिया मध्य प्रदेश में पसीना बहा रहे हैं। पड़ोसी राज्य के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव न केवल खुद आक्रामक प्रचार अभियान में लगे हैं, बल्कि उनकी पत्नी एवं मैनपुरी से सांसद डिंपल यादव और राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल यादव भी चुनाव प्रचार को धार दे रहे हैं। मुश्किल सियासी जमीन पर उम्मीद की फसल की इस कोशिश को पार्टी के विस्तार की कवायद से भी जोड़ा जा रहा है तो प्रतिद्वंद्वी बने सियासी ‘दोस्त’ को ताकत दिखाने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है।

एमपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-सपा के बीच गठबंधन को लेकर काफी कसरत हुई थी। गठबंधन तो नहीं हुआ, लेकिन दोनों दलों के बीच चली जुबानी जंग ने रिश्तों को और तल्ख कर दिया। इसके बाद एमपी में ‘एकला चलो’ की राह पकड़ चुकी सपा ने करीब 72 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। 2018 में एमपी में सपा 52 सीटों पर लड़ी थी। इस बार कटनी, बड़वारा, मुरवारा, बहोरीबंद, विजयराघवगढ़ सहित कुछ जिलों में तो सपा सभी सीटों पर लड़ रही है।

जनसभा, संवाद और सवाल

अखिलेश ने विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले से ही एमपी में सियासी जमीन भांपना शुरू कर दिया था। 27 और 28 सितंबर को खजुराहो और आसपास के जिलों का दौरा कर उन्होंने पूरी ताकत से चुनाव लड़ने के संकेत दिए थे। हालांकि, तब गठबंधन की आस थी। अकेले ताल ठोकने के बाद 4 नवंबर से वह लगातार मध्य प्रदेश में डटे हैं। इस दौरान, कटनी, सतना, बहोरीबंद, सीधी, चित्रकूट, टीकमगढ़, दमोह, निवाड़ी, दोहर , चंदला, पन्ना, राजनगर, अजयगढ़ आदि जिलों या विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी सभाएं की हैं। कुछ सीटों पर व्यक्तिगत जनसंपर्क, संवाद और रोड शो के जरिए भी प्रचार किया है।

दीपावली के लिए शनिवार को लौटे अखिलेश सोमवार से फिर एमपी के चुनावी कुरुक्षेत्र में उतर चुके हैं। बुधवार की शाम चुनाव प्रचार बंद होने के साथ ही उनकी वापसी होगी। अखिलेश के अलावा डिंपल ने भी 9 और 10 नवंबर को चुनाव प्रचार किया। अखिलेश के चाचा शिवपाल भी यूपी की सीमा से सटी एमपी की सीटों पर चुनाव प्रचार में जुट गए हैं।

भूमिका के विस्तार पर नजर!

2018 के विधानसभा चुनाव में सपा ने एमपी में एक सीट जीती थी। सपा के इकलौते विधायक ने नंबर गेम में किनारे पर अटक गई कांग्रेस को बहुमत की दहलीज तक पहुंचाने में मदद की थी। एमपी के चुनावी मंचों पर अखिलेश इस बात को बार-बार दोहरा भी रहे हैं। हालांकि, बाद में हुए सत्ता पलट में सपा विधायक ने भाजपा का दामन थाम लिया था। उस चुनाव में भी अखिलेश ने करीब एक हफ्ते प्रचार किया था। लेकिन, इस बार तेवर भी बदला हुआ है और आक्रमकता भी। सपा ने यूपी से सटे एमपी के जिलों से अपनी उम्मीदें जोड़ी हैं। 2022 के यूपी के विधानसभा चुनाव में सपा को चित्रकूट, बांदा और जालौन में एक-एक सीट मिली थी। चित्रकूट भी एमपी का सीमावर्ती हिस्सा है। अखिलेश का गृह जिला इटावा भी एमपी सीमा से लगा हुआ है। इसलिए, यूपी के सियासी असर का फायदा एमपी में भी उठाने में पार्टी लगी है। कुछ सीटें सपा के हिस्से में आ गईं, तो पार्टी का विस्तार तो होगा ही, वहां सत्ता समीकरणों में भी जगह बनाने का मौका रहेगा।

हिसाब-किताब की भी रणनीति?

एमपी में गठबंधन न होने के बाद हुई बयानबाजी में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अखिलेश को लेकर तल्ख टिप्पणियां की थीं। सवाल एमपी में सपा की पूंजी को लेकर भी उठा था। पार्टी सूत्रों का कहना है कि नेतृत्व की इतनी मेहनत के पीछे एक बड़ी वजह कांग्रेस को सपा की जमीनी ताकत भी बताना है। पार्टी अगर वहां सीटें पाने या वोट शेयर बढ़ाने में सफल रही तो कांग्रेस को यह बताना आसान होगा कि साथ छोड़ना गलती थी। एमपी में ताकत मिली तो यूपी में भी लोकसभा चुनाव में गठबंधन की संभावना बनने पर सपा अपने तेवर व शर्तें और धारदार बना सकेगी। इसलिए, भी एमपी के चुनाव को नेतृत्व इतनी गंभीरता से ले रहा है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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