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27 December 2024 8:16 am

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“इगास,इगास बग्वाल, इगास दिवाली एवं बूढ़ी दीपावली”

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हिमांशु नौरियाल की रिपोर्ट

दीपावली के 11वें दिन यानी एकादशी को इगास पर्व मनाया जाता है। पूरे उत्तराखंड में इगास धूमधाम से मनाया जाता है। उत्तराखंड के इस लोकपर्व को “इगास बग्वाल”, “इगास दिवाली” और “बूढ़ी दीपावली” के नाम से भी जाना जाता है। इगास त्यौहार के अवसर पर उत्तराखंड राज्य सरकार द्वारा राजकीय अवकाश घोषित किया जाता है।

इगास का त्यौहार “भैलो” खेलकर मनाया जाता है। तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ियों के छोटे-छोटे बंडल बनाकर उन्हें एक विशेष प्रकार की रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा करने के बाद आसपास के लोग एक जगह इकट्ठा होते हैं और भैलो खेलते हैं। भैलो खेल के अंतर्गत भैलो को आग लगाकर करतब दिखाए जाते हैं, साथ ही पारंपरिक लोक नृत्य “चांचरी” और “झुमेलों” के साथ-साथ “भैलो रे भैलो, कखड़ी को रेलू, उजायलु आलो अंधेरो भागलु” आदि लोक गीतों का आनंद लिया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान राम 14 साल बाद लंका पर विजय प्राप्त करके अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दीये जलाकर उनका स्वागत किया और इसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। कहा जाता है कि कुमाऊं क्षेत्र में लोगों को इसके बारे में 11 दिन बाद पता चला, इसलिए यहां यह दिवाली के 11 दिन बाद मनाया जाता है.

इगास त्यौहार का सारा सार एक उत्तराखंडी लोकगीत में छिपा है ……..
“बारह ए गैनी बागवाली मेरो माधो नी आई, सेल ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई।”
मतलब साफ़ है……. दस बार बग्वाल चले, लेकिन माधो सिंह वापस नहीं आये। सेल श्राद्ध चला गया, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टेहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से लड़ने के लिए भेजा था. इसी बीच बग्वाल (दिवाली) का त्यौहार भी था, लेकिन इस त्यौहार तक कोई भी सैनिक वापस नहीं लौट सका। सभी ने सोचा कि माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने दिवाली (बग्वाल) नहीं मनाई। लेकिन दिवाली के 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दावापाघाट युद्ध जीतकर लौटे। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई. उत्तराखंड में दिवाली के दिन को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। वहीं कुमाऊं में दिवाली के 11 दिन बाद इसे इगास यानी “बूढ़ी दीपावली” के रूप में मनाया जाता है.

एकादशी के दिन मिट्ठे करेले और लाल बासमती के चावल का भात बनाया जाता है। भैलो बनाने के लिए गांवा से सुरमाडी के लगले (बेल) लेने के लिए लोग टोलियों में निकलते थे। चीड के पेड़ के अधिक ज्वलनशील हिस्से, जिसमें लीसा होता था को कटकर लाया जाता है। चीड के अलावा इसके छिलके से भी भैलो बनाए जाते थे।

“भैलू” का मतलब होता है “उजाला करने वाला”। इसका एक नाम अंधया भी है। अंध्या मतलब अंधेरे को मात देने वाला। इगास बगवाल में मुख्य आकर्षण भी भैलू ही होता है। लोग भैलू खेलते हैं। इसमें चीड के पेड़ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्दर का लीसा काफी देर तक लकड़ी को जलाये रखता है। पहले गांव के लोग मिलकर एक बड़ा भैलू बनाते थे। जिसमें समस्त गांव के लोग अपने-अपने घरों से चीड़ की लकड़ी देते थे।

एक और कहानी महाभारत काल से भी जुड़ी बताई जाती है। दंत कथाओं के अनुसार महाभारत काल में भीम को किसी राक्षस ने युद्ध की चेतावनी थी। कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब भीम वापस लौटे तो पांडवों ने “दीपोत्सव” मनाया था। कहा जाता है कि इस को भी इगास के रूप में ही मनाया जाता है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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