आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
लखनऊ: उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष का मुख्य चेहरा अखिलेश यादव अब खुद को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। दरअसल, मुलायम सिंह यादव का 10 अक्टूबर 2022 को निधन हो गया। इसके बाद विपक्षी दलों में एक ऐसे नेता की कमी साफ तौर पर दिख रही है, जिसकी स्वीकार्यता लगभग हर दल में हो।
मुलायम सिंह यादव को केवल विपक्ष के ही सर्वमान्य चेहरे में नहीं गिना जाता था। उन्हें विपक्ष और सत्ता पक्ष में पर्याप्त सम्मान मिलता था। सत्ताधारी दल भी मुलायम को नजरअंदाज नहीं कर पाते थे।
यूपीए की मनमोहन सरकार के समय में मुलायम सिंह यादव कई बार तारणहार की भूमिका में दिखे। वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले संसद में दिया गया उनका भाषण कौन भूल सकता है, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा चुनकर आने की शुभकामना दे दी थी।
मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद विपक्ष की वह एकजुट बनाने वाली कड़ी टूटती दिखी है। नीतीश कुमार ने प्रयास किया है, वे सभी दलों को एक साथ लाने का प्रयास करते दिख रहे हैं। ऐसे में अब सबकी नजर अखिलेश यादव पर भी है। सवाल यह कि क्या अखिलेश विपक्षी एकता की धुरी बन पाएंगे? या विपक्षी दल मुलायम की तर्ज पर नीतीश या अन्य किसी को मुलायम वाली सर्वमान्यता स्वीकार करेगा। 23 जून को होने वाली बैठक इसकी भूमिका तैयार करने वाला होगा।
अखिलेश के साथ जुड़ाव में परेशानी
अखिलेश यादव भले ही तमाम विपक्षी दलों के साथ निकटता दिखा रहे हैं, लेकिन उनका स्टैंड क्लीयर होता नहीं दिख रहा है। विपक्षी एकता की बात तो 23 जून की बैठक में पटना में होगी, लेकिन उत्तर प्रदेश के परिपेक्ष्य में इसको देखा जाए तो यहां विपक्ष का बिखराव साफ दिख रहा है। लोकसभा चुनाव 2019 में बना समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन महज कुछ महीनों तक टिक पाया। कुछ यही स्थिति वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन के बाद देखने को मिला। यूपी चुनाव 2022 के बाद भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं दिखी। इस बार छोटे दलों के साथ आई सपा अपने साथियों को जोड़कर रख पाने में कामयाब नहीं हो पाई। 2003 में अल्पमत की सरकार बनाकर कार्यकाल पूरा कराने का कारनामा करने वाले मुलायम सिंह यादव को साथियों ही नहीं, राजनीतिक विरोधियों को भी जोड़कर रखने की कला आती थी।
वर्ष 2012 में यूपी की कमान संभालने के बाद से अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी में अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की तो पहले परिवार में ही कलह हो गया। 2017 आते-आते परिवार बिखड़ चुका था। अखिलेश ने यूपी की सत्ता के साथ-साथ समाजवादी पार्टी पर भी कब्जा जमा लिया। मुलायम सिंह यादव पार्टी के संरक्षक बनाकर एक प्रकार से पार्टी की गतिविधियों से अलग कर दिए गए। शिवपाल यादव एक अलग पार्टी का गठन कर चुके थे। निर्णय अखिलेश के स्तर से होना लगा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के झटकों से उबरने के लिए पार्टी ने वर्ष 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। अखिलेश और राहुल गांधी की दो लड़कों की जोड़ी कोई खास कमाल नहीं कर पाई। भाजपा बड़ी बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में आई। अखिलेश ने जब देखा कि कांग्रेस के साथ से भी उन्हें कोई ठोस फायदा नहीं मिला तो उन्होंने इससे बाहर निकलने का निर्णय ले लिया।
कुछ यही हाल मायावती के साथ गठबंधन के बाद भी हुआ। मायावती ने भाजपा को रोकने के लिए 1995 के गेस्ट हाउस कांड की कड़वी यादों को भुलाकर साथ दिया। लखनऊ का गठबंधन जमीन तक उतर नहीं पाया। गठबंधन का फायदा कुछ हद तक बसपा को मिला। सपा नुकसान में रही। पार्टी 2014 की तरह ही 2019 में भी पार्टी को 5 सीटों पर जीत मिली। बसपा 0 से 10 पर पहुंच गई। यूपी चुनाव 2022 में राष्ट्रीय लोक दल, सुभासपा, महान दल, अपना दल कमेरावादी जैसे छोटे दलों को जोड़ा। हालांकि, अखिलेश के नेतृत्व वाली सपा के साथ दुर्भाग्य यह रहा है कि वह अपने वोट बैंक को सहयोगियों में ट्रांसफर करा देती है, लेकिन सहयोगियों का वोट बैंक पार्टी में ट्रांसफर कराने में विफल रहती है। इस कारण सपा नुकसान में ही रहती है।
तो क्या नीतीश का नेतृत्व होगा स्वीकार?
अखिलेश यादव की गठबंधन के साथियों को जोड़कर रख पाने में नाकामयाबी को लेकर विपक्षी गठबंधन में मुलायम वाली भूमिका मिल पाना मुश्किल दिख रहा है। माना यह जा रहा है कि बिहार की बैठक में नीतीश कुमार या राहुल गांधी को विपक्षी एकता के चेहरे के रूप में सामने पेश कर दिया जाए। ठीक उसी तरह, जैसे वर्ष 2013 के गोवा में हुए भाजपा की बैठक में गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया गया था। अब इस प्रकार की स्थिति अगर उत्पन्न होती है तो सवाल यहां यह होगा कि क्या अखिलेश यादव को यह स्वीकार होगा? यह बड़ा सवाल है। क्षेत्रीय दलों की बड़ी भूमिका की बात कर चुके अखिलेश के लिए मुश्किल तब बढ़ सकती हैं, जब राहुल गांधी को विपक्ष का कमान दिया जाए। हालांकि, ऐसा संभव होता नहीं दिखता। इस कारण ममता बनर्जी से लेकर के चंद्रशेखर राव का इस मामले को लेकर विरोध है।
बात अगर नीतीश कुमार तक आकर टिकती है तो स्थिति और विकट हो सकती है। बिहार की 40 लोकसभा सीटों के मुकाबले यूपी में दोगुनी सीटें हैं। जदयू के मुकाबले समाजवादी पार्टी बड़ी पार्टी है। हालांकि, लोकसभा में संख्या बल को देखें तो जदयू के 16 और सपा के अभी 3 सांसद हैं। इस प्रकार की स्थिति में भी अखिलेश के लिए नीतीश के नेतृत्व को स्वीकार करना मुश्किल भरा निर्णय हो सकता है। हालांकि, पार्टी गैर यादव ओबीसी वोटों पर नजर टिकाए हुए हैं। ऐसे में नीतीश के चेहरे का उपयोग कर सपा अलग माहौल बनाने पर विचार कर सकती है। लेकिन, नीतीश के मंच पर कांग्रेस भी होगी। कांग्रेस यूपी में अपनी अलग तैयारी में है। ऐसे में सपा का क्या कांग्रेस से गठबंधन हो सकता है? इस पर भी सवाल उठ रहे हैं। 23 जून की बैठक कई सवालों के सीधे और कई सवालों के संकेतों में जवाब देने वाली है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."