दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
सागर: नवरात्रि में माता को मनाने चैत्र के महीने में विभिन्न मंदिरों में लोगों का तांता लग रहा है। माता के हर मंदिर के पीछे कोई न कोई मान्यता कोई कहानी कोई रहस्य जरूर होता है। ऐसा ही एक रहस्य जुड़ा है बुंदेलखंड की अबार माता के मंदिर से, जो बंडा क्षेत्र में सागर-छतरपुर की सीमा पर स्थित है। इस मंदिर को लेकर एक कहानी बुंदेली वीर लड़ाके आल्हा और ऊदल से जुड़ी है।
डकैतों की माता का मंदिर, ये है रहस्य
बता दें कि इस मंदिर को डकैतों की माता का मंदिर भी कहा जाता है। बुंदेलखंड के दस्यु युग में दुर्दांत और खूंखार डांकू इसी मंदिर में माता के दरबार में हाजरी लगाते थे। जिनमें पूजा बब्बा, मूरत सिंह, देवी सिंह जैसे डकैतों से लेकर ग्वालियर झांसी के डकैत भी यहां आते थे।
तीन जिलों की सीमाओं से लगा घने जंगली पहाड़ों में बसा यह मंदिर उनके लिए वाकई एक सुरक्षित स्थान रहा होगा जो इस स्थान को उनके अनुकूल तार्किक रूप से सही माना जा सकता है। एक जिले में डकैती डालकर दूसरे प्रदेश या अन्य जिले में चले जाने यहां से आसान था। क्योंकि उत्तरप्रदेश की सीमा भी यहां से लगी हुई है। वहीं चट्टान से बने इस मंदिर की संरचना भी बहुत रोचक और अनोखी है। यहां कोई छिपा हो तो उसे ढूंढना मुश्किल होगा।
छोटा सा पत्थर अपने आप बढ़ते-बढ़ते बना 70 फीट की चट्टान
पत्थरों और बड़ी बड़ी भीमकाय चट्टानों से बने इस मंदिर की गहराइयों में कई रहस्य छिपे हैं। ये चट्टाने बड़ी-बड़ी मशीनों से भी हिलाई नहीं जा सकतीं। यहां एक पिलर नुमा चट्टान ऐसी है जो अपने आप बढ़ती जा रही है। कुछ साल पहले इस चट्टान की चोटी पर माता की छोटी सी मढिया बनाकर मूर्ति स्थापित की गई, जिसके बाद इसका बढ़ना रुक गया। बढ़ते-बढ़ते यह 70 फीट की हो गई है।
मन्नत पूरी होने की मान्यता
मान्यता है कि इस मंदिर में हल्दी रचे हाथ का उल्टा यानी नीचे कि तरफ उंगलियों को घुमाकर हाथ का निशान लगा देने से मन्नत पूरी हो जाती है। लेकिन कृतज्ञता में मनोकामना पूरी होने के बाद सीधे हाथ की छाप लगानी होती है।
12वीं सदी में अस्तित्व में आया ये मंदिर
बुंदेलखंड और वीरों को सदी यानी 12वीं सदी में पृथ्वीराज चौहान को छकाने वाले आल्हा ऊदल की कहानी इस मंदिर की स्थापना से जुड़ी हुई है। यहां चैत्र नवरात्र में माता की कृपा पाने लोगों का तांता लगता है। बुंदेलखंड के वीर आल्हा-ऊदल ने इस मंदिर को बनवाया था। करीब साढ़े 800 साल पहले वे महोबा से माधौगढ़ जा रहे थे। पहुंचने में देर यानि बुंदेली भाषा में अबेर हो जाने पर उन्होंने यहीं बियाबान जंगल में ही अपना डेरा डाल दिया। रात में जब उन्होंने अपनी आराध्य देवी का आह्वान किया तो मां ने उन्हें दर्शन देकर इसी स्थान पर मंदिर बनवाने की प्रेरणा दी। माता की प्रेरणा से उन्होंने यहां चट्टान पर मां की मढ़िया बनावा कर प्रतिमा स्थापित कराई। तभी से यहां मां को अबार माता के नाम जाना जाने लगा।
Author: samachar
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