मोहन द्विवेदी
आज हमारे देश का ‘गणतंत्र दिवस’ है। हमारा देश लोकतांत्रिक है, लेकिन गणतंत्र तब बना, जब हमने अपने संविधान को ग्रहण किया, लिहाजा आज ‘संविधान दिवस’ भी माना जाता है। भारत में संविधान और उसके नागरिक ‘सुप्रीम’ हैं, क्योंकि संविधान ‘हम भारत के लोग…’ पर आधारित है। देश के नागरिकों को मौलिक अधिकार हासिल हैं। असंख्य अन्य अधिकार भी प्राप्त हैं। प्राथमिक स्तर पर नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, जीवन जीने का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, आजीविका कमाने और देश में कहीं भी आने-जाने या बसने का अधिकार, मताधिकार आदि के जरिए असली ताकत ‘आम नागरिक’ के हाथ में है, लिहाजा भारत लोकतंत्र के साथ-साथ गणतांत्रिक और संवैधानिक देश भी है। संविधान के रचनाकार डॉ. अंबेडकर ने बार-बार चेताया था कि नागरिक को सिर्फ ‘मतदाता’ ही नहीं बनना है। यदि मतदाता ही बना रहा, तो राजनेता और कानून बनाने वाले ज्यादा ताकतवर होते जाएंगे और नागरिक कमज़ोर होता जाएगा। निर्वाचित जन-प्रतिनिधि की जवाबदेही भी मतदाता को ही तय करनी है। बेशक 1950 से भारत एक गणतांत्रिक देश है, लेकिन संविधान का कई बार उल्लंघन किया गया है अथवा कुछ छिद्रों का दुरुपयोग किया गया है। ताज़ा ख़बर तेलंगाना की है, जहां की चंद्रशेखर राव सरकार ने राज्यपाल टी. सुंदरराजन को कहा है कि वह अपना अलग ‘गणतंत्र दिवस’ समारोह मनाएं। जबकि राज्य सरकार राज्यपाल के नाम पर ही संचालित की जाती है, ऐसा संविधान में प्रावधान है। यानी इस साल तेलंगाना में दो अलग-अलग, अधिकृत ‘गणतंत्र समारोह’ मनाए जाएंगे। यह दो शीर्षतम संवैधानिक पदासीन हस्तियों के बीच कटुता और रूखेपन की पराकाष्ठा है।
यह गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय महत्त्व, गरिमा और संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन भी है। बेशक राज्यपाल ने उन 8 विधेयकों पर अपनी सहमति नहीं दी है, जिन्हें विधानसभा में पारित किया गया था। राज्यपाल बनाम कार्यपालिका की यही स्थितियां केरल, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भी देखी गई हैं। राजधानी दिल्ली में तो उपराज्यपाल बनाम मुख्यमंत्री का टकराव गालियों और अभद्र भाषा तक पहुंच चुका है, लेकिन उनके मायने ये नहीं हो सकते कि राज्यपाल और सरकार अलग-अलग गणतंत्र दिवस मनाएं। गणतंत्र का पहला और बेहद गंभीर अद्र्धसत्य यही है। बेशक ब्रिटिश हुकूमत के दौरान गवर्नर साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी सत्ता का एजेंट होता था, लेकिन गणतांत्रिक और संवैधानिक भारत में राज्यपाल, देश के राष्ट्रपति का, अधिकृत प्रतिनिधि होता है, जिसकी अनुशंसा भारत सरकार करती है। संविधान के अनुच्छेद 200 में स्पष्ट उल्लेख है कि सदन द्वारा पारित बिलों पर राज्यपाल को सहमति किस तरह देनी है, लेकिन संविधान में उसकी समय-सीमा तय नहीं है, नतीजतन अलग-अलग पक्षों के राज्यपाल कुंडली मार कर बैठ जाते हैं और बिल लटक कर रह जाते हैं। बहरहाल दूसरा अहम उदाहरण संसद का है। संसद में सत्ता और विपक्ष के बीच समन्वय, सौहाद्र्र के समीकरण आजकल नगण्य हैं। पूरा सत्र हंगामों की बलि चढ़ जाता है। ध्वनि-मत से कुछ बिल पारित कर लिए जाते हैं, लेकिन पर्याप्त बहस के बिना बिल पारित करना भी बेमानी है। यह भी गणतंत्र और संविधान के अद्र्धसत्य की अहम मिसाल है।
भारत आज गणतंत्र दिवस मना रहा है। 26 जनवरी, 1950 को लागू स्वतन्त्र भारत के संविधान के बाद हमने न जाने कितने ऐसे पड़ाव पार किये हैं जिनका सम्बन्ध भारत के आम लोगों की मेहनत व लगन से है जिसकी बदौलत यह देश आज दुनिया के शीर्षस्थ 20 औद्योगिक राष्ट्रों की कतार में शामिल हुआ। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों द्वारा कंगाल बनाकर छोड़ गये भारत की यह उपलब्धि किसी भी दृष्टि से कम करके नहीं आंकी जा सकती। हमने यह पूरा रास्ता उसी संविधान की छत्रछाया में अपनायी गई बहुदलीय राजनैतिक संसदीय प्रणाली के तहत ही पूरा किया और सिद्ध किया कि पूरी दुनिया में केवल प्रजातान्त्रिक प्रणाली ही वह प्रणाली है जिसके तहत आम जनता और आम आदमी को अपने निजी विकास की पूरी छूट दी जा सकती है। ऐसा हमने जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को जनता के प्रति ही पूर्णतः जवाबदेह बनाकर किया जिसका माध्यम संसद तय किया गया था। संसद में पहुंचे जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के प्रति पूरे देश के संवैधानिक संस्थानों को भी हमने उत्तरदायी इस प्रकार बनाया कि किसी भी ऊंचे से ऊंचे पद पर चुना गया व्यक्ति स्वयं को किसी भी परिस्थिति में निरापद न समझे। हमने विभिन्न दलों की सरकारों को ‘संविधान के शासन’ से बांधकर तय किया कि राजनैतिक हितों के आगे सर्वदा राष्ट्रीय हित सर्वोपरि रहें और संविधान की निगरानी में जिनकी परिपालना हो। सवाल यह है कि 73 वर्ष बाद आज हम जिस पड़ाव पर पहुचे हैं उसमें आम आदमी की स्थिति क्या है? बेशक आज के भारत में गरीबी की परिभाषा बदल चुकी है मगर इसके बावजूद अमीर और गरीब के बीच बनी खाई चौड़ी हुई है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय यही है जिसकी तरफ देश के सभी राजनैतिक दलों को ध्यान देना होगा। हमारे संविधान ने हमें ‘लोक कल्याणकारी राज’ की संस्थापना का सिद्धान्त दिया और हर प्रकार के वर्गगत, धार्मिक, क्षेत्र व लिंग से ऊपर उठकर देश के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार देकर सभी को समदृष्टि से देखने का निर्देशक सिद्धान्त तय किया और भारत को एक भौगोलिक सीमाओं में बन्धा राष्ट्र माना अर्थात् भारत के जिस भू-भाग पर जिस भी धर्म व जाति और वर्ग या सम्प्रदाय के लोग रहते हैं वे सभी भारतीय हैं। इन्हें न तो क्षेत्र या रंग अथवा बोली या भाषा और न ही मजहब के आधार पर बांटा जा सकता है। स्वतन्त्र भारत में स्वीकार की गई यह राष्ट्रीय परिभाषा पूरी दुनिया के शोषित व पीड़ित समाज के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में रहने वाले लोगों के लिए प्रकाश का स्रोत बनी और विश्व के विभिन्न गुलाम देशों में ‘गांधीवादी आजादी’ के रास्ते को नये सूरज की तरह देखा गया। अतः जब स्वतन्त्र भारत में इसके नागरिकों के बीच किसी भी मुद्दे पर वैमनस्य की स्थिति पैदा होती है तो भारत का संविधान इसे राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध मानता है। संविधान की मूल परिकल्पना के अनुसार राष्ट्र इसके लोगों से बनता है अतः इसके लोगों का विकास देश के विकास का पैमाना होता है। यह विकास जीवन के हर क्षेत्र में होना चाहिए। सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि भारत के लोगों का वैचारिक विकास हो और वे रूढ़ीवादी व अंधविश्वास की परंपराओं को छोड़कर वैज्ञानिक सोच को अपनाएं।
हमारा संविधान भी इस बात की ताईद करता है और कहता है कि सरकारों का दायित्व होगा कि वे लोगों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए कारगर कदम उठायें। मगर जब समाज में यह भावना फैलने लगती है कि उसके एक वर्ग के विकास में समाज का ही कोई दूसरा वर्ग अवरोध है तो इसका असर राष्ट्रीय विकास पर पड़ता है और आरोपित वर्ग की विकास में शिरकत शिथिल पड़ जाती है जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है। यह विकास केवल शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही संभव हो सकता है क्योंकि शिक्षित व स्वस्थ नागरिक ही राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। परन्तु मजहब या धर्म पालन करने की आजादी सुनिश्चित करने के चक्कर में जीवन के इस महत्वपूर्ण पहलू को हम शायद नजरंदाज कर गये और शिक्षा को भी हमने मजहब के दायरे में कैद कर डाला।
स्वतन्त्र भारत में हर धर्म व सम्प्रदाय व वर्ग के लोगों के लिए एक समान शिक्षा का होना देश की तरक्की के लिए बहुत जरूरी था। यह सवाल राष्ट्रवाद का बिल्कुल नहीं बल्कि राष्ट्र के विकास का है। भारत का संविधान मजहब या धर्म को नागरिक का पूर्णतः निजी मामला मानता है। अतः धार्मिक शिक्षा के लिए नागरिकों में अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के आधार पर भेद नहीं किया जा सकता। गणतंत्र का मतलब सत्ता में सीधे नागरिकों की शिरकत से होता है मगर जब इन नागरिकों की सोच धर्म या सम्प्रदाय के दायरों में ही कैद रहेगी तो लोकतन्त्र की आधारशिला चुनाव प्रणाली इन आग्रहों से ग्रसित हुए बिना नहीं रह सकती। यही वजह कि देश में जाति और समुदाय तक के आधार पर राजनैतिक दल बने हुए हैं जो चुनावों के वक्त नागरिकों के सबसे बड़े एक वोट के संवैधानिक अधिकार का सौदा इन्हीं आग्रहों के चलते करने में सफल हो जाते हैं। संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने दलित वर्ग के लोगों को एक मूल मन्त्र दिया था कि ‘शिक्षित बनो- आगे बढ़ो’, मगर दलितों के हितों का दावा करने वाले राजनैतिक दल ठीक इसके विपरीत कार्य करते नजर आते हैं और इस मन्त्र का उच्चारण भूले से भी नहीं करते। ठीक ऐसा ही वातावरण मुस्लिम समाज में भी इसकी ‘मुल्ला ब्रिगेड’ ने बना रखा है। अपने समाज को मजहबी अन्धविश्वासों और रूढ़ीवादी मान्यताओं में जकड़े रखना चाहती है। परन्तु दुर्भाग्य से इसका असर उन्मुक्त व वैज्ञानिक वैचारिक प्रवाह में जीने वाले हिन्दू समाज पर भी पड़ रहा है जिससे भारतीयता ही आहत होती है राष्ट्रीय विकास प्रभावित होता है। हमें सभी धर्मों के उन विचारों को सतह पर लाकर अपने गणतंत्र को मजबूत करना चाहिए जिस प्रकार महात्मा गांधी किया करते थे। मगर यह कार्य बिना शिक्षा के एक समान विस्तार के नहीं हो सकता।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."