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November 25, 2024 4:59 am

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मां सीता ने इन चार जगहों पर गुजारा वक्त ; लव कुश की उजाड़ पड़ी जन्मस्थली: पढ़िए खास रिपोर्ट

24 पाठकों ने अब तक पढा

मिश्रीलाल कोरी और राजा कुमार साह की रिपोर्ट 

जहां माता सीता ने अपने जीवन का सबसे ज्यादा समय गुजारा। मतलब जन्म स्थान कहे जाने वाले पुनौरा धाम, राजा जनक के नगर जनकपुरी फिर जहां विवाह कर आई वो अयोध्या और आखिरी में बिहार-नेपाल बॉर्डर पर मौजूद वाल्मीकि आश्रम जहां उन्होंने वनवास काटा और लव-कुश को जन्म दिया।

जनकपुर हमेशा की तरह सजकर तैयार है। दीपावली का उत्सव यहां धूमधाम से मनता है। अयोध्या दीपोत्सव के वर्ल्ड रिकॉर्ड की तैयारी कर रहा है। पुनौराधाम जहां सीता माता पहली बार धरती से मिली थीं, वहां भी कुछ हलचल है। लेकिन, जिस वाल्मीकि आश्रम में उन्होंने आखिरी दिन गुजारे और लव-कुश को जन्म दिया, वो आश्रम और माता सीता से जुड़ी वो सारी निशानियां जर्जर हालात में हैं। करीब 100 किमी के श्रेत्र में फैले वाल्मीकि आश्रम की हालत कुछ अच्छी नहीं है।

सीता के नाम पर भोजनशाला लेकिन कभी-कभी ही बनता है खाना

पहला स्थान है बिहार का सीतामढ़ी। यहीं पर है पुनौरा धाम, जहां मां सीता का प्रकट हुई थीं। जब राजा जनक के मिथिला राज्य में अकाल पड़ा था, तो ऋषियों के सलाह पर राजा जनक ने हल चलाया था। उसी दौरान पुनौरा में माता सीता का धरती से प्रकट हुई थी। पहले यह क्षेत्र पुंडरिक आश्रम में था, माता सीता के प्रकट होने के बाद पुंडरिक ऋषि ने इसे राजा जनक को उपहार में दिया, कालांतर में ये भारत के सीतामढ़ी जिला में है।

मंदिर अच्छी तरह से विकसित किया हुआ है। वैसे तो रामनवमी, विवाह पंचमी व सीता जन्मोत्सव के अवसर पर 50 हजार तक लोग प्रतिदिन दर्शन के पहुंचते हैं लेकिन दीपावली पर यहां बाहरी श्रद्धालु ना के बराबर आते हैं। तब लोकल लोग ही यहां दीया जलाने आते हैं। मंदिर में पूजा पाठ की व्यवस्था मंहत कौशल किशोर दास करते हैं, वहीं अन्य व्यवस्था ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। महंत ने बताया कि ट्रस्ट नाम का है, केवल खानापूर्ति होती है, मंदिर की कोई व्यवस्था नहीं की जा रही है और नहीं यहां के पूजारी व अन्य कर्मियों पर ध्यान दिया जाता है। उन्होंने बताया कि यहां महावीर न्यास ट्रस्ट द्वारा सीता भोजनालय की स्थापना है, लेकिन यदा कदा ही उसमें भोजन की व्यवस्था होती है। जबकि उसकी स्थापना तीर्थ यात्री व संतों के भोजन के लिए किया गया था।

दूध पीते समय जहां सीता के मुंह से गिरे दूध के झाग, जनकपुर में आज वहां बहती है दूधमती नदी

काठमांडू। नेपाल में धार्मिक मान्यता है कि पौराणिक काल में यहां कई दूध की नदियां बहा करती थी। इसी मान्यता के आधार पर जनकपुरधाम में एक नदी का नाम दुधमती है। दूधमती नदी का इतिहास मिथिला के राजा जनक की पुत्री मां सीता के जीवन से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि सीता का जन्म पृथ्वी के गर्भ से हुआ था, जब राजा जनक हल जोत रहे थे। इस वजह से राजा जनक की पत्नी सुनैना उन्हें मां का दूध नहीं पिला सकती थी। तब राजा जनक ने सीता को दूध पिलाने के लिए कामधेनु गाय खरीदी ली। एक दिन सीता जब कामधेनु गाय का दूध पी रही थी, तब उनके मुंह से दूध की झाग गिर पड़ी। इस झाग से दूधमतती नदी का जन्म हुआ।

16 साल में जनकपुर मंदिर का काम पूरा हुआ था

यहां माता सीता का मंदिर बना हुआ है। ये मंदिर करीब 4860 वर्ग फीट में फैला हुआ है। मन्दिर के विशाल परिसर के आसपास लगभग 115 सरोवर हैं। इसके अलावा कई कुण्ड भी हैं। इस मंदिर में मां सीता की प्राचीन मूर्ति है जो 1657 के आसपास की बताई जाती है। यहां के लोगों के अनुसार एक संत यहां साधना-तपस्या के लिए आए। इस दौरान उन्हें माता सीता की एक मूर्ति मिली, जो सोने की थी। उन्होंने ही इसे वहां स्थापित किया था। इसके बाद टीकमगढ़ की महारानी कुमारी वृषभानु वहां दर्शन के लिए गईं। उन्हें कोई संतान नहीं थी। वहां पूजा के दौरान उन्होंने यह मन्नत मांगी थी कि उन्हें कोई संतान होती है तो वो वहां मंदिर बनवाएंगी। संतान प्राप्ति के बाद वो फिर आईं और करीब 1895 के आसपास मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। 16 साल में मंदिर का निर्माण पूरा हुआ।

अयोध्या में 10 हजार मंदिर कनक भवन में भगवान कृष्ण ने स्थापित की मूर्तियां

अयोध्या. यहां दस हजार मंदिर हैं पर इनमें सबसे खास है कनक भवन, जहां सीता के रूप में खुद महालक्ष्मी विराजमान हैंl इसे माता कैकेयी ने सीता जी को मुंह दिखाई में दिया थाlयह महल भगवान श्रीराम का निजी महल है जहां से सीता जी के साथ चौपड़ खेलते हैंl

मंदिर के पुजारी दिनेश महाराज के अनुसार महल बिहारी की स्थापना महारानी बृषभानु कुंवरि ने कीl कनक बिहारी की स्थापना राजा विक्रमादित्य ने की और मणिपुर बिहारी की स्थापना स्वयं भगवान कृष्ण ने द्वापर युग में की थीl इनका दर्शन करने रोज 30 हजार से ज्यादा भक्त आते हैंl मेलों में भक्तों की संख्या 20 लाख तक पहुंच जाती हैl

संतों का अनुभव है कि त्रेता युग में कनक भवन भवन 5 कोस में फैला था और यह अयोध्‍या नगरी में स्थित सबसे दिव्‍य महल था। जबकि अयोध्या राज महल पांच कोस में फैला हुआ था। उन्होंने बताया कि श्रीसीता महालक्ष्मी के अवतार के रूप में खुद यहां भक्तों को दर्शन देतीं हैंl

चारों दिशाओं से है कनक भवन की सुरक्षा

पुजारी दिनेश महाराज ने बताया कि कनक भवन की सुरक्षा के लिए हनुमानगढ़ी में हनुमान जी, विभीषण कुंड में विभीषण, उनके पुत्र मत-गजेंद्र और गुरु वशिष्ठ चारों दिशा अर्थात द्वार पर विराजमान हैl इनकी आज्ञा से ही भक्तों को कनक भवन दर्शन के लिए आगे के रास्ते पर प्रवेश मिलता हैl

पूजन की थाल के 16 दीपक से ही पूर मंदिर में अन्य दीपक जलाए जाते

उन्होंने बताया कि दीपावली पर शाम 6 बजकर 30 मिनट पर गणेश और लक्ष्मी के साथ सरस्वती पूजन होता हैlइन दिन भगवान को अनेक मिष्ठान आदि के भोग और दिव्य वस्त्र और आभूषण धारण कराए जाते हैंl पूजन की थाल के 16 दीपक से ही पूर मंदिर में अन्य दीपक जलाए जाते हैंl रात्रि 9 बजकर 30 मिनट पर आरती के बाद भगवान शयन में चले जाते हैंl और मंदिर का पट बंद हो जाता हैl इसके बाद रात्रिकाल में मंदिर में कोई नहीं रह सकता।

जहां जन्मे लव-कुछ वो वाल्मीकि आश्रम 112 किमी में फैला है

पश्चिम चंपारण जिले के उतर पश्चिम में जिला मुख्यालय से 125 किलोमीटर की दूरी पर भारत नेपाल की सीमा पर वनों, पहाड़ियों एवं नदियों के संगम पर स्थित महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है। शिवालिक रेंज की पहाड़ियों में स्थित यह स्थल काफी मनोरम है। त्रैता युग में माता सीता की शरण स्थली, लवकुश की जन्म स्थली, 88 हजार ऋषि मुनियों की तप स्थली एवं सृष्टि के पहले महाकाव्य वाल्मीकि रामायण की रचना स्थली के रुप में ये आश्रम जाना जाता है।

कभी निर्जन जंगल के रुप में रहे इस स्थल पर आज विकास की छाप पड़ने लगी है। हालांकि, अभी यहां उतना विकास नहीं हो पाया है। रामायण काल की जो धरोहरें यहां हैं, उनका रख-रखाव वैसा नहीं है, जैसा होना चाहिए। वे सारे स्थान जहां रामायण काल की निशानियां हैं, बेतरतीब घास-फूस उग रही है। उजड़ रही है। यहां लोगों का आना-जाना भी कुछ कम ही है।

नेपाल की ओर से आश्रम परिसर में एक प्रहरी चौकी भी स्थापित की गई है। वाल्मीकिनगर वनों, पहाड़ों व नदियों की त्रिवेणी के साथ इस स्थल पर दूसरी त्रिवेणी तीन पवित्र नदियों की है। जिसमें पावन गंडक, सोनहा व तमसा नदियां आती है। नेपाल की त्रिवेणी से आश्रम की पहाड़ी पर आने के लिए नेपाल की ओर से गंडक पर झूला पुल का निर्माण कराया जा रहा है। ताकि नेपाली पर्यटकों एव श्रद्धालुओं की भारत की भूमि से न होकर सीधे त्रिवेणी से आश्रम तक पहुंचने में सहुलियत हो।

17.5 लाख साल पुरानी शिला है प्रमाण

26 सालों से सीता पाताल प्रवेश मंदिर के पुजारी रहे शेखर सुवेदी बताते है कि आश्रम से करीब डेढ़ किलोमीटर पूरब में तमसा नदी में पत्थर की एक बेंचनुमा आकृति है। जो करीब 17.5 लाख वर्ष पहले त्रैतायुग में त्रिकालदर्शी महर्षि वाल्मीकि का स्नानागार हुआ करता था। सुवेदी बताते है कि सृष्टि के पहले महाकाब्य रामायण की रचना यही हुई है।

इसके इतर, सीता का पाताल प्रवेश मंदिर, जहां से सीता पाताल में चली गई थी। सीता के गागर रखने का स्थान, 112 किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस आश्रम में उस समय 88 हजार ऋषि मुनियों के यज्ञ का हवन कुंड, लव व कुश की जन्म स्थली, लव व कुश के आर्युवेद व धर्नुवेद की शिक्षा स्थली, घोड़ा बांधने का स्थल, वाल्मीकि की तपस्या स्थली, अमृत कुंआ, सीता का सिलौढ़ा, तमसा नदी में सीता का स्नानागार सहित प्राचीन देवी देवताओं की प्रतिमाएं जो स्वत जमीन से प्रकट हुई है वह आज भी यहां प्रमाणिक धरोहर के रुप में मौजूद है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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