- मृत्युंजय दीक्षित
लेखक एवं संपादक प्रमोद दीक्षित मलय द्वारा सम्पादित पुस्तक ”प्रकृति के आंगन में” एक सराहनीय प्रयास है जिसमें प्रकृति के प्रति प्रेम, संवेदना एवं माधुर्य के स्वर बिखरे हैं।
जब कोरोना कालखंड में पूरा विश्व अपने घरों में कैद होकर जीवन सुरक्षा में लगा था उस समय योग, ध्यान व अध्यात्म तथा स्वच्छता जैसे विषय पूरी दुनिया में छा गए थे और इन्हीं के माध्यम से समाज के बहुत से लोगों का जीवन बचाया भी जा सका था।
कोरोना काल खंड में आम जनमानस को पर्यावरण की महत्ता भी समझ में आई तथा उसके संरक्षण की आवश्यकता का अनुभव हुआ।
यह पुस्तक आपदा की उसी सीख को आगे बढ़ाते हुए आम जनमानस को पर्यावरण के प्रति सोचने व उसे संरक्षित करने के लिए प्रेरित कर रही है। कोरोना कालखंड में लोगों ने प्रकृति का महत्व समझा और घरों में रहकर पौधों की देखभाल करना सीखा, इन सभी बातों का उल्लेख संकलन के विभिन्न लेखकों ने अपने लेखों में किया है।
पुस्तक में जन मन को प्रकृति के विषय में जानकारी देने का प्रयास भी किया गया है। पुस्तक में 104 शिक्षक–शिक्षिकाओं की रचनाओं को सम्मिलित किया गया है जिन्हें विचार हरीतिमा एवं काव्य हरीतिमा अंतर्गत दो भागों समाहित किया गया है। ये सभी रचनाएँ पर्यावरण व प्रकृति के विषय में ही हैं तथा इनमें गद्य तथा काव्य दोनों हैं।
आभा त्रिपाठी का लेख ‘प्रकृति प्रेम की सीख’ पठनीय व विचारणीय है जिसमें लेखिका का मत है कि कोरोना महामारी प्रकृति के प्रति हमारी उदासीनता की ही देन थी और हमने उसमें अनगिनत अपनों को खोया था।
दीक्षा मिश्रा का लेख ‘नीम की स्मृतियां’ में नीम के पेड़ की पत्ती, लकड़ी, छाल आदि सभी का महत्व ग्रामीण परिवेश ही नहीं अपितु सभी के लिए साहित्य की भाषा में बहुत ही सरल ढंग से समझाया गया है। लेखिका ने लेख के अंत में एक नीम पर एक सुंदर कविता भी लिखी है।
डॉ. पूजा यादव ने ‘सेंट्रल टेबल पर बोनसाई’ के माध्यम से पौधों को बढ़वार को नियंत्रित कर लघु रूप देने की बजाय खुले आसमान में स्वतंत्र विकास को बेहतर बताया है तो वर्षा श्रीवास्तव एवं हरियाली श्रीवास्तवा ने अपने लेखों में अपने विद्यालयों में विकसित किये गये उद्यानों की चर्चा की है। हरियाली की सांसें, प्रकृति की छांव में, सबसे अच्छा मित्र आदि लेख भी पाठक का ध्यान खींचते हैं।
पुस्तक हेतु चयनित सभी कविताएं पर्यावरण के प्रति सकारात्मक सन्देश दे रही हैं और अधिक से अधिक पेड़ लगाने, पृथ्वी एवं पर्यावरण बचाने की अपील भी कर रही हैं। ये सभी कविताएं समसामयिक तो हैं ही किन्तु समयातीत भी रहेंगी।
पुस्तक की भूमिका में पर्यावरणविद् देवेंद्र मेवाड़ी ने भारतीय परंपरा में प्रकृति को मां के रूप में सम्बोधित करते हुए वैदिक साहित्य से लेकर लोक साहित्य तक प्रकृति के विविध रूपों की अर्चना-आराधना की प्रवाहित समृद्ध धारा का उल्लेख किया है। प्रकृति समस्त प्राणियों को आश्रय देती है और पोषण भी प्रदान करती है। हमारे पूर्वज प्रकृति के साथ जीने के भाव के साथ जीते रहे हैं। इसीलिए विकसित हुई जल एवं कानन संस्कृति की सरस हरितिमा से लोक जीवन ओतप्रोत एवं अनुप्राणित रहा है। वृक्ष और मानव के संबध अन्योन्याश्रित रहे हैं।
“प्रकृति के आंगन में” पुस्तक 261 पृष्ठों में सम्पूर्ण हुई है जिसका हर पृष्ठ पठनीय, संग्रहणीय, विचारणीय, समसामयिक व सकारात्मक संदेश देने वाला है। मुझे विश्वास है शिक्षक एवं संपादक प्रमोद दीक्षित मलय के संपादन में प्रकाशित यह कृति पर्यावरण प्रेमियों के बीच समादृत होगी।
समीक्षित पुस्तक – प्रकृति के आंगन में, संपादन – प्रमोद दीक्षित मलय, स्वरूप – पर्यावरण पर आधारित गद्य एवं काव्य रचनाओं का संकलन, सम्मिलित रचनाकार – 104, पृष्ठ संख्या – 261, प्रकाशक – रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज , मूल्य- ₹ 300/
समीक्षक स्वतंत्र पत्रकार हैं एवं सम-सामयिक मुद्दों पर सतत लेखन।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."