दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
उम्र 94 साल। कमजोरी इतनी कि आंखें नहीं खुलतीं। दो शब्द बोलें तो हांफ जाते हैं। कंठ से निकले स्वर खरज पर ही ठिठक जाते हैं। लेकिन मन-प्राण में बसे वैदेही के पिता राजा जनक ने आज भी उनका साथ नहीं छोड़ा। यह वंशलाल त्रिपाठी ‘शलभ’ हैं। दशकों तक उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों की रामलीलाएं उनके बिना अधूरी मानी जाती थीं। वह जनक की भूमिका में उतरते थे तो पूरा मंच, नेपथ्य और दर्शक दीर्घाएं सुबकने लगती थीं। जनक इस कदर उनके व्यक्तित्व में समाए कि बहू शानू में भी वह बेटी सिया के ही दर्शन करते हैं।
बेटे-बहू की सेवा ने उन्हें भीषण दूसरी लहर में भी सुरक्षित बचा लिया पर उम्र, कोविड की मार और लगातार संक्रमण ने शरीर जर्जर कर दिया है। एस ब्लाक, यशोदानगर के घर में वह आराम करते हैं। उनकी बहू शानू बताती हैं, ‘रामलीला शुरू होते ही जाने कहां-कहां से लोग पापा से मिलने आते हैं। ऐसे लोगों से मुलाकात ही अब इनकी संजीवनी है।’ रामलीला का जिक्र छेड़ने पर उनके भीतर छिपे विदेहराज जाग जाते हैं। अचानक जनक का संवाद उनके कंठ पर छा जाता है.. ‘जाओ.. बंदीजन जाओ, जाओ आदेश सुनाने जाओ…। लेकर आशा का दीप तमस भगाओ। फिर पूछते हैं.. इस बार कहां-कहां लीलाएं हो रही हैं? शिक्षक रहे शलभ युवावस्था में उर्दू अदब में भी दिलचस्पी रखते थे। आपको कुछ शेर तो अब भी याद होंगे? जवाब में वह सुनाते हैं, ‘मैं आज तक छिपाता रहा यारों से राज-ए-इश्क। हालांकि दुश्मनों से ये किस्सा छिपा नहीं।’
जनक की भूमिका में 57 साल
05 नवम्बर 1946 को पहली बार उन्होंने साकेत धाम, शिवली की रामलीला में जनक की भूमिका निभाई। इस अभिनय के लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला। इसके बाद उन्होंने 6000 से ज्यादा लीलाओं में जनक की भूमिका निभाई। यह सिलसिला 2003 में थमा। कानपुर नगर, देहात, मध्यप्रदेश व उत्तर भारत के कई जिलों के मंचों पर उन्हें जनक के जीवंत अभिनय के लिए सराहा गया। वह ललित कला, गुण-गौरव, कला वारिधि सम्मानों से भी सम्मानित किए गए।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."