अनिल अनूप
प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 के राष्ट्रीय जनादेश के बाद ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का जो आख्यान गढ़ा था, वह फिजूल राजनीति नहीं थी। यह हम भी मानते रहे हैं कि देश से कांग्रेस का नाम साफ नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी का मंतव्य भी यही था कि देश कांग्रेस को ‘अस्वीकार’ करने लगेगा। हकीकतन आज वही परिदृश्य सामने है। मौजूदा जनादेश में कांग्रेस की उपस्थिति नगण्य है। उसने पंजाब में सरकार खोई है और जनता ने उसे बुरी तरह खारिज किया है। जिस पार्टी का मुख्यमंत्री दोनों सीटों पर पराजित हो जाए और प्रदेश अध्यक्ष भी एक नौसीखिया चेहरे से हार जाए, उस पार्टी की स्वीकार्यता पर क्या टिप्पणी करेंगे? कांग्रेस का देश के सबसे बड़े राज्य उप्र में सूपड़ा साफ हो गया। कुल 403 सीटों में से मात्र 2 सीटें ही कांग्रेस को नसीब हुईं। प्रियंका गांधी वाड्रा ने ‘लड़की के लड़ने’ का आह्वान करते हुए 144 महिलाओं को चुनाव-मैदान में उतारा था। मात्र एक महिला ही जीत पाई। अधिकतर की जमानत जब्त हो गई। यकीनन कांग्रेस का यह नारा मौलिक और प्रयोगवादी था। प्रियंका उप्र की आधी आबादी को कांग्रेस के बैनर तले लामबंद करना चाहती थी और एक नई राजनीति का सूत्रपात करना चाहती थी, लेकिन आधी आबादी की पहली पसंद प्रधानमंत्री मोदी ही रहे। कांग्रेस में अक्सर चर्चा चलती रहती थी कि प्रियंका अपनी दादी दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं।
उनकी आवाज़ और बोलने की कला भी दादी सरीखी है, लिहाजा उन्हें सक्रिय राजनीति में उतारा जाना चाहिए। राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्षी के दौरान बहिन प्रियंका को पार्टी महासचिव का पद-दायित्व दिया गया और उप्र का प्रभारी बनाया गया। बेशक प्रियंका ने उप्र में खूब मेहनत की, कड़े बयान दिए और पार्टी को संचालित रखने की कोशिशें कीं, लेकिन राज्य के करीब 800 मंडलों में न पार्टी काडर है, न संगठन है और न ही संसाधन हैं। कांग्रेस चुनाव जीतने या अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद कैसे कर सकती थी? प्रियंका के रूप में जो ‘बंद मुट्ठी’ थी, अंततः वह भी खुल गई। दादी सरीखे करिश्मे का रहस्य भी बेनकाब हो गया। ‘लड़की’ लड़ नहीं सकी। रायबरेली और अमेठी को ‘कांग्रेस-गढ़’ मानने का मुग़ालता भी भंग हो गया, क्योंकि वहां लगभग सभी सीटों पर भाजपा ने परचम लहराया है।
प्रियंका और कांग्रेस का यह प्रयोगवादी नारा कब सार्थक और सफल साबित होगा, हमें भी निकट भविष्य में कोई आसार नहीं दिखते। उप्र में पार्टी का जो वोट शेयर 6.3 फीसदी था, वह घटकर 2.3 फीसदी तक लुढ़क आया है। क्या ये कांग्रेस-मुक्त होने के संकेत नहीं हैं? कभी देश के 17 राज्यों के साथ करीब 88 फीसदी आबादी पर कांग्रेस राज करती थी, लेकिन आज सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही सरकारें शेष हैं। वहां भी अंतर्कलह के कारण पार्टी चरमरा रही है। 2023 में राजस्थान और छत्तीसगढ़ समेत पूर्वोत्तर और कई अन्य राज्यों में चुनाव होने हैं। क्या कांग्रेस का कोई सत्तारूढ़ अवशेष बचेगा? झारखंड और महाराष्ट्र की गठबंधन सरकारों में कांग्रेस की भी हिस्सेदारी है, लेकिन वे ठोस और स्थायी नहीं आंकी जा सकतीं। मतभेद और दोफाड़ होने में कितना वक़्त लगता है! 2021 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी में कांग्रेस पराजित हुई या हाशिए पर चली गई। अब उप्र के अलावा उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर में भी कांग्रेस पराजित हुई है। ये कांग्रेस और गांधी परिवार के सियासी भविष्य के लिए खतरे के स्पष्ट संकेत हैं। देश में कांग्रेस के अवशेष रहेंगे, क्योंकि पार्टी कोने-कोने तक फैली है, लेकिन वह उपस्थिति नाममात्र ही होगी। उसकी कोई राजनीतिक और चुनावी अहमियत नहीं।
Author: samachar
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