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28 December 2024 10:35 am

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सरकारी स्कूलों का गिरता स्तर: इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता की कमी 

25 पाठकों ने अब तक पढा
  • केवल के पनगोत्रा 

आप क्या कह रहे हैं?  क्या सुन रहे हैं? और कैसा कर रहे हैं? हर दिन और हर पल हमारा आचार-विचार और व्यवहार ऐसे सवालों और जवाबों की कसौटी पर घिसता है. शालीनता, मानवता और मर्यादा के दायरे से बाहर होते ही आपके स्कूल और शिक्षक की काबलियत पर तंज और रंज का हथौड़ा पड़ सकता है. 

जब हम तरक्क़ी की दुहाई देते हैं तो भी स्कूल और शिक्षा की बात चल निकलती है. क्यों कि तरक्क़ी से कई तदबीरें और तरकीबें जुड़ी हैं. तरक्क़ी की तरकीबों और तदबीरों की किताब के सफ़ा-ए-अव्वल यानि पहले पेज़ पर जिस तदबीर का ज़िक्र होता है उसे तालीम यानि शिक्षा कहते हैं.

आधुनिक भारत के ज्ञानवान और विचारवान युगपुरुषों व युगमहिलाओं ने, चाहे वो समाजवादी हों, साम्यवादी हों, या फिर गांधीवादी, सब इस बात पर एक राय रखते हैं कि किसी भी देश की समूची तरक्क़ी की पहली जरूरत तालीम है. इसी बात के मद्देनज़र भारत के संविधान में दस साल के अंदर देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था.

मगर आज तक हमारे नीति निर्माता देश के सारे बच्चों को शिक्षित करने में सफल नहीं हुए. इसके लिए हमारे पास सिर्फ एक ही कारगर नीति है-‘समान स्कूल प्रणाली’. यानि संतरी, मंत्री, मजदूर, किसान, अमीर या गरीब, सबके बच्चे एक साथ और एक ही स्कूल में पढ़ें. जब सारे बच्चे एक साथ पढ़ेंगे तो शिक्षा में भेदभाव मिटेगा और स्कूलों में शिक्षा का मयार ऊंचा होगा.

साठ के दशक में (1964-66) गठित कोठारी आयोग ने भी ‘पड़ोसी स्कूल प्रणाली’ की सिफारिश की थी जिसमें सारे बच्चे, चाहे अमीर हो या गरीब, अपने पड़ोस के स्कूल में पढ़ेंगे. समय-समय पर ‘समान स्कूल प्रणाली’ को लेकर विभिन्न स्तर पर, विभिन्न सामाजिक हलकों से स्वर मुखर हुए हैं. यहां तक कि इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने भी 18 अगस्त 2015 के एक निर्देश में कहा था कि जब तक जनप्रतिनिधियों, उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी.

न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने जूनियर हाईस्कूलों में गणित व विज्ञान के सहायक अध्यापकों की चयन प्रक्रिया के संबंध में दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान सरकारी स्कूलों की दुर्दशा सामने आने पर यह आदेश दिया था.

खास बात यह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायलय का यह आदेश सरकार के 2009 में पारित शिक्षा का अधिकार विधेयक के छह साल बाद आया. कहने का आशय यह है कि शिक्षा अधिकार विधेयक 2009 आने के बाद भी 6 साल तक देश में शिक्षा की हालत खस्ता थी. 1666 में कोठारी आयोग ने भी करीब करीब ऐसी ही सिफारिशें की थी. आयोग ने पड़ोसी स्कूल की अवधारणा का जिक्र करते हुए कहा था -“पड़ोसी स्कूल की अवधारणा के मायने हैं कि उनके पड़ोस में रहने वाले सभी बच्चे उस स्कूल में पढ़ेंगे चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, समुदाय, मज़हब, आर्थिक हालात अथवा सामाजिक दर्जे के हों, ताकि स्कूलों में कोई भेदभाव न रहे. सामाजिक व राष्ट्रीय एकजुटता बनाने के अलावा इस प्रस्ताव के समर्थन में दो अतिरिक्त महत्वपूर्ण तर्क पेश किए जा सकते हैं. पहला, पड़ोसी स्कूल बच्चों को ‘उम्दा’ शिक्षा इसलिए देगा चूंकि हमारे मत में सभी (पृष्ठभूमियों के) लोगों के साथ जीवन के अनुभवों को बांटना अच्छी शिक्षा का आवश्यक तत्व है. दूसरा, ऐसे स्कूल स्थापित करने से संपन्न, सुविधाभोगी एवं ताकतवर वर्ग सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में दिलचस्पी लेने के लिए मजबूर होंगे जिसके चलते उसमें तेजी से सुधार लाना संभव हो जाएगा.”

(कोठारी आयोग रपट, 1964-66,खंड 10.19) 

खास सवाल तो यह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायलय के 2015 के आदेश और कोठारी आयोग की सिफारिशों पर अब तक ईमानदारी से कितना अमल हुआ है?

एक ओर देश में शिक्षा के निजीकरण से शिक्षा का बाजार बनता जा रहा है. दूसरी ओर सरकारी शिक्षा की हालत खस्ता होती जा रही है. शिक्षा मंहगी होती जा रही है और शिक्षा में भेदभाव भी बढ़ता जा रहा है. सरकारी स्कूलों की दशा अच्छी नहीं है. 2009 में जब भारत के तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने अपना सौ दिन का काम पेश किया तो शिक्षा का अधिकार विधेयक के अलावा शिक्षा में निजी पूंजी निवेश और विदेशी शिक्षण संस्थानों को अनुमति देने की बात भी कही थी. आज कांग्रेस के लोग मौजूदा मोदी सरकार पर देश को बेचने और निजीकरण का आरोप लगा रहे हैं मगर यह जानना होगा कि निजीकरण की शुरुआत 1990 के बाद ही हुई है जब केंद्र में कांग्रेसनीत सरकार थी.

दरअसल अमीर-गरीब के मेलजोल और सहशिक्षा की संभावनाएं खत्म होती जा रही हैं. वो स्कूल अब दादू की कहानियों का हिस्सा बन जाएंगे, जहां हर वर्ग के बच्चे एक ही टाट पर सरकारी स्कूलों में शिक्षा लेते थे.

सरकार कई योजनाएं तो बनाती है मगर आज तक किसी भी योजना का हश्र सुखद नहीं हो सका. ‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’, सर्व शिक्षा अभियान, माध्यमिक शिक्षा अभियान और अब समग्र शिक्षा. जम्मू-कश्मीर की बात करें तो ऑप्रेशन ब्लैक बोर्ड और सर्व शिक्षा अभियान योजना में तो महीनों शिक्षकों को वेतन ही नसीब नहीं हुआ था. दरअसल बहुत कुछ सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है. हाल के वर्षों में जानबूझ कर सरकारी स्कूलों की व्यवस्था को बिगाड़ा गया और बाजारीकरण-निजीकरण को बढ़ावा दिया गया. आज से 25-30 साल पहले सरकारी शिक्षा की हालत इतनी बुरी नहीं थी जितनी आज है. अगर वही सरकार नवोदय विद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों को सफलता से चला सकती है तो बाकी के सरकारी स्कूलों को क्यों नहीं चला सकती. कमी इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता की है, पैसा या संसाधनों-साधनों की नहीं. 

(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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