राजदीप सरदेसाई
अगर पिछले दशक के सबसे कामयाब पॉलिटिकल स्टार्ट-अप के लिए कोई पुरस्कार होता तो यह निश्चय ही आम आदमी पार्टी (आप) को दिया जाता। इतने कम समय में किसी और दल ने ऐसी नाटकीय छाप नहीं छोड़ी, जैसी अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप ने छोड़ी है। सवाल यही है कि क्या अब वह अपने दायरे को विस्तार देकर अखिल भारतीय पार्टी बन सकती है?
आगामी कुछ सप्ताह में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें से तीन में आप मैदान में है। पंजाब में तो वह सरकार बनाने की दावेदार है, गोवा में वह किंगमेकर की भूमिका निभा सकती है, वहीं उत्तराखंड में वह दूसरी पार्टियों का खेल बिगाड़ सकती है। मजे की बात है कि इन तीनों ही राज्यों के लिए आप ने भिन्न रणनीतियां अख्तियार की हैं।
पंजाब में वह कांग्रेस-अकाली गठजोड़ के विरुद्ध ग्रामीणों के आक्रोश को स्वर दे रही है, गोवा में वह खुद को एक आदर्शवादी, मध्यवर्ग की पार्टी की तरह पेश कर रही है, वहीं उत्तराखंड में वह अपने कमोबेश दिल्ली-वाले रूप में मौजूद है और प्रभावी स्थानीय प्रशासन के साथ शिक्षा-स्वास्थ्य मॉडल की पेशकश कर रही है। आप की यूएसपी है स्वयं को स्थापित पार्टियों के सामने एक विकल्प की तरह प्रस्तुत करते हुए उन मतदाताओं के वोट हासिल करना, जो बदलाव की राह तक रहे हैं।
लेकिन इसके बावजूद यह एक नई आम आदमी पार्टी है। अब वह पहले जैसी वालंटियरों की पलटन कम और एक परंपरागत राजनीतिक दल अधिक बनती जा रही है, जिसके निर्विवाद सुप्रीमो केजरीवाल हैं। पार्टी में अब व्यावहारिकता आ गई है, जो संसाधनों को जुटाने को नैतिकता से अधिक महत्व देने लगी है।
लेकिन सुप्रशासन में उसका रिकॉर्ड मिला-जुला रहा है और चुनाव से पहले किए गए लोकलुभावन वादों और चुनाव के बाद उनके क्रियान्वयन में एक फांक दिखलाई दी है। दिल्ली की लगातार खराब होती हवा को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है।आप को कभी एक सेकुलर ताकत के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब आलोचकों ने उसे बीजेपी की बी टीम और हिंदुत्व-लाइट पार्टी की भी संज्ञा दे डाली है।
जब केजरीवाल कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन करते हैं, चुनावों से पहले हनुमान चालीसा पढ़ते हैं और अयोध्या की तीर्थयात्रा करने वाले वरिष्ठ नागरिकों को नि:शुल्क सुविधा देते हैं तो उन पर भले बहुसंख्यकों के हितों को पोषित करने का आरोप लगाया जाए, लेकिन ऐन यही वह चीज है तो इस बात को रेखांकित करती है कि आप अब एक परंपरागत पार्टी में तब्दील होती जा रही है, जिसकी एक नजर चुनावी मुनाफे पर है तो दूसरी भविष्य की संभावनाओं पर। वैसे भी आज की राजनीति में हिंदू-विरोधी दिखलाई देना एक बाधा माना जाने लगा है।
आईआईटी से प्रशिक्षित केजरीवाल चतुर नेता हैं। वे अब वो केजरीवाल नहीं रहे, जिन्होंने 44 दिन के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और जल्दबाजी में वाराणसी में नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने जा पहुंचे थे। वे अब धरना देने को तत्पर स्ट्रीट-लीडर भी नहीं, जो रसूखदारों से भिड़ने में संकोच नहीं करते थे। अब वे समझ चुके हैं कि राजनीति में धैर्य बड़े काम का होता है।
अब वे भाजपा को अपना दुश्मन नम्बर वन नहीं मानते, बल्कि इसके बजाय कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाना बेहतर समझते हैं। वे मोदी-विरोधी नेताओं की भीड़ में खुद को शामिल नहीं करना चाहते और नपे-तुले कदम उठाकर भविष्य में भाजपा के प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरना चाहते हैं। लेकिन सच यही है कि 2019 के आम चुनावों में आप का वोट शेयर मात्र 0.4 प्रतिशत था। इन मायनों में आप अभी भी एक निर्माणाधीन पार्टी ही है। -साभार (ये लेखक के अपने विचार हैं)
Author: samachar
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