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2 February 2025 9:15 pm

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बसंत की बहार और विरहिणी का करुण संसार : मधुमास की मादकता में ये कैसा उल्लास!! 

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वल्लभ लखेश्री

बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही प्रकृति अपने सबसे सुंदर स्वरूप में आ जाती है। हरियाली की चादर ओढ़े वृक्ष, रंग-बिरंगे पुष्पों की सुगंध, कोयल की कूक और मंद-मंद बहती बयार मन को एक अद्भुत उल्लास से भर देती है। किंतु इस ऋतु का यह आनंद विरहिणी नायिका के लिए किसी व्यथा से कम नहीं होता। बसंत का रंगीन परिवेश उसके मन के सूनेपन को और अधिक उजागर कर देता है, उसकी विरह वेदना को और तीव्र कर देता है।

हिन्दी और संस्कृत साहित्य में बसंत और विरहिणी की पीड़ा का विस्तृत चित्रण किया गया है। कालिदास से लेकर विद्यापति, जयदेव, बिहारी, रसखान, और सूरदास तक अनेक कवियों ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई है। प्राचीन साहित्य में विरहिणी की व्यथा को बड़ी संवेदनशीलता और सौंदर्य के साथ व्यक्त किया गया है।

बसंत का सौंदर्य और विरहिणी की वेदना

बसंत का मौसम प्रेम और मिलन का प्रतीक माना जाता है। यह ऋतु प्रकृति में नवजीवन का संचार करती है, चारों ओर उल्लास और उमंग का वातावरण बना देती है। पेड़ों पर नई कोंपलें फूटती हैं, फूलों की कलियाँ खिलती हैं, और कोयल की मधुर तान प्रेम के रंग में डूबी होती है। किंतु यही वातावरण उस नारी के लिए असहनीय बन जाता है जिसका प्रियतम उससे दूर होता है।

विरहिणी नायिका के लिए बसंत का हर रंग उसके हृदय की पीड़ा को और गहरा कर देता है। कोयल की कूक उसे प्रिय के मधुर वचनों की याद दिलाती है, बगीचों में प्रेमी-प्रेमिकाओं की हंसी उसे अपने अकेलेपन का अहसास कराती है, और मधुमास की मदिर हवा उसके मन में उदासी और करुणा भर देती है।

संस्कृत और हिन्दी साहित्य में विरहिणी का चित्रण

संस्कृत साहित्य में कालिदास ने ‘मेघदूत’ और ‘ऋतुसंहार’ में विरह वेदना को बड़ी मार्मिकता से चित्रित किया है। ‘मेघदूत’ में यक्ष, जो अपनी प्रिया से बिछड़ा हुआ है, बादलों को संदेशवाहक बनाकर अपनी विरह वेदना व्यक्त करता है। बसंत ऋतु में उसका दुःख और अधिक गहराने लगता है, क्योंकि प्रकृति के उल्लासपूर्ण रूप के विपरीत उसका हृदय वेदना से भरा रहता है।

हिन्दी साहित्य में बिहारी के दोहे, रसखान की कविताएँ और विद्यापति की पदावलियाँ इस विषय को बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं। विद्यापति की रचनाओं में विरहिणी की पीड़ा अपने चरम पर दिखाई देती है—

“देखल तोहारे बिनु, सखि मधुबास

बनफूल फुलब, भमर गूँजारब, मन भेले उपवास।”

(अर्थात, सखी! मैंने तुम्हारे बिना यह मधुमास देखा, लेकिन यह फूल खिलने, भौरों के गाने से मेरा मन और अधिक व्याकुल हो गया।)

जयदेव की ‘गीतगोविंद’ में विरहिणी राधा की पीड़ा का बहुत ही कोमल और गहन चित्रण किया गया है। राधा जब कृष्ण से बिछड़ जाती हैं, तो बसंत का आनंद उनके लिए पीड़ा का स्रोत बन जाता है।

विरहिणी की दशा और हृदय की पीड़ा

विरहिणी के हृदय में प्रियतम से दूर रहने की पीड़ा गहरी होती है। उसका मन बार-बार प्रियतम की स्मृतियों में खो जाता है। उसके लिए समय जैसे ठहर जाता है, वह हर आहट में प्रिय की पदचाप सुनने लगती है। उसकी आंखें प्रतीक्षा में पथरा जाती हैं और बसंत के हर रंग में उसे अपनी उदासी का प्रतिबिंब नजर आता है।

विरहिणी की वेदना को ‘अष्टनायिका’ के अंतर्गत ‘प्रोषितपतिका’ (वह नायिका जिसका पति परदेस गया हो) और ‘विप्रलम्भश्रृंगार’ (विरहजनित प्रेम) के रूप में विस्तृत किया गया है। संयोग के अभाव में उसका मन व्याकुल हो उठता है, और बसंत ऋतु में यह व्यथा और तीव्र हो जाती है।

मन और प्रकृति का विरोधाभास

जब मन प्रसन्न होता है, तो बाहरी सौंदर्य हमें और अधिक आकर्षित करता है, किंतु जब मन उदास होता है, तो वही सौंदर्य हमें बोझिल और दुखदायी प्रतीत होता है। यही विरोधाभास विरहिणी के मन में बसंत ऋतु के समय देखने को मिलता है।

जहाँ प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए बसंत एक नई उमंग और आनंद की ऋतु है, वहीं विरहिणी के लिए यह असहनीय पीड़ा की ऋतु बन जाती है। यह ऋतु उसे यह एहसास दिलाती है कि जब संपूर्ण सृष्टि प्रेम में डूबी हुई है, तब वह अकेली क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर न पाकर उसका मन और अधिक व्यथित हो उठता है।

उपन्यासों और कहानियों में विरहिणी का चित्रण

केवल काव्य और गीतों में ही नहीं, बल्कि कथा-साहित्य में भी विरहिणी की व्यथा को प्रमुख स्थान दिया गया है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, और प्रेमचंद की कहानियों में भी नायिकाओं की विरह-व्यथा को विस्तार से चित्रित किया गया है।

शरतचंद्र के उपन्यासों में स्त्री-मन की गहराइयों को बड़े संवेदनशील ढंग से उकेरा गया है। उनकी नायिकाएँ प्रेम में जितनी समर्पित होती हैं, उतनी ही वे विरह में भी पीड़ा सहती हैं।

विरहिणी की पीड़ा का समाधान

विरहिणी के हृदय की पीड़ा का एकमात्र समाधान मिलन ही हो सकता है। किंतु जब तक यह मिलन संभव नहीं होता, तब तक उसे अपने दुःख को सहन करना पड़ता है। कई बार यह विरह मन में एक गहरी पीड़ा तो छोड़ता ही है, साथ ही आत्म-चिंतन और गहरी भावनाओं को जन्म भी देता है। यही कारण है कि विरह की पीड़ा साहित्य और कला के लिए एक प्रमुख प्रेरणा स्रोत बनी है।

बसंत ऋतु का आगमन जहाँ प्रकृति के लिए उल्लासमय होता है, वहीं विरहिणी के लिए यह ऋतु उसकी वेदना को और अधिक तीव्र कर देती है। साहित्य में इस पीड़ा को बड़ी गहराई और संवेदनशीलता से चित्रित किया गया है। कालिदास, जयदेव, बिहारी, विद्यापति, और शरतचंद्र जैसे महान साहित्यकारों ने विरहिणी की व्यथा को शब्दों के माध्यम से अमर बना दिया है।

बसंत ऋतु प्रेम का संदेश लेकर आती है, लेकिन विरहिणी के लिए यह ऋतु केवल उसकी तड़प और अधूरेपन की अनुभूति को और अधिक तीव्र कर देती है। यही विरह उसकी आत्मा को और अधिक संवेदनशील बनाता है, और उसे साहित्य, संगीत, और कला की ऊँचाइयों तक ले जाता है।

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