मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट
भारत में शीत ऋतु का प्रभाव हर साल बढ़ता जा रहा है, और यह बदलाव केवल प्राकृतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है, बल्कि मानवजनित गतिविधियों का परिणाम है। उत्तर और मध्य भारत का मैदानी भूभाग शीतलहर, अंधेरी धुंध और ठंड की कड़ी मार झेलता है। वहीं, पश्चिम और दक्षिण भारत भी अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित होते हैं। बीते कुछ दशकों में, ऋतुओं का असंतुलन और मौसमीय विकृतियां भारत के जनजीवन और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर खतरा बन चुकी हैं।
ऋतुचक्र में असंतुलन के कारण
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण औद्योगिकरण, नगरीकरण और वनों की कटाई है। जहां पहले घने जंगल, हरियाली और पर्याप्त वनस्पतियां प्राकृतिक संतुलन बनाए रखती थीं, वहीं अब इनके स्थान पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो चुके हैं। बीते पचास-साठ सालों में इस असंतुलन ने गंभीर रूप धारण कर लिया है।
वन कटाई और शहरीकरण: पेड़ और वनस्पतियां, जो वायुमंडल से अतिरिक्त नमी और वाष्प को सोखने का काम करती थीं, अब तेजी से गायब हो रही हैं।
औद्योगिक उत्सर्जन: फैक्ट्रियों से निकलने वाले रसायन और धुएं ने वायुमंडल को प्रदूषित कर दिया है।
जलवायु में अस्थिरता: हिमालयी क्षेत्र में हो रहे बदलावों का सीधा असर भारत के मैदानी इलाकों पर पड़ता है। हिमालय से उठने वाली वाष्प और वहां की जलवायु में अस्थिरता का प्रभाव व्यापक और दीर्घकालिक है।
हिमालय और मैदानी क्षेत्रों पर प्रभाव
भारत के हिमालयी क्षेत्र में हिमपात के बाद वाष्पीकरण की प्रक्रिया आरंभ होती है, जो मैदानी इलाकों को लंबे समय तक प्रभावित करती है। हिमालय, जो भारत समेत छह देशों की सीमा को स्पर्श करता है, जलवायु संतुलन का एक बड़ा स्रोत है। परंतु इसके जलवायु में अस्थिरता के कारण:
उत्तर और मध्य भारत में धुंध और कोहरा घनी परत बना लेता है।
सूरज की किरणें जमीन तक नहीं पहुंच पातीं, जिससे ठंड और अधिक घातक हो जाती है।
यह वाष्प, वातावरण में कई दिनों तक स्थिर रहकर जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है।
ठंड का प्रभाव और वर्तमान स्थिति
दिसंबर से फरवरी के बीच ठंड चरम पर होती है। इस दौरान:
स्वास्थ्य पर प्रभाव: शीतलहर और धुंध श्वसन समस्याओं, त्वचा रोग, और अवसाद जैसी समस्याओं को बढ़ाती हैं।
मनोविकार: लंबे समय तक सूरज की रोशनी न मिलने और ठंड के प्रभाव से मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है।
आर्थिक प्रभाव: कोहरा और शीतलहर यातायात और कृषि को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। फलस्वरूप, जनजीवन ठप हो जाता है।
हरियाली की कमी और इसका असर
जब नगरीकरण की गति धीमी थी और हरियाली पर्याप्त मात्रा में थी, तब:
हिमपात से उत्पन्न कोहरा जल्दी समाप्त हो जाता था।
ठंड सुहानी और स्वास्थ्यप्रद होती थी।
ग्रीष्म ऋतु में गर्मी का प्रभाव भी इतना असहनीय नहीं था।
अब स्थिति बदल चुकी है। वनों की कटाई और पेड़ों की कमी ने जलवायु संतुलन को नष्ट कर दिया है।
क्या नई वनस्पतियां पुरानी की भरपाई कर सकती हैं?
पिछले सौ वर्षों में जिन विशालकाय पेड़ों को काटा गया, उनकी भरपाई के लिए नए पेड़ लगाए जा रहे हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि:
1. क्या नए लगाए गए पेड़ उतनी जल्दी विशालकाय रूप धारण कर सकते हैं?
2. क्या ये पेड़ जलवायु को नियंत्रित करने में उतने ही प्रभावी हैं जितने पुराने वन थे?
समाधान की दिशा में कदम
वर्तमान परिदृश्य में, जलवायु परिवर्तन और ऋतुचक्र के असंतुलन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
वनों का संरक्षण: वनों की कटाई पर रोक लगाई जाए और हरियाली को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से वृक्षारोपण किया जाए।
प्रदूषण पर नियंत्रण: औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों से निकलने वाले धुएं को कम करने के लिए सख्त नियम लागू किए जाएं।
हरित ऊर्जा का उपयोग: पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की जगह सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और अन्य हरित ऊर्जा स्रोतों को प्राथमिकता दी जाए।
सामुदायिक भागीदारी: लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूक किया जाए और उन्हें हरियाली बढ़ाने में शामिल किया जाए।
जलवायु परिवर्तन और ऋतुचक्र का असंतुलन न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर समस्या है। यह सच है कि विकास और प्रगति जरूरी हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बिना पर्यावरण संतुलन बनाए, यह विकास विनाशकारी साबित हो सकता है। भारत को, और विशेष रूप से हमारे नीति-निर्माताओं को, इस दिशा में ठोस और प्रभावी कदम उठाने होंगे। हमें अपनी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करके पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देनी होगी। यह न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आवश्यक है।