राजेश गंगवार की रिपोर्ट
कोटा। सर्दी की गहराती शाम। समय शाम के 6 बजे का। कोटा से करीब 110 किलोमीटर दूर नादियाखेड़ी की कंजर बस्ती में अजीब सन्नाटा पसरा था। दिसंबर की रात का अंधेरा और वीरान रास्ते, जैसे मानो इस बस्ती ने उम्मीदों को कहीं गहरे दफन कर दिया हो। इन सूनी गलियों को पार करते हुए मेरी गाड़ी गोपीचंद के घर के सामने रुकी।
गोपीचंद अपनी पत्नी संगीता के साथ चूल्हे के पास बैठे हुए थे। उनके चेहरों पर थकी हुई जिंदगी की कहानी साफ पढ़ी जा सकती थी। मैंने पूछा, “पूरी बस्ती में अंधेरा क्यों है? बिजली कब तक आएगी?” उनका जवाब किसी यथार्थ से टकराने जैसा था—”यहां बिजली का कनेक्शन ही नहीं है।”
गोपीचंद के घर के चारों ओर कोटा पत्थर के 10-15 मकान थे, जिन पर प्लास्टर तक नहीं था। ये मकान जैसे इस बात के प्रतीक थे कि गरीबी और बदहाली की दीवारें कितनी मजबूत होती हैं। यहां कंजर समुदाय के लोग रहते हैं, जिनकी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं। न खेत, न मवेशी, न व्यवसाय—सिर्फ गरीबी का एक चक्र, जो टूटने का नाम नहीं लेता।
मैंने गोपीचंद से पूछा, “आप क्या करते हैं?”
“कोई स्थायी काम नहीं है,” उन्होंने उदासी से कहा। “कभी किसी के मवेशी चरा देता हूं या मजदूरी कर लेता हूं। कभी-कभी तो घर लौटने का भी ठिकाना नहीं रहता।”
गोपीचंद के घर में सिर्फ उनकी पत्नी और एक छोटी बच्ची थी। उनके बेटे की मौत हो चुकी थी। मैंने बड़े संकोच से पूछा, “आपकी बड़ी बेटी कहां है?” इस सवाल पर उनका चेहरा सख्त हो गया। पहले तो उन्होंने कहा कि उनकी एक ही बेटी है। मगर कुछ और सवालों के बाद सच्चाई का पर्दा उठ ही गया।
“हमने अपनी बड़ी बेटी बिंदिया को एक लाख रुपये के बदले सन्नी को दे दिया था,” गोपीचंद ने कांपते हुए स्वर में कहा। उनकी आवाज में मजबूरी और बेबसी का कड़वा घूंट घुला था। सन्नी नाम का आदमी खुद को एनजीओ वाला बताता था, जिसने भरोसा दिया कि बिंदिया को पढ़ाएगा-लिखाएगा और एक साल बाद पैसे लौटाने पर उसे वापस कर देगा।
संगीता ने अंदर से बिंदिया की एक पुरानी तस्वीर निकाली। तस्वीर में बिंदिया की बड़ी-बड़ी आंखों में अनगिनत सपने थे। सफेद लहंगा-चोली और हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियां पहने वह किसी मासूम दुनिया की प्रतिनिधि थी। संगीता की आंखों से आंसू बहने लगे, “मेरी बेटी समझदार थी। घर के कामों में मेरा हाथ बंटाती थी। अगर हमारे पास पैसे होते तो उसे वापस ले आते।”
बस्ती में पसरती असहायता
जैसे ही हमारी बातचीत की खबर फैली, लोग धीरे-धीरे गोपीचंद के घर के बाहर जमा होने लगे। किसी ने धीरे से चेतावनी दी, “आपको यहां से निकल जाना चाहिए। जिनके बारे में बात कर रहे हैं, वो बहुत खतरनाक लोग हैं।” डर का माहौल देखते हुए हम वहां से चल पड़े। जाते-जाते संगीता का हाथ मेरे हाथ में कांप उठा, “मैडम, आप मेरी बिंदिया को ला सकती हैं।”
इस दुख की गहराई समझने के लिए मैं पास के बीड़ीयाखेड़ी गांव की कंजर बस्ती में पहुंची। वहां के हालात नादियाखेड़ी से अलग नहीं थे।
रूपचंद नाम के एक व्यक्ति ने अपनी तीन बेटियां गरीबी और कर्ज की भेंट चढ़ा दी थीं। उनकी आवाज में टूटे सपनों की खनक थी। “रीना 15 साल की थी, पूजा 10 की, और चंदा महज 7 साल की। हमने उन्हें अच्छे भविष्य के वादे पर सौंप दिया था, लेकिन अब वो कहां हैं, हमें नहीं पता।” उनकी पत्नी सरिता ने आंसुओं के साथ कहा, “हमने सोचा था उनकी शादी करवाएंगे, लेकिन वो नरक में धकेल दी गईं।”
मजबूरी का फायदा उठाते दलाल
कंजर समुदाय पर अपराधी होने का पुराना कलंक है। गांवों में कोई चोरी या लूट हो, पुलिस सबसे पहले इन्हीं को पकड़ती है। गरीबी और बेबसी ने इन परिवारों को दलालों के जाल में फंसा दिया है। विजय नाम के सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया, “दलाल परिवारों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। वो कहते हैं कि लड़कियों की अच्छी परवरिश होगी और शादी करवा देंगे। लेकिन असल में वे लड़कियों को बेच देते हैं।”
कुछ परिवारों ने लड़कियों को वापस लाने की कोशिश की, मगर बिचौलिए हर बार उन्हें चुप करा देते हैं। कई बार कागजों पर लीज की डील होती है, और अगर लड़की भागकर लौट भी आए, तो माता-पिता को मजबूरी में उसे वापस भेजना पड़ता है।
सरकार और प्रशासन की नाकामी
बस्तियों के ये लोग न तो सरकारी योजनाओं का लाभ पा सके, न ही पुलिस से न्याय। जब राकेश की पत्नी सुधा ने रोते हुए कहा, “अगर मेरे पास पैसे होते तो अपनी बेटी को वापस ले आती,” तब उसकी आवाज में पूरे समुदाय का दर्द था। लेकिन राकेश की डर और चुप्पी भी समझ में आती थी—यहां सच बोलने की कीमत जान से चुकानी पड़ सकती है।
न्याय की उम्मीद
इस अंधकार में रोशनी की किरणें कहीं खो गई हैं। कंजर बस्तियों में बेटियां बिकती हैं, परिवार टूटते हैं, और सरकार खामोश है। ये कहानी सिर्फ बिंदिया, रीना, पूजा या चंदा की नहीं है; ये कहानी है उन हजारों बच्चियों की, जिनका बचपन और भविष्य दोनों गरीबी के पाटों में पिस रहे हैं।
संगीता, सरिता और सुधा के आंसू एक सवाल छोड़ जाते हैं—क्या कभी इन बेटियों की वापसी होगी? क्या कोई उनकी दुनिया को फिर से रोशन कर सकेगा?
इस सवाल का जवाब हमें ही ढूंढना है।