अनिल अनूप
भारत, जो सहिष्णुता और विविधता के लिए जाना जाता है, आजकल सांप्रदायिक टकराव और हिंसा के साए में है। खासकर धार्मिक शोभा-यात्राओं और प्रतिमा विसर्जन के दौरान हालात अचानक बिगड़ जाते हैं, और समाज में तनाव और नफरत का माहौल बन जाता है। इस प्रवृत्ति का सिलसिला लगातार जारी है, जहां कभी हिंदू धार्मिक यात्राओं के दौरान हिंसा होती है, तो कभी मस्जिदों पर पत्थरबाजी की घटनाएं सामने आती हैं। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि आखिर ये हिंसा और हत्याएं क्यों हो रही हैं?
यह सच है कि मुसलमानों के किसी मजहबी जुलूस या धार्मिक आयोजन पर हिंदू समुदाय से इस प्रकार का विरोध नहीं देखा जाता। अजान को लेकर भी हिंदुओं ने सांप्रदायिक आपत्ति नहीं जताई है। तो फिर, हिंदू शोभा-यात्राओं पर पत्थरबाजी और हिंसा की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं? यह सवाल बेहद गंभीर है और इसका जवाब समाज, प्रशासन और सरकार तीनों को मिलकर खोजना होगा।
हाल ही में उत्तर प्रदेश के बहराइच में सांप्रदायिक हिंसा के बाद कई शहरों को छावनी में बदलना पड़ा। इसके पहले कर्नाटक, झारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी इसी प्रकार के तनाव भरे हालात पैदा हुए। लेकिन क्या यह घटनाएं अचानक होती हैं या इनके पीछे कोई सोची-समझी साजिश है? अक्सर देखा गया है कि पत्थरबाजी और हिंसा के दौरान भीड़ अचानक उभर आती है। घरों और मस्जिदों की छतों से पत्थरबाजी शुरू हो जाती है। सवाल यह है कि इतने पत्थर कहां से आते हैं? क्या यह पूर्व नियोजित षड्यंत्र होता है?
हालिया दंगों की घटनाएं कोई नई बात नहीं हैं। भारत का सांप्रदायिक इतिहास इन घटनाओं से भरा पड़ा है। चाहे वह 1984 के सिख विरोधी दंगे हों या 2002 का गुजरात दंगा, सभी घटनाओं ने यह दिखाया है कि दंगों की भीड़ को सजा मिलना दुर्लभ है। दंगों के पीछे की साजिशों का खुलासा कम ही हो पाता है, और यदि होता भी है तो दोषियों को सजा देने में ढिलाई बरती जाती है।
पिछले चार महीनों में देश का माहौल जिस तेजी से बदला है, वह चिंताजनक है। धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में ऐसी कौन सी टूटन आई है कि इनसान इनसानों को मारने पर आमादा हो रहे हैं? भारत, जो सहिष्णुता और सौहार्द के लिए जाना जाता था, वह अचानक इतना असहनशील क्यों हो गया है?
एक और चिंताजनक पहलू यह है कि प्रशासन अक्सर मुस्लिम बहुल इलाकों को ‘संवेदनशील’ घोषित करता है, जबकि गैर-मुस्लिम क्षेत्रों के संदर्भ में ऐसा नहीं होता। यह भेदभाव समाज में और ज्यादा तनाव पैदा करता है। क्या कोई कानून है जो कहता हो कि हिंदू शोभा-यात्रा मुस्लिम इलाकों से नहीं गुजर सकती? यदि ऐसी यात्रा मस्जिद के सामने से गुजरती है, तो इसे लेकर इतनी हिंसा क्यों होती है?
बहराइच में हिंसा के दौरान, एक युवक को गोली मार दी गई, जिसकी शादी महज दो महीने पहले ही हुई थी। इस तरह किसी को विधवा कर देना क्या मजहबी प्रावधान है? यह सवाल सिर्फ कानून और प्रशासन का ही नहीं है, बल्कि समाज का भी है। सांप्रदायिक हिंसा और हत्याओं का कोई मजहबी औचित्य नहीं हो सकता।
यह सही है कि कुछ मामलों में शोभा-यात्राओं के दौरान उग्रता और हुड़दंग होते हैं, जिससे दूसरे समुदायों को उत्तेजना होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह किसी हत्या या हिंसा का औचित्य बन जाए। प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह ऐसी यात्राओं को नियंत्रित करे और सुनिश्चित करे कि कोई भी भड़काऊ गतिविधि न हो।
दरअसल, दंगे और सांप्रदायिक हिंसा समाज के ताने-बाने को कमजोर करते हैं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और संविधान ने हमें धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है। यदि सरकार और प्रशासन समय रहते उचित कदम नहीं उठाते, तो इससे न केवल देश की छवि धूमिल होगी, बल्कि हमारी सामाजिक एकता भी खतरे में पड़ जाएगी।
इसलिए, यह वक्त है कि समाज, प्रशासन, और सरकार सभी मिलकर इस समस्या का स्थायी समाधान ढूंढें, ताकि सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं भविष्य में दोबारा न हों।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."