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December 4, 2024 11:41 am

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देश बार बार “महात्मा” को आज भी खोज रहा है…

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मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट

दिल्ली के नोएडा मैदान में जनलोकपाल बिल के खिलाफ चलाया गया आंदोलन सभी को याद होगा। अगस्त 2011 में अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के आंदोलन का इतना व्यापक असर हुआ कि साम्यवादी सिंह सरकार को झटका लगा। तब लोकसभा में लोकतंत्र पास हुआ। उस वक्त की दो बातें बेहद कड़वी हैं। सबसे पहले, राहुल गांधी ने अन्ना हज़ारे के खिलाफ़ आंदोलन की सराहना की, लेकिन भूख पर हमला करने के लिए “लोकतंत्र के लिए खतरनाक मामला” बताया था। दूसरी ओर, संसद में अन्ना हजारे को महात्मा गांधी की तरह की विचारधारा की बात कही गई थी। इसके लिए बा करारोपण के दो बड़े कलाकारों ने अपनी बात रखी थी और अन्ना हजारे को स्थिर वक्त का महात्मा बताया था।

इसी तरह 1977 में भी विद्रोह के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी थी और मोरारजी उद्योगपति प्रधानमंत्री बने थे। टैब ओपन में स्पष्ट रूप से नारायण को लेकर कहा गया था कि जापान को महात्मा गांधी की तरह का मित्र बनना चाहिए। यह सवाल इतना बड़ा हो गया कि दिल्ली में सरकार बनने के बाद पहली बार जब आकाश में प्रधानमंत्री मोरारजी ओझा से मुलाकात हुई तो उनके घर पर उनके कदम पड़े, तब मुलाकात के बाद सीढ़ियां उतरते हुए मोरारजी मिर्जा को समर्थकों ने घेर लिया। पूर्वोक्त ने पहला प्रश्न किया, कि नए राष्ट्र के निर्माण के बाद, क्या यह ध्यान में रखा गया कि नए राष्ट्रपिता की घोषणा हो सकती है, जैसे कि कुछ न्यूनतावादी भी चाहते हैं? मोरारजी देसाई ने बिना देर किए सीधे जवाब दिया, ”गांधी जी से कोई तुलना नहीं कर सकता।” महात्मा गांधी भारत के जनमानस में आज भी वैसे ही समाए हुए हैं, जैसे आजादी के आंदोलन के समय थे। जब-जब किसी आंदोलन या संघर्ष ने राजनीतिक सत्ता से टकराने की बात कही, तब-तब महात्मा गांधी के अक्स को भी देश में फिर से खड़ा होना पड़ा।”

यह सोच बोफोर्स घोटाले के खिलाफ सत्य को खत्म करने के लिए राजीव गांधी की सरकार से मंथन करने वाले उपाध्यक्ष सिंह ने कहा, तो आजादी के तुरंत बाद नेहरू की सत्यता को चुनौती देते हुए राममनोहर हिटलर के प्रतिनियुक्ति आय वाले प्रश्न में भी था। महात्मा गांधी के एक्स को भारत ने लालबहादुर शास्त्री को भी देखा था। 1965 का युद्ध याद है। तब शास्त्री जी ने एक वक्ता के भोजन प्रस्थान से लेकर “जय युवा जय किसान” का नारा लगाया, तो देश उनके साथ खड़ा हो गया। लोगों ने नीचे दिए गए शिलालेख के लिए दान दिया। देश की महिलाओं ने अपने चरण दान विवरण दिए। पूरे देश में एक ही गुट पर एकजुट हो गया था जैसे महात्मा गांधी के नारे पर नमक आंदोलन या विदेशी व्यापारियों का बहिष्कार या भारत छोड़ो के नारे पर एकजुट हो गया था।

ध्यान स्थिर बिंदु में जब राहुल गांधी “भारत जोड़ो यात्रा” करते हैं, तो लोकतंत्र नृत्य में दिखाई देते हैं। दिल्ली से दूर के क्षेत्र में भी जिस तरह भारत जोड़ो यात्रा के रंग दिखाई देते हैं, उनके एक्स में भी देश के राजनीतिक नेता महात्मा गांधी को देखना चाहते हैं। राहुल गांधी को बार-बार कहा जाता है कि उन्होंने राहुल को मार दिया है। यानी जो राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं, वह बिल्कुल अलग हैं। प्रश्न दो हैं. पहला, यह देश महात्मा गांधी का है। दूसरा, इस देश को जो भी पुनर्जीवित करेगा, वह महात्मा गांधी मिल ही जायेंगे। ऐसे में ये सवाल सबसे बड़ा है कि आख़िरकार महात्मा गांधी को बार-बार भारत क्यों खोजा गया? जब भी सत्य से तुलनीय होने का हो तब सत्य और अहिंसा दार्शनिक आंदोलन के अक्स में महात्मा गांधी के विचार और उनके संघर्ष को ही देखने का प्रयास भारत क्यों करता है? जबकि महात्मा गांधी तो राजनीतिक सत्ता से दूर हैं? यहां तक ​​कि 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, संसद की रोशनी में नहाई हुई थी, दिल्ली जगमग थी, तब भी वे दिल्ली से करीब एक हजार मील दूर कोलकाता की एक अंधेरी धरती पर शख़्सियत ओढे हुए बैठे थे। यह सवाल उनसे भी जुड़ा है कि आजादी के लिए क्या किया जा रहा है?

तो क्या महात्मा गांधी राजनीतिक नहीं, बल्कि समाज सुधारक थे? सत्य के प्रयोग में तो महात्मा गांधी देश के उन सवालों से ही मिलते हैं जो आज भी मौजूद हैं। राजनीती नेपोलियन के कंधे पर सवार होकर सत्ता हासिल की है। मसलन, जाति का सवाल आज देश की राजनीति को हांक रहा है। ‘सत्य के प्रयोग’ में महात्मा गांधी ने अपनी जाति के बारे में कहा था कि उन लोगों को उठाया जाए जो उन्हें विलायत जाने से रोक रहे थे। 18 साल की उम्र में विलायत जाने की खबर, 18 साल की उम्र में मल्लाह मचाता है। मोहद बनिया जाति से कोई विलायत नहीं हुई। समुद्र पार करने की मनही थी। धर्म परिभाषित होने से लेकर परिवर्तन तक के प्रश्न थे। लेकिन तब भी महात्मा गांधी लड़ाकू विमान थे। उन्हें जाति से बाहर रखा गया है। कोई मदद नहीं मिलती। जाति के दबाव में परिवार के सदस्य भी आर्थिक मदद नहीं करते। संघर्षों के बीच कैसे महात्मा गांधी विलायत गए, कानून की डिग्री हासिल की, लेकिन भारत आकर अपना पेशा ‘खेदुत’ यानी किसान बना रहे। यह आज भी पुणे के भंडारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च इंस्टीट्यूट की पुस्तक में दर्ज है।

क्या समाज सुधारक निरपेक्ष राजनीतिक सत्ता को चुनौती देते हैं? देश में जब-जब किसी भी नेता ने राजनीति में रहते हुए अपनी राजनीति के लिए समाज के घटक दलों का प्रयोग करना बेकार कर दिया, जनता ने उन्हें पसंद किया। या स्थिर वक्त में सरकार के बचाव के तौर पर-तारीकों के खिलाफ कोई खड़ा नहीं होता, तो वह तब तक सफल नहीं हो पाता जब तक जनता से उसका संतुलन न बैठ जाता। कह सकते हैं कि महात्मा गांधी के सार्थक उद्देश्य आम लोगों के लिए और आम लोगों की भागीदारी से सफल हुए।

स्थिर वक्ता में होटल को लें। गरीब गरीबों और रईसों से बराबर मूल्य मिलता है। राहुल गांधी ने कई सुपरमार्केट पर सवाल उठाए लेकिन यह आंदोलन की ताकत न ले सका। यहां गुजरात का आज्ञा-सत्याग्रह याद किया गया। मजदूर-किसानों की मांग इतनी साफ और सरल थी कि लड़ाई की कोई जरूरत नहीं थी। क़ानून यह था कि अगर फ़सल चार साल की हो या उससे कम हो, तो लगान माफ़ करना चाहिए। सरकारी अधिकारियों ने चार आने से कम का फल बताया, चार आने से ज्यादा बताया। सरकार ने पंचों की मांग नहीं मानी। आख़िरकार सफर का रास्ता निकल गया। गांधी ने आंदोलन की कमान ही लोगों के हाथ में ले ली, यह मांग कर दे दी कि अगर समर्थ लोगों ने लगान जमा कर दिया, तो अत्याधिक लोग चिंता में पड़कर कुछ बेचकर या कर्ज लगान जमा करा देंगे और दुख उठाएंगे। इसे ‘गरीबों की रक्षा करना सशक्त लोगों का कर्तव्य है’ कहकर लोगों को यह संदेश दिया गया और कार्यकर्ताओं की लड़ाई जीत ली गई।

वास्तविक वक्ता में राहुल गांधी की राजनीति पर भी नजर डालें तो वह कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति से बिल्कुल जुदा हैं। राहुल ने फिल्म का या सैद्धांतिक राजनीति का रास्ता पकड़ा है। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी रियल पॉलिटिक्स के मास्टर हैं। वाइज़ राहुल के समकक्ष हैं। यानी राहुल गांधी की राजनीति को चुनौती दे और कांग्रेस को चुनाव जिता दे, ये दोनों बिल्कुल अलग-अलग रास्ते हैं। दूसरी तरफ बीजेपी और नरेंद्र मोदी की राजनीति सत्ता हासिल करती है और वे कोई दोस्त नहीं हैं। वास्तविक महात्मा गांधी का अक्स स्थिर राजनीति में कैसे प्रभाव और साथ ही पैदा होता है, यह गोडसे, सावरकर या महात्मा गांधी का नाम जपने की प्रकृति से भी समझा जा सकता है। अन्ना आंदोलन के समय मैदान में महात्मा गांधी की बड़ी-सी तस्वीरें छपी थीं, लेकिन आम आदमी पार्टी सत्ता में थी, तो सरकारी समर्थकों में भगत सिंह और बाबा साहेब अंबेडकर की तस्वीरें सत्ता मठ में प्रकाशित हो गईं। ध्यान दें, राजनीति में गोडसे और सावरकर की एंट्री के लिए भी महात्मा गांधी की ही साधना की जा रही है।

असल, आजादी के बाद महात्मा गांधी के नाम की पुष्टि राजनीतिक सत्य की तिकड़मों में अक्सर देखी जाती है। लेकिन सच तो यह भी है कि देश में बार-बार धोखाधड़ी होती है। फिर भी बार-बार महात्मा गांधी को ही खोजा जाता है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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