-अनिल अनूप
इस कहानी की शुरुआत एक आतंकवादी के नजरिए से होती है, जो पाकिस्तान के नंगरहार में जैश-ए-मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप में कड़ी ट्रेनिंग लेकर भारतीय सीमा पार करते हुए कश्मीर पहुंचता है। उसने तमाम मुश्किलें झेली हैं—नदी पार करना, ट्रक में छिपना, सुरक्षा बलों से बचने की कोशिश करना, सिर्फ इस उम्मीद के साथ कि वह उन कश्मीरी लोगों की मदद कर सकेगा, जिन्हें उसके ट्रेनर्स ने “मजलूम” कहा था। लेकिन कश्मीर पहुंचने पर उसकी उम्मीदें टूट जाती हैं जब वह देखता है कि शोपियां के बाजार में लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखौटे लगाए घूम रहे हैं। यह वही जगह है, जहां 2016 में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद एक डर का माहौल था। अब वही लोग खुलेआम ऐसी गतिविधियों में शामिल हैं जो उसकी सोच से बिल्कुल विपरीत हैं।
कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद हालात बदल गए हैं और लोग विधानसभा चुनावों की तैयारी कर रहे हैं। पहली बार एक दशक बाद यह मौका आया है। इसके बावजूद कश्मीर की राजनीति में एक चीज जस की तस बनी हुई है—साजिश की कहानियों पर विश्वास करने की आदत। 1950 के दशक से लेकर आज तक जब भी कश्मीर के लोगों को कोई बात या घटना स्वीकार नहीं होती, वे इसे केंद्र की साजिश करार दे देते हैं। चाहे वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति हो या राजबाग के पॉश इलाके में किसी का अपने कुत्ते का जन्मदिन मनाना—हर बात में केंद्र की साजिश देखी जाती है। यहां तक कि 2014 की बाढ़ के लिए भी केंद्र को जिम्मेदार ठहराया गया। अब नई कॉन्सपिरेसी थ्योरी निर्दलीय उम्मीदवारों के बारे में है, जिनके चुनाव लड़ने को लेकर भी साजिश की अफवाहें उड़ रही हैं।
सच्चाई यह है कि केंद्र भी पूरी तरह निर्दोष नहीं है। लेकिन कश्मीरी समाज भी अपनी भूमिका को नजरअंदाज करता है। एक ओर वह दिल्ली से सुविधाएं मांगता है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान का झंडा लहराता है। वह एक मारे गए आतंकी का शोक मनाता है और शायद उसी ने सेना को उस आतंकी के ठिकाने की जानकारी दी हो। यह दोहरी मानसिकता कश्मीरी समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
इकबाल की एक मशहूर कविता के जरिए घाटी के लोगों की मानसिकता को समझाने की कोशिश की गई है। कश्मीर के लोग हजारों साल से किसी सच्चे नेता की तलाश में हैं, लेकिन जब भी कोई दीदावर सामने आता है, वे उसकी कद्र नहीं कर पाते। चुनावी रैलियों में इकबाल की ये पंक्तियां बार-बार दोहराई जाती हैं, मानो नरगिस खुद को अंधा रहने देना चाहती हो, क्योंकि उसे कश्मीर में कोई सच्चा नेता नहीं चाहिए।
कश्मीरी समाज के इस दोहरे चरित्र को देखकर बाहर के लोग अक्सर हंसते हैं। एक पुलिस अधिकारी का किस्सा है, जिसमें एक व्यक्ति BJP का गमछा पहनकर सुरक्षा मांगने आता है। अधिकारी पूछता है कि वह इस तनावपूर्ण माहौल में BJP का गमछा पहनकर कैसे बाहर निकलेगा। उस व्यक्ति ने गमछा उतारकर जेब में रख लिया और चला गया। संभव है कि उसी व्यक्ति ने बुरहान वानी के लिए फातिहा भी पढ़ा हो। कश्मीर में इस तरह की मौकापरस्ती हर स्तर पर देखने को मिलती है, यहां तक कि राजनीतिक दलों में भी। एक नेता आर्टिकल 370 की बहाली का सपना बेचता है, जबकि दूसरे नेता नई दिल्ली के साथ जुड़ने की बात करते हैं। तीसरा नेता धर्म की भाषा में जनता को लुभाने की कोशिश करता है।
कश्मीर को इस समय एक ऐसे नेता की जरूरत है, जो समाज को उसकी वास्तविकता दिखा सके, लेकिन उससे पहले खुद को आईने में देख सके। कश्मीर का समाज इस समय नशे और घरेलू हिंसा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।
चुनावों से एक सरकार तो बन जाएगी, लेकिन जब तक समाज अपनी आंखों पर बंधी पट्टी नहीं हटाएगा, तब तक कश्मीरियों का भविष्य नहीं बदल पाएगा।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."