अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
जब हम जलियांवाला बाग का नाम सुनते हैं, तो हमारे दिमाग में अमृतसर के गोलीकांड की भयावह तस्वीरें ताजे हो जाती हैं, जिसमें ब्रिटिश सेना ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाकर एक भयंकर नरसंहार किया था।
लेकिन इसी तरह की एक अन्य खौफनाक घटना यूपी के जालौन जिले के बाबनी स्टेट में 25 सितंबर 1947 को घटी, जिसकी दर्दनाक यादें आज भी ताजगी के साथ जिंदा हैं।
15 अगस्त 1947 को जब पूरा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था, तब जालौन के बाबनी स्टेट में हालात कुछ और ही थे। बाबनी उस समय हैदराबाद के निजामों के अधीन था, और यहां पर तिरंगा फहराना एक गंभीर अपराध माना जाता था। इस पर निजाम का कड़ा कानून लागू था, और निजाम के आदेशों का उल्लंघन करने पर कठोर दंड की संभावना थी।
25 सितंबर 1947 को बाबनी के देशभक्तों ने हरचंदपुर में तिरंगा यात्रा निकालने की योजना बनाई, ताकि स्वतंत्रता की खुशी में भाग लिया जा सके।
निजाम को इस तिरंगा यात्रा की जानकारी मिली, और उसने कोतवाल को आदेश दिया कि किसी भी कीमत पर यह यात्रा नहीं निकाली जानी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप, पुलिस ने तिरंगा यात्रा को रोकने के लिए अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी।
यह घटना जलियांवाला बाग के गोलीकांड के समान थी, जहां पुलिस ने गांव के चौक में जुलूस को घेर लिया और गोलियां चलानी शुरू कर दीं, जिससे भागने का कोई रास्ता नहीं था।
इस गोलीबारी में 11 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद हो गए और 26 लोग घायल हो गए। शहीदों में लल्लू सिंह बागी, कालिया पाल सिजहरा, जगन्नाथ यादव उदनापुर, मुन्ना भुर्जी उदनापुर, ठकुरी सिंह हरचंदपुर, दीनदयाल पाल सिजहरा, बलवान सिंह हरचंदपुर, बाबूराम शिवहरे जखेला, बाबूराम हरचंदपुर और बिंदा जखेला शामिल थे।
इस गोलीकांड के बाद बाबनी की सियासत में हलचल मच गई। 24 अप्रैल 1948 को विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री लालाराम गौतम ने बाबनी के नवाब से चार्ज ले लिया और 25 जनवरी 1950 को बाबनी स्टेट का विलय भारत संघ में कर दिया।
हरचंदपुर में शहीदों की याद में एक स्मारक बनवाया गया, ताकि आने वाली पीढ़ियों को स्वतंत्रता के लिए शहीद होने की प्रेरणा मिलती रहे।
वरिष्ठ पत्रकार के.पी. सिंह बताते हैं कि इस सामूहिक नरसंहार को “दूसरा जलियांवाला बाग” कहा जाता है, क्योंकि इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को उसी तरह घेर लिया गया था जैसा जलियांवाला बाग में हुआ था। जालौन का कदौरा बाबनी स्टेट ही एकमात्र ऐसी स्टेट थी, जिसका विलय भारत संघ में हुआ।
नवाबों की सल्तनत का अंत होने के बाद, 1950 में कदौरा बाबनी स्टेट के विलय के साथ लोग स्वतंत्र भारत में चैन की सांस ले सके। हालांकि, शहीदों की स्मृति में बने स्मारक की देखभाल में प्रशासन की उपेक्षा के कारण वह इमारत अब खंडहर में बदल गई है।
स्थानीय ग्राम प्रधान और शहीदों के परिजनों ने इस स्थिति की शिकायत की है, और उन्होंने उन बहादुरों की याद को जीवित रखने की अपील की है जो स्वतंत्रता की खातिर अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं।
Author: samachar
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