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November 22, 2024 10:51 am

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भारत में ‘मूलनिवासी’ की परिभाषा और ईसाई कन्वर्जन का अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र

25 पाठकों ने अब तक पढा

मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट

भारत और भारतीयता का प्रतिनिधित्व करने वाला जनजातीय समाज अपनी विविध सांस्कृतिक धरोहर के साथ राष्ट्र की छवि को समृद्ध करता है। लेकिन, यह समाज अक्सर वनांचलों और ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है, जिससे उन्हें विभिन्न संकटों का सामना करना पड़ता है। इनमें सबसे गंभीर संकट ईसाई मिशनरियों द्वारा किया जाने वाला ‘कन्वर्जन’ है, जो ब्रिटिश काल से ही भारत में प्रचलित है। मिशनरी कन्वर्जन के लिए प्रलोभन, सेवा और सहायता जैसे उपायों का प्रयोग कर रहे हैं।

कन्वर्जन का षड्यंत्र और अंतरराष्ट्रीय दांवपेच

कन्वर्जन की यह प्रक्रिया एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा प्रतीत होती है। इस षड्यंत्र को बढ़ावा देने में गद्दार कम्युनिस्ट आतंकवादी, माओवाद, अर्बन और बौद्धिक नक्सली सक्रिय हैं। ये ताकतें जनजातीय समाज को हिन्दू समाज से अलग पहचान देने और अलगाववाद को बढ़ावा देने के प्रयास में लगी हैं। इसके लिए वे मानवाधिकार, संविधान और वैश्विक संधियों का उपयोग कर रहे हैं। 9 अगस्त को ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस डे’ को इसी उद्देश्य के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 

इंडिजिनियस पीपुल’ की परिभाषा

विश्व मजदूर संगठन (ILO) द्वारा ‘इंडिजिनियस पीपुल’ शब्द को ‘मूलनिवासी’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे जनजातीय समाज को पृथक दिखाने की कोशिश की जाती है। लेकिन भारत में, ‘मूलनिवासी’ और ‘इंडिजिनियस पीपुल’ की परिभाषा और पहचान अत्यंत कठिन है। भारतीय इतिहास और संस्कृति की विविधता इसे और जटिल बना देती है। भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति जो देश को माता मानता है, भारत का ‘मूलनिवासी’ है। 

भारत का आधिकारिक दृष्टिकोण

2007 में यूएन द्वारा ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस डे’ के संदर्भ में जारी घोषणा पत्र पर भारत ने अपनी सहमति दी, लेकिन भारतीय संविधान के अनुसार। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाई.के.सबरवाल ने भी 2006 में स्पष्ट किया था कि भारत में सभी लोग ‘मूलनिवासी’ हैं, और एसटी समाज को विशेष उपबन्ध दिए गए हैं, लेकिन ‘मूलनिवासी’ या ‘इंडिजिनियस पीपुल’ के पृथक्करण की भारत कोई सहमति नहीं रखता।

जनजातीय समाज और हिन्दू धर्म का संबंध

जनजातीय समाज और हिन्दू धर्म के बीच कोई भी अंतर नहीं है। भारतीय इतिहास में जनजातीय समाज ने हमेशा सनातन संस्कृति की रक्षा की है। महाराणा प्रताप के समय भी भील समाज ने उनकी मदद की और हल्दीघाटी के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। टंट्या भील, भगवान बिरसा मुंडा, और अन्य जनजातीय महापुरुषों ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष किया और कन्वर्जन का विरोध किया। 

भगवान बिरसा मुंडा ने जनजातीय समाज को हिन्दू धर्म की वैष्णव शाखा में वापस लाने के लिए ‘उलगुलान’ का बिगुल फूंकने का कार्य किया। यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग होता, तो वे कभी धार्मिक सुधार आंदोलन नहीं चलाते। उनके अनुयायी ब्रह्मा, विष्णु, दुर्गा और अन्य हिन्दू देवताओं की पूजा करते थे, जो यह साबित करता है कि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है।

इस षड्यंत्र में वैश्विक यूरोपीय शक्तियाँ पर्दे के पीछे से काम कर रही हैं। इसी कड़ी में 9 अगस्त को’ वर्ल्ड इण्डिजिनियस डे’ को एक हथियार के रूप में भारत विभाजनकारी शक्तियां प्रयोग करती हैं। इस सन्दर्भ में  विश्व मजदूर संगठन (आईएलओ) के ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ शब्द को   ‘मूलनिवासी’ शब्द के रूप में प्रस्तुत कर जनजातीय समाज को पृथक बताने के कुकृत्य किए जाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि विभिन्न राष्ट्रों के सम्बन्ध में ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ का अर्थ और उसे परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है। यहां भारत के लिए मूलनिवासी और  ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ को परिभाषित करना और ही कठिन है। क्योंकि भारतीय इतिहास, आधुनिक इतिहास की तथाकथित थ्योरी भिन्न है। भारत की अपनी विविधतापूर्ण – एकात्म विरासत है जो स्थान-स्थान में भिन्न-भिन्न है। 

भारत के आधुनिक इतिहास में वर्णित आक्रांताओं के अलावा भारत भूमि में निवास करने वाला और राष्ट्र की पूजा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति यहाँ का ‘मूलनिवासी’ है। क्योंकि भारतीय चेतना में जो भारत को माता कहकर मानता और पूजता है ।  प्रकृति का उपासक है वही भारत का मूलनिवासी है‌। अब ऐसे में मूलनिवासी या अन्य किसी भी शाब्दिक भ्रमजाल के द्वारा भारत को परिभाषित या पृथक्करण करना तो राष्ट्र की संस्कृति में ही नहीं है।

किन्तु विश्व मजदूर संगठन के गठन के उपरांत इसी ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ शब्द के भ्रमजाल में 13 सितम्बर 2007 को यूएन द्वारा विश्व भर के ‘ट्राईबल’ कम्युनिटी  के अधिकारों के लिए घोषणा पत्र जारी किया गया। प्रतिवर्ष 9 अगस्त को ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस डे’ के रुप में मनाया जाने लगा जिसकी घोषणा दिसंबर 1994 में की गई थी। भारत ने भी राष्ट्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार सम्प्रभुता, अस्मिता और अखण्डता के आधार पर इस पर अपनी सहमति दी । इसके साथ भारत ने स्पष्ट किया था कि इसका पालन भारतीय संविधान के अनुरूप ही किया जावेगा।

इसी सन्दर्भ में  सन् 2006 में इण्टरनेशनल लॉ एसोशिएशन (टोरंटो जापान में आयोजित ट्राईबल अधिकारों के अधिवेशन में भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाई.के.सबरवाल ने जनजातीय एवं गैर जनजातीय समाज में समानता के विभिन्न बिन्दुओं को स्पष्ट करते हुए अपना आधिकारिक पक्ष रखा था ।  उन्होंने कहा था कि  — “भारत के आधिकारिक मत के अनुसार भारत में रहने वाले सभी लोग ‘मूलनिवासी’ अथवा देशज हैं।  इन सभी में से कुछ समुदायों को ‘अनूसूचित’ किया गया है जिन्हें सामाजिक,आर्थिक ,न्यायिक व राजनैतिक समानता के नाते विशेष उपबन्ध दिए गए हैं।”

इसके साथ ही जब विश्व कानून संगठन द्वारा स्पष्टता को लेकर मांग की गई। प्रश्न पूछा गया कि –  क्या एसटी समाज अथवा जनजातीय समाज ही केवल भारत का ‘ट्राइबल’/मूलनिवासी/देशज समाज है? इस पर न्यायमूर्ति सबरवाल ने साफ इंकार किया । और उन्होंने अपने विभिन्न प्रश्नात्मक तथ्य रखे।  साथ ही  विश्व कानून संगठन के समक्ष भारत के सम्बन्ध में पक्ष रखते हुए कहा कि – ‘मूलनिवासी’ या ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ को परिभाषित या पृथक से विवेचन का भारत कोई इत्तेफाक नहीं रखता।

तत्पश्चात भारत के जनजातीय समाज के हितों के संरक्षण लिए यूएन द्वारा जारी घोषणा पत्र में भारतीय संविधान के अनुसार ही सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति अजय मल्होत्रा ने 13 सितम्बर 2007 को मतदान किया था।

ये रही तथ्यों की बात। किन्तु इन सभी बातों के इतर आज जिस जनजातीय समाज को सनातन हिन्दू धर्म से अलग बतलाने के प्रयास एवं षड्यंत्र हो रहे हैं । क्या वह जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से कभी अलग रहा है ? इस ओर विशेष ध्यानाकर्षण की आवश्यकता है। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि  भारत के इतिहास में जनजातीय समाज का योगदान कभी भी किसी से कम नहीं रहा है। जनजातीय समाज में समय-समय पर ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपनी सनातन संस्कृति पर हो रहे कुठाराघातों /कन्वर्जन के विरुद्ध संगठित होकर पुरजोर विरोध किया। मिशनरियों और लुटेरों के आतंक के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और भारत के ‘स्वत्व’ की रक्षा करते हुए  अपने शौर्य से परिचित करवाया है।

महाराणा प्रताप के वन निर्वासन के दौरान उनकी सेना में सभी प्रकार का सहयोग करने वाले भील सरदार पूंजा रहे‌ ‌। इन्हें बाद में महाराणा प्रताप ने ‘राणा’ की उपाधि दी। उनके नेतृत्व में हल्दीघाटी के युध्द में मुगलों को परास्त करने में  भील समाज के योद्धाओं की बड़ी भूमिका रही है। उनके उसी पराक्रम की निशानी आज भी ‘मेवाड़ और मेयो कॉलेज’ के चिन्ह में अंकित है।

इसी तरह टंट्या मामा के रूप में ख्यातिलब्ध  टंट्या भील जिन्हें जनजातीय समाज देवतुल्य पूजता है। उन्होंने मराठों के साथ और स्वतन्त्र तौर पर अंग्रेजों के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई लड़ी। फिर अंग्रेजी शासन ने उन्हें छल से पकड़कर फांसी दे दी। वहीं जनजातीय समाज के गुलाब महाराज संत के रुप में विख्यात हुए  जिन्होंने  जनजातीय समाज को धर्मनिष्ठा के लिए आह्वान दिया। 

जनजातीय समाज की शौर्य गाथा में कालीबाई और रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाओं का अपना गौरवपूर्ण अतीत रहा। इनके पराक्रम और बलिदान  ने नारी शक्ति के महानतम् त्याग और शौर्य की गूंज से सम्पूर्ण राष्ट्र में चेतना का सूत्रपात किया। स्वर्णिम अध्याय रचा।

उसी बलिदानी परंपरा में सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा भीमा नायक ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने राष्ट्रयज्ञ के लिए अपना जीवन समर्पित कर यह सिखलाया कि राष्ट्र की स्वतंत्रता ही जीवन का ध्येय होना चाहिए। इसी क्रम में जनजातीय समाज के गोविन्दगुरू और ठक्कर बापा के समाज सुधार के कार्यों , उनकी सनातन निष्ठा से भला कौन परिचित नहीं होगा?

यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग होता तो क्या भगवान बिरसा मुंडा धार्मिक सुधार आंदोलन चलाते? क्या वे धार्मिक पवित्रता,तप,  जनेऊ धारण करने ,शाकाहारी बनने ,मद्य (शराब) त्याग के नियमों को जनजातीय समाज में लागू करवाते?

भगवान बिरसा मुंडा ने जो धार्मिक चेतना जागृत की थी।  उसमें उनके अनुयायी -ब्रम्हा, विष्णु, रुद्र, मातृदेवी, दुर्गा, काली ,सीता के स्वामी, गोविंद, तुलसीदास और सगुण तथा निर्गुण उपासना पध्दति को मानते थे। यही तो सनातन हिन्दू संस्कृति का मूल स्वरूप है जिसे समूचा हिन्दू समाज बड़ी श्रध्दा एवं आदरभाव के साथ पूजता है। ऐसे में सवाल यही है कि – यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग नहीं है. तो क्या भगवान बिरसा मुंडा द्वारा चलाई गई परिपाटी झूठ है?  

सन् 1929 में गोंड जनजाति के लोगों के मध्य ‘भाऊसिंह राजनेगी’ के सुधार आन्दोलनों भी अपने आप में मील के पत्थर हैं। उन्होंने यह स्थापित किया था कि उनके पूज्य ‘बाड़ा देव’ और कोई नहीं बल्कि शिव के समरुप ही हैं।

भाऊसिंह राजनेगी ने कट्टर हिन्दू धार्मिक पवित्रता का प्रचार करते हुए माँस-मदिरा त्याग करने का अह्वान किया था।इसी प्रकार 19 वीं और 20वीं शताब्दी में छोटा नागपुर के आराओं में ‘भगतों’ का सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए उदय हुआ ‌। इसके लिए जात्रा और बलराम भगत का योगदान इतिहास के चिरस्मरणीय पन्नों में दर्ज है। उन्होंने जनजातीय समाज के बीच गौरक्षा, धर्मान्तरण का विरोध, मांस-मदिरा त्याग करने का सन्देश दिया। समाज को जागृत और सशक्त किया था।

वहीं सन् 1980 में बोरोबेरा के बंगम मांझी ने भी जनजातीय समाज के लिए मांस-मद्य त्याग करने और खादी पहनने का सन्देश दिया था। उनके इस पुनीत कार्य के  गवाह सरदार वल्लभ भाई पटेल और देश के प्रथम  राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद बने। ये दोनों महापुरुष बंगम मांझी  के कार्यक्रम में पहुंचे थे‌। वहां सभा की थी। वहां लगभग 210 की संख्या में संथालों का उपनयन संस्कार भी हुआ था। उपनयन संस्कार तो सनातन हिन्दू धर्म के सोलह संस्कारों में से ही एक है ,तो जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग कैसे हो सकता? इसी प्रकार अंग्रेजों ने मिदनापुर (बंगाल) के लोधाओं को ‘अपराधी जनजाति’ घोषित कर दिया था। यह वही लोधा थे जो वैष्णव उपासना पध्दति में विश्वास रखते थे जो कि राजेंद्रनाथदास ब्रम्ह के अनुयायी थे। इसी प्रकार असम की (सिन्तेंग,लुशई,ग्रेरो,कुकी) जनजातियों ने अंग्रेजों का विरोध किया था जो कि वैष्णव संत शंकर देव के अनुयायी थे।

जनजातीय समाज में ऐसे अनेकानेक महापुरुष ,समाज सुधारक , क्रांतिकारी हुए जिन्होंने सनातन हिन्दू संस्कृति,राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिया । फिर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से भारतीय मानस के ह्रदयतल में बस गए‌‌ ।ऐसे में कम्युनिस्टों /ईसाई मिशनरियों और बौध्दिक नक्सलियों के सारे प्रयोजन सिर्फ़ और सिर्फ़ जनजातीय गौरव-बोध समाप्त करने वाले सिद्ध होते हैं।  इसके लिए वे ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस डे’ के सहारे जनजातीय समाज को उनके पुरखों की संस्कृति से अलग करने का कुत्सित कृत्य करते हैं। ताकि वे  जनजातीय समाज की अस्मिता ,गौरवबोध को खत्म कर कन्वर्जन के सहारे भारत की अखण्डता को खंडित कर सकें। इन सभी तथ्यों,उदाहरणों और जनजातीय समाज की गौरवपूर्ण शौर्यगाथा से तो यह एकदम से स्पष्ट सिध्द होता है कि टुकड़े टुकड़े गैंग का उद्देश्य विभाजन, हिंसा और उत्पात है। किन्तु इन्हें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि  जनजातीय समाज जिस क्षण इन षड्यंत्रकारियों की सच्चाई से अवगत होगा। उस क्षण फिर कोई बिरसा मुंडा ,कालीबाई, दुर्गावती,राणा पूंजा,टंट्या भील,भाऊसिंह राजनेगी आदि आएँगे और षड्यंत्रकारियों का संहार करेंगे!

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि जनजातीय समाज का हिन्दू धर्म से कोई अलगाव नहीं है। इन समाजों के सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक योगदान से यह सिद्ध होता है कि वे भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और किसी भी बाहरी षड्यंत्र से बचाने की आवश्यकता है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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