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November 22, 2024 3:13 am

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इतनी चुनौतियों से क्यूँ जूझती रहती है आज तक स्त्रियाँ… क्या स्त्री का अपना कोई वजूद नही? जानते हैं इसका जवाब…

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मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट

हाल के दिनों में एक बहू, स्मृति सिंह, सुर्खियों में रही हैं, जिनके सास-ससुर ने उन पर गंभीर आरोप लगाए हैं। स्मृति सिंह, सेना के कैप्टन अंशुमान सिंह की पत्नी हैं। अंशुमान सिंह को हाल ही में मरणोपरांत कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया, जो राष्ट्रपति ने उनकी पत्नी स्मृति सिंह और माँ मंजू सिंह को प्रदान किया।

इस सम्मान के बाद से मीडिया में कई प्रकार की बातें उनके सास-ससुर के हवाले से सामने आई हैं। उनके सास-ससुर का कहना है कि:

– बहू सब कुछ लेकर चली गई।

– हमारे पास बेटे की तस्वीर के अलावा कुछ नहीं बचा।

– हम तो बहू को बेटी की तरह रखते।

– वह शादी करना चाहती तो हम नहीं रोकते।

– हम तो अपने छोटे बेटे से उसकी शादी करा देते।

– सेना की नीति में परिवार की परिभाषा में बदलाव होना चाहिए।

– उसे प्यार नहीं था।

– वह देश छोड़कर चली जाएँगी।

इन बयानों को पढ़कर और सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी बहू के बारे में नहीं बल्कि किसी मुजरिम के बारे में बात कर रहे हैं। यदि वे इन बातों के जरिए किसी वास्तविक मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं तो यह तरीका सही नहीं है, जो उन्होंने अपनाया है।

मीडिया का नज़रिया भी इसमें ध्यान देने योग्य है। वह आमतौर पर ऐसे मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है और जब यह मामला एक स्त्री से जुड़ा हो तो इसे और अलग तरीके से पेश किया जाता है। 

हालाँकि, इस पूरे विवाद के केंद्र में जो व्यक्ति है, यानी स्मृति सिंह, उनकी बात अब तक सुनाई नहीं दी है। इन सभी मुद्दों पर सार्वजनिक तौर पर इतनी चर्चा हो रही है कि यह मामला अब निजी दायरे से बाहर निकल चुका है। इसलिए इससे निकलने वाले मुद्दों पर चर्चा करना गलत नहीं होगा।

यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा बन चुका है, और इसे संवेदनशीलता और समझदारी के साथ संभालने की जरूरत है। इसमें विभिन्न पक्षों की बात सुनकर ही कोई उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

स्त्री के जीवन के फैसले कौन लेगा? क्या एक स्त्री का अपने बारे में निर्णय लेना अपराध है? क्या एक स्त्री का अपने मृत पति से जुड़ी चीज़ों पर अधिकार जताना गलत है? क्या उसका कोई अधिकार है भी या नहीं?

क्या स्त्री का जीवन केवल पति और उसके परिवार से जुड़ा है? स्त्री के अस्तित्व में पति की भूमिका कितनी है? क्या पति की मृत्यु के बाद भी वह उसी जुड़ाव के लिए बाध्य है? क्या किसी स्त्री के जीवन में पति का न होना, उसकी ज़िंदगी से हर तरह की रंगत का दूर हो जाना है?

अगर वह चाहे तो क्या अपना नया वैवाहिक जीवन शुरू नहीं कर सकती है? अगर उसे नया वैवाहिक जीवन शुरू करना है तो क्या वह विकल्प भी केवल वही घर है? सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं? या स्त्री का जीवन पति से ही शुरू होता है और पति पर ही खत्म होता है?

शादी के बाद पति का न रहना क्या स्त्री की ज़िंदगी का भी अंत माना जाएगा? क्या शादी के बाद उसकी स्वतंत्र पहचान भी खत्म हो जाती है? या उसकी अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी और शख्सियत ही खत्म समझ ली जाती है?

दुख का महत्व

दुख किसी के लिए भी दुख ही होता है। दुखों की तुलना बेमानी है। दुख को तराज़ू पर तौलना, दुखी लोगों के दुख को कमतर करना है। खबरों के मुताबिक, अंशुमान और स्मृति की आपसी पसंद की शादी थी। वे दोनों काफी समय से एक-दूसरे को जानते थे। अंशुमान का न रहना, स्मृति की ज़िंदगी में भी बड़ा खालीपन पैदा कर गया होगा। 

दुख का पहाड़ सिर्फ मां-बाप पर नहीं गिरा है। स्मृति पर भी दुख का पहाड़ टूटा है। उनका वैवाहिक जीवन तो अभी शुरू ही हुआ था और एक झटके में विराम लग गया। उसने अपना साथी खोया है। किसी स्त्री का अपने साथी को खोना क्या होता है, यह हमें समझना होगा। ऐसी हालत में उसके सामने लंबी ज़िंदगी पड़ी है। इसीलिए यह जरूरी है कि जब हम इन मुद्दों पर बात करें तो संवेदनशीलता का ख्याल रखें। मीडिया के जरिए व्यक्तिगत ज़िंदगियों की पड़ताल न करें।

स्त्री का जीवन और सात जन्मों का बंधन

अभी हाल ही में एक शादी की धूम रही है। उस शादी में कन्यादान की महिमा का बखान हुआ। कहा गया कि शादी सात जन्म का साथ है। सात जन्मों का यह विचार ही स्त्री को हमेशा से बाँधता आया है। पुरुष को इस विचार से कभी बंधा नहीं पाया गया। तभी तो हमारे समाज में सती जैसी प्रथा थी, जिसमें स्त्रियाँ मृत पति के साथ खुद का अंत कर लेती थीं। पुरुष मृत पत्नी के साथ खुद का अंत करता हो, ऐसे तथ्य नहीं मिलते।

आज भले ही सती प्रथा का अंत हो चुका हो, लेकिन हमारी ख्वाहिश स्त्री से कुछ ऐसे ही समर्पण की होती है। हम स्त्री से यह अपेक्षा करते हैं कि वह पूरी तरह से अपने पति से बंधी रहे। किसी भी सूरत में वह अपने अस्तित्व के बारे में न सोचे। पति की मृत्यु के बाद भी उसका समर्पण खत्म न हो। यह अपेक्षा पतियों से नहीं होती, यानी यह एकतरफा अपेक्षा है। यह स्त्री से सभी समुदायों में की जाती है, चाहे वह मजहब के नाम पर हो या रिवाज के नाम पर।

जिसका जीवन है, वह खुद तय करेगा

कोई भी स्त्री अपनी आगे की ज़िंदगी कैसे गुजारेगी, यह तय करना उसका हक है। पति के न रहने पर वह कैसे और कहाँ रहेगी, यह भी उसे ही तय करने देना चाहिए। उस पर किसी तरह का विचार थोपना, उसके उस हक को खत्म करना है। उसे मानसिक रूप से किसी खास दिशा में सोचने पर मजबूर नहीं करना चाहिए। उसे अपने बारे में फैसला लेने का पूरा मौका मिलना चाहिए।

यह विचार कि वे चाहें तो अपने छोटे देवर से ब्याह कर लें, स्त्री के लिए ब्याह ही जीवन जीने का एकमात्र विकल्प मानता है। यह माना जाता है कि उसे अगर एक पति मिल गया तो उसका जीवन धन्य हो गया। दूसरा, वह अपने को उसी घेरे में रखे, जिसमें वह थी। यानी वह पति के परिवार के साथ ही अपना भविष्य देखे। स्मृति या किसी भी स्त्री को इस दुविधा में क्यों डालना? क्या स्त्री की ‘सुरक्षा’ शादी ही है और वह भी उसी परिवार में?

ऐसे विचार उस नजरिए की देन हैं, जो स्त्री को स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं मानता। यही नहीं, स्त्री को बुरा साबित करने के लिए कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं। इन आरोपों में दम हो न हो, समाज की नजर में उसे बुरा बना ही देते हैं।

यहाँ यह सवाल पूछना बेमानी नहीं होगा कि कितने ससुराल वाले बेटे के न रहने पर अपनी बहू को सम्मान के साथ बराबरी का परिवारजन मानते हुए रखते हैं? ऐसी बहुओं की जिंदगी कितनी मुश्किल होती है, हम अपने समाज में देख सकते हैं।

अंततः, किसी भी स्त्री का अपने जीवन के बारे में फैसला लेने का हक है। उसे किसी भी प्रकार की सामाजिक और पारिवारिक बंधनों में बाँधना, उसके अधिकारों का हनन है। स्त्री का जीवन, उसके निर्णय और उसकी पहचान का सम्मान करना हमारे समाज की जिम्मेदारी है।

असल में जब तक हम उस स्त्री, यानी स्मृति के तौर पर नहीं सोचेंगे जिसने अपने साथी को खोया है, तब तक हमें उस मानसिक अवस्था का अंदाज़ा नहीं लगेगा जिससे स्मृति गुज़री हैं या गुज़र रही हैं। हमें उनकी मानसिक स्थिति का सही से पता नहीं है। हमें उनकी बातें भी नहीं पता हैं। सारी बातें एक तरफ़ से आ रही हैं, और मीडिया के माध्यम से जो सामने आ रहा है, वह स्मृति को ‘अच्छी स्त्री’ या ‘संस्कारी बहू’ के रूप में नहीं दिखाता।

सारी कहानी इस बात पर केंद्रित है कि वह चली गई। लेकिन सवाल यह है, क्यों गई? क्या उसे नहीं जाना चाहिए? क्या उसे न चाहते हुए भी खुद को बांध लेना चाहिए?

स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व

मुद्दा घूम-फिरकर स्त्री के आज़ाद अस्तित्व पर आता है। क्या स्त्री का स्वतंत्र वजूद है या नहीं? स्त्री की अपनी ज़िंदगी है। स्मृति के पास तो लंबी ज़िंदगी है। उस ज़िंदगी का वह क्या करेंगी, कैसे गुज़ारेंगी, किसके साथ गुज़ारेंगी, यह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनका निजी मामला है।

यह किसी भी स्त्री का अपना फैसला होना चाहिए। अगर वह नहीं चाहती है तो उसमें दखल देने का किसी को भी हक़ नहीं है, चाहे वह कोई भी क्यों न हो।

अगर स्त्री की जगह पुरुष होता

थोड़ी देर के लिए सोचें कि अगर स्मृति की जगह कोई पुरुष होता, तो क्या उसके बारे में भी ऐसी ही चर्चा होती? क्या उसे भी ऐसी ही सलाह दी जाती? इस समाज का तराजू़ पुरुषों की तरफ़ झुका है। वह उन्हें जितनी आज़ादी देता है, स्त्रियों को उतना ही बाँधता है। जो हो रहा है, वह एक स्त्री को बांधने की कोशिश है।

समाज का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण

यह सब यह भी बताता है कि बतौर समाज हम स्त्री के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। यह प्रकरण दिखाता है कि हमारे समाज में स्त्री होना कितना चुनौती भरा है। समाज हमेशा और हर रूप में उसे अपने खास तरह के खाँचे में ढला देखना चाहता है। उस खाँचे से इतर स्त्री ने कुछ भी किया तो उसे नकार दिया जाता है, बुरी स्त्री बना दिया जाता है।

स्मृति का पक्ष

स्मृति ने अपना साथी खोया है, यह एक बड़ा आघात है। उनकी दिमागी हालत क्या है, यह हमें समझना चाहिए। क्या वे अब भी उस दुख से उबर पाई हैं? उनके जीवन में आगे क्या करना चाहिए, इसका फैसला केवल और केवल उनका है। अगर वे अपने भविष्य के लिए नए निर्णय लेना चाहती हैं, तो यह उनका अधिकार है। 

मीडिया और समाज की भूमिका

मीडिया का नज़रिया और समाज का रवैया इस स्थिति को और जटिल बना देते हैं। हमें इस मुद्दे पर संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ सोचने की आवश्यकता है। किसी की व्यक्तिगत ज़िंदगी को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनाने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि हमारा दृष्टिकोण कितना सही है।

स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व होना चाहिए और उसके निजी फैसले लेने का अधिकार होना चाहिए। स्मृति का जीवन उनके खुद के फैसलों से ही संवरना चाहिए, न कि समाज या परिवार की बाधाओं से।

हमें इस मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है कि स्त्री का जीवन पति से शुरू होता है और पति पर ही खत्म होता है। यह सोच हमें बताती है कि बतौर समाज हमें कितना बदलना है और स्त्री के अधिकारों को कितना महत्व देना है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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