-अनिल अनूप
जिनके चेहरे पर हल्की-सी उदासी और आंखों में काम मिलने की आशा दिखती है। दरअसल वे ‘मजदूर’ हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें, बांध, पुलिया और सड़कों, सभी को मजदूर अपने खून और पसीने से सींचता है। अगर कोई सही मायने में देश का निर्माणकर्ता है तो वह मजदूर है। इतनी अहम भूमिकानिभाने वाले मजदूरों के हालात पूरे विश्व में कहीं भी ठीक नहीं हैं और उनकी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं जिस पर विश्व श्रम संगठन सैकड़ों बार चिंता जाहिर कर चुका है। भारत में पैंतालीस करोड़ से ज्यादा मजदूर हैं और इनकी संख्या और समस्याएं निरंतर बढ़ रही हैं। 1960 के बाद देश में कृषि और मजदूर वर्ग की दशा और दिशा कुछ हद तक ठीक थी लेकिन 1991 में मजदूर को मालिक बनाने के नाम पर आर्थिक उदारीकरण की नीतियां अपनाई गर्इं और अब किसान अपनी ही जमीन में बन रही गगनचुंबी इमारतों में मजदूरी करने को मजबूर हैं।
प्रत्येक वर्ष आज के दिन (1 मई) ‘अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस’ यानी ‘वर्ल्ड लेबर डे’ सेलिब्रेट किया जाता है। इस दिन को सेलिब्रेट करने के पीछे का खास मकसद होता है दुनिया भर में मौजूद मजदूरों, श्रमिकों द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्यों, उनकी मेहनत, उनकी उपलब्धियों के प्रति सम्मान व्यक्त करना। आज के दिन मजदूरों, श्रमिकों के अधिकारों, हक के लिए आवाज उठाना और मजदूर संगठनों को मजबूत बनाना भी इस स्पेशल डे का उद्देश्य होता है। इतना ही नहीं, दुनिया भर में मौजूद श्रमिकों के साथ मौजूद समस्याओं, परेशानियों में सुधार लाना, लोगों को जागरूक करना भी इस दिन को सेलिब्रेट करने का मुख्य लक्ष्य होता है। इंटरनेशनल लेबर डे को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे श्रमिक दिवस, मई दिवस, मजदूर दिवस, लेबर डे। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि इंटरनेशनल लेबर डे के उपलक्ष में कई देशों में आधिकारिक छुट्टी भी होती है।
देश में हर साल दस करोड़ लोग काम की तलाश में अपना घर छोड़ देते हैं जिनमें से करीब साढ़े तीन करोड़ लोग शहरों में आते हैं। गांवों से आने वाले ये लोग पेट भरने के लिए मजदूरी ही करते होंगे और शहरों पर बढ़ते आबादी के दबाव के कारण उनके चारों ओर झुग्गी-झोपड़ियों का एक नया शहर बस जाता है जहां पीने के पानी, शौचालय जैसी सामान्य सुविधाएं भी नहीं होती हैं। श्रमिकों की समस्याओं को दूर करने के लिए योजनाएं तो खूब बनी हैं; शिक्षा, भोजन और काम का अधिकार सबको प्राप्त है लेकिन फिर भी क्यों आज ईंट भट्टे पर बच्चों सहित एक परिवार बंधुआ मजदूर है, क्यों बिहार का ‘छोटू’ होटलों और ढाबों में बर्तन धोता है? अगर एक भी सरकारी योजना को धरातल पर ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो बहुत-सी समस्याएं हल हो सकती हैं। शिक्षा में निजीकरण की नीतियों के कारण हम हर साल लाखों की संख्या में अकुशल मजदूर पैदा कर रहे हैं जिनमें इंजीनियरिंग छात्रों के हालात ज्यादा खराब हैं।
देश की शिक्षा और रोजगार नीतियों का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चपरासी के पद के लिए एमबीए कर चुका बेरोजगार छात्र भी आवेदन करने को मजबूर है। काम की तलाश के लिए मजदूरों की जितनी भीड़ चौराहों पर देखने को मिलती है उससे कई गुना ज्यादा भीड़ सरकारी नौकरी की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों के सामने दिखाई पड़ती है जो भविष्य के पढ़े-लिखे मजदूर हो सकते हैं।
ये समस्याएं आज अचानक उत्पन्न नहीं हुई हैं बल्कि हमारी सरकारों की घटिया नीतियों और उनके गलत निर्णयों के कारण पैदा हुई हैं जो आज विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। लेकिन आज भी हम इनसे निपटने के लिए कोई खास कदम नहीं उठा पा रहे हैं।
पहले हमें कहा गया कि हम मजदूर को मालिक बनाएंगे लेकिन अब कहा जा रहा है कि हम मालिक को ट्रेनिंग देकर मजदूर बनाएंगे और ये असमंजस की स्थितियां पैदा होती रहेंगी क्योंकि संसद की वातानुकूलित कैंटीन में दस रुपए में भरपेट भोजन करके हमारे नेता योजना बनाते हैं और कहते हैं कि देश में चौबीस रुपए कमाने वाला गरीब नहीं है। इससे ज्यादा गरीब या गरीबी का मजाक क्या हो सकता है!
भारत सहित दुनिया के सभी देशों में 01 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों की भलाई के लिए काम करने व मजदूरों में उनके अधिकारों के प्रति जागृति लाना होता है। मगर आज तक ऐसा हो नहीं पाया है। कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग पर पड़ी है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति करने का प्रमुख भार मजदूर वर्ग के कंधों पर ही होता है। मजदूर वर्ग की कड़ी मेहनत के बल पर ही राष्ट्र तरक्की करता है। मगर भारत का श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। देश में मजदूरों का शोषण भी जारी है। समय बीतने के साथ मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है।
बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों के उत्साह का कम कर दिया है। अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ कागजी रस्म बनकर रह गया है।
लोगों ने आराम किया, अपनी छुट्टी पूरी की। लेकिन, एक मई को भी मजदूरों ने मजदूरी की। प्रदेश एवं जिले में श्रमिकों के जीवन में मजदूर दिवस का क्या महत्व है, यह शेर पूरी कहानी बयां कर रहा है…किसी को क्या बताएं मजदूर हैं हम, बस इतना समझ लीजिए मजबूर हैं हम। एक मई 1886 को अमरीका के शिकागो में मजदूरों ने लगातार 12 घंटे कार्य के विरोध में महाआंदोलन किया था। इसके लिए उन्हें गोली भी खानी पड़ी। मजदूरों की शहादत के बाद अमरीका में श्रमिकों को 12 घंटे की मजदूरी से निजाद मिल गई। लेकिन, देश में आज भी श्रम के नाम पर मजदूरों का शोषण जारी है। हम हर साल मजदूर दिवस मनाते हैं लेकिन श्रमिकों का शोषण कम कैसे हो, इस पर कोई विचार नहीं हो रहा। प्रदेश और देश की सरकार ने श्रमिकों के उत्थान के लिए कई योजनाएं बनाई, लेकिन उनका लाभ दिन-रात मेहनत करने वाले श्रमिकों तक नहीं पहुंच पा रहा। शहर में असंगठित श्रमिक दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। 100 किलो का बोझ उठाते हैं। इतनी मशक्कत के बाद भी उनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा है।
यहां नहीं चलता श्रम कानून
श्रमिकों का शोषण रोकने के लिए कई कानून बनाए गए। लेकिन शहर के होटलों, दुकान एवं कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों का शोषण करने वाले मालिकों पर कोई भी कानून लागू नहीं होता। शहर में प्रतिबंध के बावजूद श्रमिकों से बंधुआ मजदूर की तरह आज भी १२ घंटे काम लिया जाता है। होटलों एवं दुकानों में दिनभर कार्य बदले श्रमिकों को हर दिन 100 से न्यूनतम मजदूरी दी जाती है। प्रतिबंध के बावजूद शहर के पल्लेदार 100 किलो का बोरा उठाने को मजबूर हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."