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November 23, 2024 1:07 am

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पश्चिमी यूपी की 8 सीटों पर जयंत, योगी और मायावती फैक्टर कैसे कर रहा काम; राहुल-प्रियंका नदारद क्यों

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आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट

पश्चिम उत्तर प्रदेश में इस बार का लोकसभा चुनाव एकदम शांत हवा की तरह आगे बढ़ रहा है। इस बार न तो यहां हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा है और न ही मंदिर-मस्जिद का या फिर पुलवामा का। यहां लोग अब महंगाई और बेरोजगारी को लेकर बात करना चाहते हैं। पश्चिम यूपी में जब जमीनी स्तर पर जानने की कोशिश की गई तो यहां एक से ज्यादा लोगों ने यही कहा कि यह एकदम शांत चुनाव है। बता दें, पश्चिमी यूपी की आठ लोकसभा सीटों पर 19 अप्रैल को मतदान होना है।अतीत में पश्चिमी यूपी अन्य राज्यों के लिए एक नई भूमिका का काम करता था। इस बार यहां चुनाव की गति, शोर, नारेबाजी कम है। सड़कों पर कुछ ही पोस्टर या बैनर आपको भले दिख जाएं। लेकिन इन पोस्टर-बैनर में पहले की तरह जय श्रीराम वाले बीजेपी कार्यकर्ताओं के पोस्टर नदारद हैं। पिछली दो बार की तरह यह कोई हिंदू-मुसलमान या भारत-पाकिस्तान का चुनाव भी नहीं है। यह बात उम्मीदवारों समेत हर कोई कह रहा है।

2013 के मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों के प्रभाव ने अगले वर्ष आम चुनावों पर एक लंबी छाया डाली थी, जिसकी वजह से हिंदू भाजपा के पक्ष में एकजुट हो गए थे। पांच साल बाद पुलवामा हमले ने एक राष्ट्रवादी उत्साह पैदा किया जिसने परिणाम को भाजपा के पक्ष में प्रभावित किया। इसकी तुलना में इस बार पश्चिम यूपी में ऐसी आवाजें सुनाई देती हैं जो कहती हैं, “बहुत हो गया हिंदू-मुस्लिम, रहना तो साथ में है।” फिर भी यह यूपी की एक विरोधाभासी वास्तविकता है कि पिछले कुछ सालों में कुछ वर्गों का हिंदुत्व खिंचाव उच्च जातियों की तुलना में अधिक रहा है। इसको गांव में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।

बिजनौर के सिखरेड़ा गांव में बसपा समर्थक अनुसूचित जाति (एससी) और पाल, सैनी और गुज्जर जैसे छोटे समुदाय काफी आगे हैं। उनमें से एक का कहना है, ”चाहे सत्ता में हो या नहीं, हम बसपा के साथ रहेंगे, लेकिन अगर पार्टी ने किसी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा है तो हम उसे वोट नहीं देंगे।’”

यह ऐसा चुनाव नहीं है जहां राम मंदिर इस क्षेत्र में एक केंद्रीय चुनावी मुद्दा है, जो कई लोगों को आश्चर्यचकित करता है। लोग अयोध्या में लंबे समय से प्रतीक्षित मंदिर के निर्माण पर खुशी व्यक्त करते हैं, लेकिन पुलवामा की तरह भाजपा की झोली में वोट शेयर में कोई बड़ा हिस्सा जुड़ने की संभावना नहीं है।

हालांकि कई और लोग इस बार आर्थिक कठिनाई के बारे में अपना असंतोष व्यक्त करते हैं। उनकी शिकायतें हैं कि बढ़ती कीमतें जीवन को कठिन बना रही हैं। साथ ही बेरोजगारी बढ़ रही है। किसानों में एमएसपी को लेकर नाराजगी है, लेकिन इन सबके बाद भी वो वोट बीजेपी को देंगे, क्योंकि मोदी हैं।

मायावती और जयंत फैक्टर का क्या असर?

पश्चिमी यूपी में जहां बसपा ने निर्णायक भूमिका निभाई है। ऐसे में इस क्षेत्र में मायावती की भूमिका दिलचस्प है। बसपा को भाजपा की “बी टीम” करार देते हुए लोगों ने पहले मजाक किया कि अमित शाह बसपा के उम्मीदवारों का फैसला करेंगे और “बहन जी” केवल सूची की घोषणा करेंगी।इसके बजाय, मायावती के उम्मीदवार भाजपा को नुकसान पहुंचाने और सपा को अधिक मदद करने की क्षमता रखते हैं। उदाहरण के लिए, हाई-प्रोफाइल मुजफ्फरनगर सीट पर जहां केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान का मुकाबला सपा के हरेंद्र मलिक से है, वहीं बसपा ने दारा सिंह प्रजापति को मैदान में उतारा है, जिनका समुदाय इस क्षेत्र में भाजपा के समर्थन आधार का हिस्सा है। यदि उन्होंने एक मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा किया होता, जैसा कि अपेक्षित था, तो उन्होंने अपने दलित समर्थकों को भाजपा के पक्ष में धकेल दिया होता और सपा के कुछ समर्थन आधार काट दिया होता।बालियान कहते हैं कि मायावती सपा की मदद कर रही हैं। उन्होंने हर जगह जो उम्मीदवार खड़े किए हैं, उनसे यह स्पष्ट है। अटकलें ऐसी भी हैं कि आखिर मायावती भाजपा को नाराज क्यों करना चाहेंगी।

इस बीच, जयंत फैक्टर ने भाजपा को क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जाटों को पार्टी के पीछे एकजुट करने में मदद की है। ‘चवन्नी’ न बनने की कसम खाने के बाद राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) प्रमुख के पाला बदलने से कुछ नाखुश जाट आवाजें भी उठ रही हैं। लेकिन खुश हों या न हों, उम्मीद है कि जाट जयंत के साथ रहेंगे। बिजनौर के बांकीपुर में जयंत की सभा में एक जाट किसान का अपने ट्रैक्टर के ऊपर चढ़ जाना काफी व्यावहारिक लगता है। वो कहते हैं कि काम पूरा करने के लिए आपको सरकार में रहना होगा और यह एक वास्तविकता है जिसे जाट समझते हैं।”

आदित्यनाथ का महत्व या फिर राजपूतों की नाराजगी?

इस चुनाव में उत्तर प्रदेश के सीएम आदित्यनाथ भी एक अहम फैक्टर हैं। बैठक में सभी लोग अपराध नियंत्रण का श्रेय सीएम को देते हैं। मीरापुर में एक चाय की दुकान पर युवा मुस्लिम पुरुषों के एक समूह में से एक कहता है, “यहां से खतौली तक जाने वाली सड़क को देखें। आप अंधेरा होने के बाद बिना लूटे या हमला किए इस पर चल नहीं सकते थे, अब आप आधी रात को भी सुरक्षित रूप से आगे बढ़ सकते हैं।”लेकिन इस बार आदित्यनाथ का महत्व राजपूतों के विद्रोह में भी निहित है, जिस समुदाय से वह आते हैं, जो पार्टी द्वारा पूर्व जनरल वीके सिंह जैसे अपने कुछ नेताओं को टिकट नहीं दिए जाने से नाखुश हैं। इस आंदोलन का नेतृत्व राजपूत शक्ति का प्रतीक मेरठ जिले के 24 गांवों का समूह “चौबीसी” कर रहा है।कुछ लोग अनुमान लगाते हैं कि राजपूत का गुस्सा आदित्यनाथ की सहमति के बिना उस तरह प्रकट नहीं हो सकता था, जैसा कि वह प्रकट हुआ है। राजपूतों को डर है कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री को दिल्ली भेजा जा सकता है और उनके साथ अन्य राज्यों के पूर्व मुख्यमंत्रियों जैसे कि शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया की तरह व्यवहार किया जा सकता है, जिन्हें दरकिनार कर दिया गया है।पिछली दो बार की तरह, उत्तर प्रदेश एक बार फिर यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा कि भाजपा कितना स्कोर बनाएगी। यह एक हिंदी भाषी राज्य है, जहां भाजपा के पास 2019 की अपनी संख्या (62) में 10 सीटों का सुधार करके 2014 के आंकड़े (71) के करीब ले जाने और अन्य जगहों पर हुए नुकसान की भरपाई करने की गुंजाइश है। हिंदी पट्टी का कोई दूसरा राज्य नहीं है जहां ये इतनी बड़ी छलांग लगा सके।

लेकिन इस बार जो असंतोष की आवाजें सुनाई दे रही हैं, उसे देखते हुए विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस, राज्य द्वारा दिए गए अवसर को समझने में विफल रही होगी। जैसा कि एनडीए नेता कहते हैं। वो कहते हैं कि मतदान में केवल पांच दिन बचे हैं और न तो राहुल गांधी और न ही प्रियंका गांधी पश्चिम यूपी में आए हैं और न ही एक भी रैली की है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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