आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश की बांदा लोकसभा सीट प्रदेश की ऐसी सीट है, जहां कांग्रेस से लेकर बसपा, सपा, बीजेपी और वामपंथी दल भी चुनावी परचम लहरा चुके हैं।
मध्यप्रदेश से सटा बांदा जिला चित्रकूट मंडल का हिस्सा है, इस शहर का नाम महर्षि वामदेव के नाम पर रखा गया था। यहां शजर के पत्थर पाए जाते हैं जिनका उपयोग गहने बनाने में किया जाता है। बांदा के चारों तरफ अनेक पर्यटक स्थल हैं। इस शहर से लगे चित्रकूट और कालिंजर को देखने के लिए सैकड़ों की संख्या में सैलानी आते हैं।
बांदा लोकसभा सीट पर आजादी के बाद से 2014 तक 15 बार लोकसभा चुनाव हो चुके हैं जिसमें कांग्रेस को 4 बार जीत मिली है। इसके अलावा बीजेपी (3 बार), सीपीआई (2 बार), बसपा (2 बार), सपा (2 बार), लोकदल (एक बार) और जनसंघ (एक बार) भी यहां से जीत हासिल करने में कामयाब रही है।
बांदा लोकसभा सीट पर पहली बार 1957 में लोकसभा चुनाव हुए और राजा दिनेश सिंह सांसद चुने गए थे।
2004 के लोकसभा चुनाव में सपा ने श्यामाचरण गुप्ता को मैदान में उतारा और चुनाव जीतकर वो संसद तक पहुंचे। इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा के आरके पटेल सांसद बने थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर पर सवार बीजेपी के टिकट पर भैरो प्रसाद मिश्रा यहां से सांसद चुने गए थे।
बांदा लोकसभा सीट पर 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल जनसंख्या 23,55,901 है। इसमें 85.08 फीसदी ग्रामीण और 14.92 फीसदी शहरी आबादी है। अनुसूचित जाति की आबादी इस सीट पर 24.2 फीसदी है। इसके अलावा ब्राह्मण और कुर्मी मतदाता निर्णयक भूमिका में हैं। दिलचस्प बात ये है कि करीब 21 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं।
बांदा संसदीय सीट के तहत पांच विधानसभा सीटें आती हैं जिसमें बाबेरु, नारैनी, बांदा, चित्रकूट और माणिकपुर विधानसभा सीटें शामिल हैं. नारैनी विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।
बुंदेलखंड की महत्वपूर्ण चित्रकूट बांदा लोकसभा सीट (48) पर इस बार भी विकास के मुद्दे पर जातीय समीकरण हावी है। कांग्रेस-सपा गठबंधन और भाजपा के प्रत्याशी रण में उतर चुके हैं। इतिहास के आईने में यदि इस संसदीय सीट का परिदृश्य देखा जाए तो यहां अधिकतर सवर्ण या पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों का दबदबा रहा है। सन 1952 के पहले चुनाव से लेकर अब तक इस संसदीय सीट का परिदृश्य देखा जाए तो इन जातियों के उम्मीदवारों ने लोकतंत्र के मंदिर में प्रतिनिधित्व किया है।
इस बार भी इंडी गठबंधन से पूर्व मंत्री शिव शंकर पटेल और भाजपा से सांसद आरके सिंह पटेल चुनाव मैदान में हैं। दोनों ही पिछड़ी जाति से है। यही वजह है कि इस समय चुनाव का माहौल जातिवाद के रंग से सराबोर है। इस बार भाजपा ने विभिन्न दलों के लोगों को शामिल कर जातिवाद का समीकरण ध्वस्त करने की रणनीति बनाई है।
इस संसदीय क्षेत्र में हमेशा जातीय समीकरण हावी रहा है। बसपा, सपा और भाजपा का अपना-अपना कैडर वोटर है। इनमें मुस्लिम, यादव कुशवाहा, साहू, पटेल मतदाता निर्णायक रहे हैं। इन्हीं मतदाताओं के मताधिकार से हार जीत का फैसला होता रहा है।
इस बार भाजपा ने रणनीति के तहत विपक्षी खेमे में सेंधमारी करते हुए उनके नेताओं को पार्टी में शामिल किया है। इन दलबदलुओ के आने से भाजपा नेताओं का दावा है कि जातिवाद का दम्भ भरने वाले प्रत्याशियों को मुंह की खानी पड़ेगी।
इन दलबदलुओ की भाजपा में आमद
भाजपा ने नगर पंचायत अध्यक्ष नरैनी व सपा नेता मूलचंद सोनकर व अतर्रा शहर नगर अध्यक्ष रहे संजय साहू के अलावा बसपा के पूर्व जिला सचिव हरिराम कबीर, व्यापार मंडल अतर्रा के उमाशंकर गुप्ता, बीडीसी रामसखा यादव, बसपा के सेक्टर महासचिव शाहिद खान, नरैनी के सभासद रईस अहमद, सपा नेता नरैनी अजय विश्वकर्मा, ओरन से कांग्रेस बसपा व सपा से जुड़े रहे सभासद भारत लाल चौरसिया सहित का कई विपक्षी दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल कर लिया है। यह वही नेता है जो अपने-अपने सजातीय मतों के सहारे प्रत्याशियों की हार जीत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इनके भाजपा में आ जाने से जातिवाद के भरोसे चुनाव मैदान में जीत हासिल करने वाले नेताओं के हसरत पूरी नहीं होगी।
सपा और बसपा के जातीय समीकरण के भरोसे ही दो-दो बार प्रत्याशियों को जीत मिली है, लेकिन पिछली बार मोदी लहर में जातीय समीकरण ध्वस्त हो गए थे और अब इस बार दल बदलू जाति समीकरण ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण निभा भूमिका निभा सकते हैं। इनमें कई ऐसे नेता हैं जो अपनी अपनी जातियों में खास पैठ रखते हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."