अनिल अनूप
हिन्दुस्तानी सिनेमा में गीत संगीत का वजूद अपनी स्थापना से ही चला आ रहा है। जिस दौर में, के.एल.सहगल, सुरैया, नूरजहाँ जैसी शख्शीयतों ने हिन्दी सिनेमा में गायकी के नये युग की शुरुवात की। उसी दौर में अर्थात चालीस के दशक में शमशाद बेगम ने पार्श्व गायन के क्षेत्र में अपनी आवाज का जादू इस तरह बिखेरा कि उस आवाज की खनक सिने जगत की पहचान बन गई। उनके गाये गीतों को सुनकर आज भी यही लगता है कि मानों कल की बात हो। जबकी उनके गीतों की उम्र सत्तर सालों से भी अधिक हो चुकी है।शमशाद बेगम की आवज ने कई गीतों को उजियारे से भर दिया। उनकी आवाज एक ऐसी भोर है जहाँ अँधियारे का नामों निशा भी नही है।
अगर आप पुराने हिन्दी गानों के शौक़ीन हैं, तो ‘ले के पहला प्यार प्यार’, ‘मेरे पिया गए रंगून’ और ‘कजरा मोहब्बत वाला’ जैसे गानों के बोल पढ़कर ही अब तक गुनगुनाने भी लगे होंगे। इन सभी गानों में जो मीठी आवाज़ है, वह भारत कोकिला लता मंगेशकर की नहीं, बल्कि हिन्दी सिनेमा के स्वर्ण-युग की मलिका ‘शमशाद बेगम’ की है!
हिन्दी फ़िल्मों की पहली पार्श्व-गायिकाओं में से एक, पद्म भूषण से सम्मानित शमशाद बेगम ने हिन्दी के अलावा बंगाली, मराठी, गुजराती, तमिल एवं पंजाबी भाषाओं में लगभग 6,000 से भी ज़्यादा गाने गाये थे।
शमशाद बेगम का जन्म 14 अप्रैल, 1919 को एक मुस्लिम परिवार में अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ था। उनके पिता एक मैकेनिक थे और माँ एक गृहिणी। शमशाद, नौ भाई-बहनों में से एक थीं।
शमशाद के घर में गाने का कोई माहौल नहीं था, न ही उन्होंने संगीत का कोई विशेष प्रशिक्षण लिया था, पर छोटी सी उम्र से ही वह शादियों, पार्टियों और धार्मिक समारोहों में गाने लगी थीं। उन दिनों #Viral हो जाने के तो कोई साधन नहीं थे, पर इन कार्यक्रमों में जो भी शमशाद को सुनता, वह उनकी गायकी का कायल हो जाता और अपने जानने-पहचानने वालों को भी उनके बारे में ज़रूर बताता। उनके गाने के कद्रदानों में उनके चाचा अमीरुद्दीन भी शामिल थे। उन्होंने ही शमशाद के हुनर को पहचाना और उनके पिता से उन्हें पेशेवर गायिका बनाने के लिए ऑडिशन पर ले जाने की सिफारिश की।
उनकी उम्र उस समय कुछ 12-13 साल की रही होगी। गुलाम हैदर उनकी प्रतिभा को और निखारने में उनकी मदद करने लगे। हैदर के मुताबिक़, शमशाद हर तरह के गाने गा लेती थीं, इसलिए उन्होंने शमशाद को ‘चौमुखिया’ नाम दिया।
इसके कुछ साल बाद, शमशाद ने वकील गनपत लाल भट्टो से शादी कर ली। एक हिन्दू से विवाह करने के लिए उन्हें काफ़ी विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा। पर इसी घटना ने यह साबित कर दिया कि शमशाद उस वक़्त से ही कितनी आज़ाद-ख्याल थीं।
फ़िल्मों में आने से पहले, शमशाद ने कई भक्ति और क्षेत्रीय गीत गाए थे। कहते हैं कि एक पेशेवर गायिका के रूप में उनका पहला गाना एक हिन्दू भक्ति गीत था, जिसके लिए रिकॉर्डिंग कंपनी ने उनका नाम बदल कर ‘उमा देवी’ रख दिया था। पर जब उन्होंने लगातार गाना शुरू किया, तो उन्होंने अपना नाम बदलने से इंकार कर दिया। धीरे-धीरे उन्हें रेडियो और संगीत निर्देशकों के ऑफर आने लगे।
उन दिनों नूरजहाँ और सुरैया जैसी गायिकाओं का ज़माना था, जो गाने के साथ-साथ अभिनय भी करती थीं। शमशाद को भी अभिनय के ऑफर आने लगे। पर अपने पिता की इच्छा का आदर करते हुए, शमशाद कभी परदे के सामने नहीं आईं, बल्कि उन्होंने परदे के पीछे रहकर अपने संगीत के हुनर को और निखारा।
चालीस के दशक के शुरू होते-होते, शमशाद की आवाज़ का जादू बॉलीवुड पर छाने लगा और वह मुंबई आकर बस गयीं। मुंबई उन्हें कुछ ऐसा भाया कि 1947 में देश के विभाजन के बाद भी उन्होंने इस मायानगरी को नहीं छोड़ा। इसके बाद, शमशाद ने हर बड़े संगीत निर्देशक के साथ काम किया, जिसमें नौशाद, ओपी नैयर, शंकर-जयकिशन, एसडी बर्मन और कई दिग्गज संगीतकार शामिल थे।
बीबीसी को दिए अपने एक इंटरव्यू में संगीतकार नौशाद ने कहा था कि शमशाद बेगम की आवाज़ जितनी मधुर है, उतना ही मीठा उनका स्वभाव है।
उनके उदार स्वभाव का एक उदाहरण राजू भरतनान की किताब ‘आशा भोसले – अ म्यूजिकल बायोग्राफी’ में मिलता है। इस किताब के मुताबिक़ शमशाद बेगम, संगीतकार ओपी नैयर से तब मिली थीं, जब वह एक ऑफिस बॉय का काम करते थे। जब नैयर ने अपनी पहली फ़िल्म के लिए शमशाद से गाने की गुज़ारिश की, तो वह बिना किसी शर्त मान गयीं। यही नहीं, जब लता मंगेशकर के साथ एक विवाद के बाद कोई भी गायिका ओपी नैयर के साथ काम करने के लिए राज़ी नहीं थी, तब केवल शमशाद ही थी, जिन्होंने उनके लिए गाना गाया।
शमशाद ने अपनी आवाज़ से कई कालजयी फ़िल्मों को सजाया, जिनमें ‘मदर इंडिया’, ‘सीआईडी’, ‘अंदाज़’, ‘बैजू बावरा’, ‘लव इन शिमला’ और ‘मुग्ल-ए-आज़म’ भी शामिल हैं। कोई हैरत की बात नहीं है कि शमशाद उस दौर की सबसे महंगी गायिका थीं और नयी गायिकाओं से उनकी नकल करने को कहा जाता था। उनके शुरूआती गानों के रिकॉर्ड तो मौजूद नहीं है, पर कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में करीब 2000 गाने रिकॉर्ड किये थे।
इतनी मशहूर होने के बावजूद शमशाद हमेशा से पब्लिसिटी से कतराती थीं। उन्हें पार्टियों में जाना पसंद नहीं था, और न ही तस्वीर खिंचवाना। शायद यही कारण है कि इस महान गायिका की तस्वीरें ढूँढने पर भी नहीं मिलती। अपने पति के गुज़र जाने के बाद, उनका यह एकांत-पसंद स्वाभाव और भी पुख्ता हो गया और वह लोगों से दूर ही रहने लगीं।
होली आई रे कन्हाई” ” पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली” और ” छोड़ बाबुल का घर मोहे आज पी घर जाना पड़ा” जैसे गाने आज भी मन को भावुक कर देते हैं। ऐसे गीत जो समय से आगे निकल जाते हैं, वो विरले ही जन्म लेते हैं। मुकेश के साथ गाया गाना ” धरती को आकाश पुकारे” मोहम्द रफी के साथ “मेरे पिया गये रंगून वहाँ से किया टेलीफोन” और लता तथा आशा के साथ मुगले आजम की मशहूर कव्वाली “तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे” जैसे गीत फिल्मी इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखे गये हैं। उनके सभी गाने अपना एक विशेष मुकाम रखते हैं जिनको शब्दों में बाँधा नही जा सकता। उन्होने अनेक भाषाओं में गैर फिल्मी गीत भी गाये।
शमशाद की प्रसिद्धी का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, जब बाकी गायक और गायिकाओं को पचास या सौ रूपये एक गाने का पारिश्रमिक मिलता था तब शमशाद को एक गाने का एक हजार या ढेड़ हजार मिलता था। शमशाद जितना अच्छा गाती थीं वो उतनी अच्छी इंसान भी थीं। उनकी नेकदिली और मिलनसार व्यक्तित्व के सभी कायल थे। उनका कभी भी किसी से मन मुटाव नही हुआ। उन दिनों संघर्षरत लोग जो उनकी फीस नही दे सकते थे, शमशाद ने उनके लिये भी गाने गाये।
Shamshad Begum का एक किस्सा आप सबसे सांझा करना चाहेंगे, चालीस के दशक की बात है। गायक मुकेश तबियत खराब होने की वजह से अक्सर स्टूडियो से अनुपस्थित रहते थे। एक दिन शमशाद ने उनसे पूछा की मूकेश भाई क्या प्रॉबलम है? आप अक्सर गायब रहते हैं। दरअसल उन दिनों मुकेश के पेट में असहनीय दर्द उठता था, जो अनेक इलाज के बाद भी ठीक नही हो रहा था। शमशाद को जब उनकी इस परेशानी का पता चला तो उन्होने कहा कि अंगुठे में धागा बाँधिये आपका नाड़ा उखड़ गया है। ऐसा करने पर मुकेश को आराम मिला और उसके बाद शमशाद की ही सलाह पर उन्होने एक अँगुठी भी बनवा कर पहन ली थी. ऐसे ही शमशाद की नेक व्यवहारिकता के किस्से अनगिनत है।
सिने जगत में शमशाद बेगम की आवाज सबसे अलग और ठसके दार रही। उनकी आवाज में एक तरह की कशिश, तीखापन और गीतों को प्रकृति के हिसाब से गाने का गज़ब का हुनर था। उन्होने जीवन के सभी नौ रसों को अपने गाने मे ऐसा ढाला कि गीत जिवंत हो गये। गायकी में सांसों के उतार चढाव का अहम रोल होता है। शमशाद को अपनी सांसो पर अनोखी पकड़ थी। एक ही सांस में लम्बी तान हो या बिना सांस तोड़े गीत की कई पंक्तियों को गाने में उनको मुश्किल नही होती थी। गुलाम मोहम्द के संगीत निर्देशन में फिल्म “रेल का डिब्बा” का गीत ” ला दे मोहे बालमा आसमानी चूडिंया” एक ऐसा गाना था जिसकी चौदह पंक्तियाँ शमशाद ने एक ही सांस में गाई थी। इस गीत में उनके साथी गायक मोहम्द रफी थे। बिना किसी संगीत तालीम के शमशाद की गायकी और भावों की खूबसूरत अदायगी किसी करिश्मे से कम नही है। गायकी के प्रति लगन और मेहनत उनकी इबादत है। उनकी इसी इबादत का अंजाम है कि हम आज भी उनके गानों में हम सब खो जाते हैं।
23 अप्रैल 2013 की रोज़, एक लम्बी बिमारी के बाद 94 की उम्र में स्वर की मल्लिका, शमशाद बेगम ने आख़िरी सास ली। इससे पहले 2009 में उन्हें ओपी नैयर अवार्ड तथा पद्म भूषण से नवाज़ा गया था। पर जिस आवाज़ से उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को नवाज़ा था, वह किसी भी अवॉर्ड या पुरस्कार से कई बढ़कर था।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."