अनिल अनूप
साइकल की घंटी नई होने पर बहुत तेज आवाज करती है, कान के पर्दे पर लगता है कि चट से आकर पड़ रही है – ट्रिंग, ट्रिंग। जब यह घंटी किसी गाड़ी का हॉर्न बन जाती है, तब लगता है कि पर्दा फाड़कर ही दम लेगी। लेकिन, रिक्शे पर लगी यही घंटी बड़ी सुरीली लगती। इसे बनाया ही इतने जुगाड़ से जाता था। घंटी से एक पतला तार नीचे लाकर आगे वाले पहिये के रिम के पास बांध दिया जाता। उससे रबड़ का एक छोटा टुकड़ा जुड़ा होता। घंटी बजाने पर यह टुकड़ा रिम की तीलियों से टकराता और संगीत जैसी जो आवाज निकलती थी, वह न तो कानों को चुभती और न दर्द देती।
यहां रिक्शा का मतलब है रिक्शा। ई-रिक्शा की बात नहीं हो रही और न ही ऑटो रिक्शा की। कई जगह लोग ऑटो को भी रिक्शा ही बुलाते हैं, तो उनके लिए खासतौर पर कि नहीं, यह ऑटो नहीं है।
रिक्शा जो चलता है पैडल से। आगे की सीट पर बैठा ड्राइवर पैडल मारकर जिसे खींचता है, वह वाला रिक्शा। इसकी मधुर घंटी की तरह अब यह रिक्शा भी बहुत कम दिखता है। इलेक्ट्रिक, CNG और पेट्रोल इंजन ने पैडल का काम करीब-करीब खत्म कर दिया।
जिन चौराहों पर कभी इनका एकछत्र राज हुआ करता था, वहां अब ई-रिक्शा वालों का जमावड़ा दिखता है। लेकिन, जो रिक्शे बचे हैं, उनकी यात्रा अब भी बेहद सुखद लगती है, आनंद देने वाली।
इन पर बैठकर केवल मंजिल तक ही नहीं पहुंचते, बल्कि पुरानी यादों के सफर पर भी निकल सकते हैं। इन पर बैठने का अहसास ऐसा मानो बीते वक्त में पहुंच चुके हों।
जब सड़कों पर इतनी भीड़ न थी और न सभी को इतनी जल्दी। रिक्शेवाला एक लय में पैडल मारते हुए धीमे-धीमे आगे बढ़ता है और पैडल के हर घुमाव के साथ कई स्मृति खुलती जाती है। चढ़ान पर आकर उसका रिक्शे से उतर जाना, ढलान पर पैडल मारना बंद कर देना। आगे बढ़ना और साथ में हाथ के इशारे से दूसरों को भी रास्ता देते चलना।
रिक्शा न तो इतना धीमा होता है कि देर हो जाए और न इतना तेज कि आसपास के लोग और चीजें छूटती चली जाएं। बिल्कुल परफेक्ट होती है उसकी गति। उसकी सवारी करते हुए भी आप अपने आसपास का हिस्सा होते हैं।
सड़क पर पैदल चल रहे लोग, पटरियों पर खड़े ठेले-खोमचे वाले और उन पटरियों के पार खुली दुकानें – इन सभी से मिलते-मिलाते ले जाता है रिक्शा। इसमें कोई पर्दा, कोई दरवाजा, कोई खिड़की नहीं होती, जो अपने यात्री को बाकी दुनिया से अलग कर दे। यह दुनिया को साथ लेकर चलना सिखाता है।
रिक्शा धीमा जरूर है, लेकिन निरंतरता है इसमें। इसके पहिये जल्दी थमते नहीं। खरगोश और कछुए के बीच रेस वाली जो कहानी बचपन से सुनाई जा रही है, उसका कछुआ समझ लीजिए इसे।
रिक्शे को रास्ता बनाना आता है। अडजस्ट करना जानता है यह। जिन राहों पर आकर ऑटो और ई-रिक्शा भी हाथ खड़े कर देते हैं, उन पर बहुत आराम से चल पड़ता है रिक्शा।
यह ऑटो की तरह आवारा नहीं होता, जो पूरे शहर में दौड़ता फिरे, हाइवे और चौड़े-चौड़े रास्तों पर भटकता रहे। इसे अपनी हद पता होती है।
इसे पता है अपने दोस्त चौक-चौराहों, गली-कूचों के बारे में। एक रिक्शा हर दिन, बार-बार बस अपने उन्हीं दोस्तों से मिलता-जुलता रहता है। ऐसे में किसी नए शहर से दोस्ती करने के लिए रिक्शे से बेहतर कोई नहीं।
इसकी सवारी से गद्दी पर टिके रहने का शऊर भी आ जाता है। एक सलीका होता है इस पर बैठने का। अगर तमीज से बाहर निकले, तो गद्दी से सरक जाएंगे।
यह तमीजदार बनाने के साथ-साथ इज्जत करना भी सिखाता है। भेदभाव के लिए जगह नहीं होती इसमें। जिस ऊंचाई पर सवारी बैठती है, उसी ऊंचाई पर पैडल मारने वाला भी। दोनों के बीच कोई ओट नहीं होती।
सड़कें बदलीं, उन पर चलने वाले बदले, लेकिन रिक्शा ने किसी तरह अपने को बचाए रखा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि इनकी जगह कोई और नहीं ले सकता।
पुराने लखनऊ की गलियों, पुरानी दिल्ली या बनारस के चौक को महसूस करने के लिए क्या रिक्शे का कोई विकल्प मिल सकता है? जवाब देने के लिए कम से कम एक अनुभव होना चाहिए आपके पास।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."