आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वालीं मायावती पिछले कुछ सालों में सियासी रूप से कमजोर हो गई हैं। जिस उत्तर प्रदेश में 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, अब अपना दलित वोटबैंक भी एकमुश्त रखना चुनौती बन रहा है। 2024 के रण में मायावती का हाथी अकेले ही आगे बढ़ने जा रहा है, किसी के साथ कोई गठबंधन नहीं हुआ है, कांग्रेस की तमाम कोशिशें फेल हुई हैं।
अब बसपा ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान तो कर दिया है, लेकिन अभी तक आधे से भी ज्यादा सीटों पर वो उम्मीदवार घोषित नहीं कर पाई है।
वो मायावती जो हमेशा से ही समय से पहले प्रत्याशी घोषित करने को लेकर जानी जाती हैं, इस बार पिछड़ गई हैं। यूपी की 80 सीटों में से सिर्फ 36 सीटों पर प्रत्याशी उतारे गए हैं, यानी कि आधे से कम का सफर तय हुआ है।
अब ये आंकड़ा ज्यादा कम इसलिए दिखाई देता है क्योंकि एक तरफ बीजेपी ने 63 सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं, तो वहीं इंडिया गठबंधन में सपा ने भी 48 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं। कांग्रेस ने भी 14 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े कर दिए हैं।
अब जब तुलना की जाती है तो पता चलता है कि मायावती काफी पिछड़ गई हैं। पूर्वांचल की कई ऐसी सीटें सामने आई हैं जहां से कोई भी प्रत्याशी तय नहीं हो पा रहा है।
कुछ दूसरी सीटों पर भी आपसी तालमेल नहीं होने की वजह से कई नेताओं की टिकट कन्फॉर्म नहीं हो पा रही है। ऐसा कहा जा रहा है कि पूर्वांचल में अभी मायावती थोड़ा और इंतजार कर सकती हैं, उन्हें उम्मीद है कि कुछ मजबूत चेहरे दूसरी पार्टी से टूटेंगे, टिकट ना मिलने पर पाला बदलेंगे और बसपा उन्हें मौका दे सकती है।
अगर बसपा की रणनीति को समझना हो तो उसके उम्मीदवारों के चयन को डीकोड करना जरूरी है।
मायावती ने सबसे पहले जिन चार उम्मीदवारों का ऐलान किया था, वो सारी वो सीटें थी जहां पर समाजवादी पार्टी की मजबूत उपस्थिति है, कहना चाहिए कि वर्तमान में इंडिया गठबंधन की तो लाइफलाइन है।
ये सीटें हैं- मुरादाबाद, अमरोहा , सहारनपुर और कन्नौज। इन चारों ही सीटों पर बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी उतारकर जमीन पर समीकरण बदल दिए हैं।
कौन भूल सकता है आजमगढ़ का उपचुनाव जिसमें बसपा के उम्मीदवार गुड्डू जमाली ने बीजेपी प्रत्याशी की जीत की पटकथा लिख दी थी।
अब समझने वाली बात ये है कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीति यूपी में 22 फीसदी वोटरों पर टिकी है। इसमें 12 फीसदी तो जाटव हैं तो 10 फीसदी गैर जाटव।
खुद मायावती जाटव समुदाय से आती हैं तो उस वजह से ये वर्ग बसपा के साथ मजबूती से खड़ा रहता है। लेकिन अब इस 22 फीसदी वोटर के भी हिस्से हो चुके हैं, बीजेपी ने सेंधमारी की है। अगर पिछले कुछ सालों के बीएसपी के लोकसभा चुनाव में वोट शेयर पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि समय के साथ मायावती का जनाधार सिकुड़ता गया है।
साल सीटें वोट शेयर
1999 14 22.08%
2004 19 24.67%
2009 20 27.42%
2014 0 19.62
2019 10 19.26
अब मायावती का जनाधार तो सिकुड़ रहा है, लेकिन फिर भी वे अकेले ही चुनाव लड़ने पर अड़ी हुई हैं। राजनीतिक जानकार इसे एक तरफ बसपा के लिए नुकसानदायक मानत हैं तो दूसरी तरफ नेरेटिव बिल्डिंग के लिहाज से अभी भी मायावती के लिए फायदे का सौदा समझते हैं।
असल में दलित नेता के रूप में मायावती ने खुद को स्थापित कर रखा है, ऐसे में गठबंधन ना कर वे इस वोटबैंक को साफ संदेश दे रही हैं कि वे ही उनकी अपनी नेता हैं और सारा वोट उनके पास जाना चाहिए।
इसके ऊपर मायावती ये भी नहीं चाहतीं कि उनका वोट बेस दूसरे दलों के साथ बंट जाए क्योंकि उस स्थिति में पार्टी की अपनी मजबूती कुछ कम हो जाती है।
खुद मायावती का ये तर्क है कि दूसरे पार्टियों का वोट उनमें ट्रांसपर नहीं होता है, लेकिन बसपा का चला जाता है। इसी वजह से अकेले चुनाव लड़ बड़ा संदेश देने की तैयारी है।
वैसे एक बात समझने वाली ये है कि मायावती जो गठबंधन को लेकर तर्क दे रही हैं, वो आंकड़ों से मेल नहीं खाते हैं। बसपा प्रमुख जरूर मानती हैं कि गठबंधन कर उन्हें नुकसान हुआ है, लेकिन चुनावी नतीजे बताते हैं कि बसपा के लिए ये फायदे का सौदा ही रहा है।
1993 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने गठबंधन कर रखा था और उसकी सीट की टैली 12 से बढ़कर 67 हो गई थी।
इसी तरह 1996 में जब पार्टी ने कांग्रेस से हाथ मिलाया, उसका वोट प्रतिशत बढ़ गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में तो सपा से गठबंधन करने का सबसे ज्यादा फायदा बसपा को गया और वो 10 सीटें जीतने में कामयाब हुई। वहीं ये आंकड़ा 2014 में शून्य पर रुक गया था। उस चुनाव में मायावती ने किसी से गठबंधन नहीं किया। इसी तरह अगर पिछले विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो मायावती ने अकेले चुनाव लड़ा और उनकी पार्टी सिर्फ 1 सीट जीत पाई।
क्रम संख्या लोस क्षेत्र BSP प्रत्याशी
1 सहारनपुर माजिद अली
2 कैराना श्रीपाल सिंह
3 मुजफ्फरनगर दारा सिंह प्रजापति
4 बिजनौर चौधरी ब्रिजेंद्र सिंह
5 नगीना सुरेंद्र पाल सिंह
6 मुरादाबाद इरफान सैफी
7 रामपुर जीशान खां
8 सम्भल शौलत अली
9 अमरोहा मुजाहिद हुसैन
10 मेरठ देवव्रत त्यागी
11 बागपत प्रवीण बंसल
12 गाजियाबाद ठाकुर नंदकिशोर पुंढीर
13 गौतम बुद्ध नगर राजेंद्र सिंह सोलंकी
14 बुलंदशहर (अ.जा) गिरीश चंद्र जाटव
15 हाथरस (अ.जा) हेमबाबू धनगर
16 मथुरा सुरेश सिंह
17 आगरा (अ.जा) पूजा अमरोही
18 फतेहपुर सीकरी रामनिवास शर्मा
19 फिरोज़ाबाद सत्येंद्र जैन सौली
20 आंवला आबिद अली
21 पीलीभीत अनीस अहमद खां फूल बाबू
22 शाहजहांपुर डॉ दोदराम वर्मा
23 मोहनलालगंज (अ०जा०) मनोज प्रधान
24 उन्नाव अशोक पांडेय
25 इटावा (अ०जा०) सारिका सिंह बघेल
26 कन्नौज इमरान
27 कानपुर कुलदीप भदौरिया
28 अकबरपुर राजेश कुमार द्विवेदी
29 जालौन (अ०जा०) सुरेश चंद्र गौतम
30 फैजाबाद सच्चिदानंद पांडेय
31 अलीगढ़ हितेंद्र कुमार उर्फ बिट्टू उपाध्याय
32 मैनपुरी गुलशन देव शाक्य
33 खीरी अंशय कालरा रॉकी
34 लखनऊ सरवर मलिक
35 कौशांबी शुभनारायण
36 लालगंज डॉ इंद चौधरी
ये अंक गणित बताने के लिए काफी है कि अकेले लड़ने से मायावती दूसरे विपक्षी दलों का खेल तो बिगाड़ सकती हैं, कई सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतार उस वोटबैंक में बिखराव की स्थिति ला सकती हैं, लेकिन जीतने की स्थिति में आने के लिए हाथी को भी किसी ना किसी के सहारे की जरूरत तो पड़ेगी, फिर चाहे वो साइकिल हो या फिर हाथ।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."