अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
लखनऊ: उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में, इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए। वसीम बरेलवी का ये शेर यूं तो सियासी लोगों के लिए कई बार कहा जाता रहा है लेकिन हालिया समय में ये ज्यादा ही मौजू होता दिख रहा है। कुछ ही दिन बीते कि इंडिया गठबंधन बनाने का जिम्मा उठाए घूम रहे नीतीश कुमार बीजेपी के साथ चले गए तो अब राष्ट्रीय लोकदल के एनडीए में आने की चर्चा है।
पश्चिम यूपी में प्रभाव रखने वाले राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी के अलग होने की अभी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है लेकिन इसके आसार पूरे-पूरे नजर आ रहे हैं। ये इसलिए भी अंचभे में डाल रहा है क्योंकि जयंत चौधरी और अखिलेश यादव ने 19 जनवरी को ही लखनऊ में मुलाकात की थी।
दोनों नेताओं सोशल मीडिया पर फोटो शेयर करते हुए गठबंधन के मजबूत होने और कार्यकर्ताओं को चुनाव के लिए जुट जाने की बात कही थी। इसके 20 दिन भी अभी नहीं हुए और जंयत के भाजपा के साथ जाने की चर्चा है तो इसके पीछे की वजह भी तलाशनी होगी।
19 जनवरी की जिस मुलाकात के बाद अखिलेश यादव ने गठबंधन की बधाई दी थी, दरअसल वहीं से अलगाव के बीज पड़े। लखनऊ में इस बैठक के दौरान दोनों पार्टियों के कई बड़े नेता भी पहुंचे थे। इनमें से एक पूर्व सांसद और सपा महासचिव हरेंद्र मलिक भी थे। लखनऊ से लौटने के बाद उन्होंने मुजफ्फरनगर से चुनाव की तैयारी शुरू कर दी और राजनीतिक गलियारों में ये बात चल निकली कि उनका टिकट अखिलेश यादव ने फाइनल कर दिया है, बस ऐलान बाकी है। इस पर राष्ट्रीय लोकदल नेताओं में बैचैनी बढ़ी और उन्होंने खुलकर अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर करना शुरू कर दिया।
पूर्व मंत्री योगराज सिंह समेत कुछ नेताओं ने मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर करते हुए दौरे भी शुरू कर दिए। यहां तक भी बात ठीक थी लेकिन स्थिति तब खराब हुई जब कहा गया कि हरेंद्र मलिक सपा नहीं लोकदल के निशान पर कैंडिडेट हो सकते हैं। ये गठबंधन में दरार की असल वजह बन गई।
अखिलेश की कैंडिडेट एक्सपोर्ट नीति
इस पूरी बात समझने के लिए हम आपको सपा-लोकदल के गठबंधन की शुरुआत में ले चलते हैं। 2017 के यूपी विधानसभा इलेक्शन में बुरी गत होने के बाद सपा और राष्ट्रीय लोकदल ने साथ आने का फैसला लिया था।
2018 में कैराना लोकसभा के उपचुनाव में दोनों दल मिलकर लड़े। यहां एक तजुर्बा किया गया। तजुर्बा ये था कि कैराना से अपनी पार्टी की नेता तबस्सुम हसन को अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोकदल के चुनाव निशान पर लड़ाया। यानी पहले अपना नेता सहयोगी पार्टी में भेजा फिर उसे टिकट दिलाया। ये प्रयोग सफल रहा और तबस्सुम चुनाव जीत गईं। बस फिर क्या था, दोनों दलों का गठबंधन चल निकला।
2019 के लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन रहा लेकिन बसपा के भी साथ आ जाने की वजह से राष्ट्रीय लोकदल के लिए मोलभाव की बहुत गुंजाइश नहीं बची और उसे सिर्फ तीन सीटें ही मिल सकीं। इसमें मुजफ्फरनगर से अजित सिंह, बागपत से चौधरी जयंत और मथुरा से कुंवर नरेंद्र सिंह लड़े लेकिन तीनों हार गए। इसके बाद मौका आया 2022 के विधानसभा चुनाव का। इस बार भी अखिलेश यादव कैंडिडेट की एक्सपोर्ट नीति पर अड़ गए। आरएलडी को जो सीटें दीं, उनमें से कई पर अपनी पार्टी के नेताओं को टिकट दिला दिया। आरएलडी के मौजूदा 9 विधायकों में से तीन- मीरापुर विधायक चंदन चौहान, पुरकाजी के एमएलए अनिल कुमार और सिवाल खास विधायक गुलाम मोहम्मद टिकटों के ऐलान के समय तक समाजवादी पार्टी में थे। दूसरी पार्टी के नेताओं को सिंबल मिलने पर आरएलडी नेताओं ने उस समय एतराज जताया था लेकिन जयंत चौधरी किसी तरह अपने नेताओं को समझाने में कामयाब रहे थे। बताया गया कि टिकट ना मिलने से रुठे नेताओं को मनाने के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव में मौका देने का वादा भी कई नेताओं से किया गया।
आरएलडी को सीटों के साथ कैंडिडेट भी देनी चाहती है सपा
अब मौजूदा परिस्थिति पर आते हैं, 2024 के चुनाव की तैयारी शुरू होने के बाद राष्ट्रीय लोकदल के नेताओं की ओर से कभी 15 तो कभी 12 सीटों की मांग की गई लेकिन जयंत ये कहते रहे कि लक्ष्य भाजपा को हटाना है तो हम कुर्बानी से भी पीछे नहीं हटेंगे। गठबंधन में आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर को भी जयंत ही लेकर आए और कांग्रेस को जोड़ने की कोशिशें भी उनकी ओर से बहुत पहले से शुरू हो गईं। ये काफी हद तक साफ था कि जयंत 5 से 7 सीटों मान जाएंगे। इनमें चार सीटें- परिवार की परंपरागत सीट बागपत, मथुरा (जहां से जयंत सांसद रहे हैं), कैराना (जो पार्टी की मजबूत सीटों में से एक है), मुजफ्फरनगर (यहां से 2019 में अजित सिंह नजदीकी अंतर से हारे थे) को राष्ट्रीय लोकदल अपने हिस्से में मानकर चल रही थी। बाकी दो से तीन सीटें उसको और मिलने की उम्मीद थी।
राष्ट्रीय लोकदल के नेताओं की मानी जाए तो ये चारों सीटें उनकी पार्टी को सपा देने के लिए तैयार है। पेंच ये है कि कैराना और मुजफ्फरनगर के लिए सपा कैंडिडेट भी दे रही है। सपा की इन दोनों सीटों को देने की शर्त ये है कि मुजफ्फरनगर से हरेंद्र मलिक तो कैराना से इकरा हसन को राष्ट्रीय लोकदल अपना कैंडिडेट बनाए। जैसे ही ये बात नेताओं के बीच पहुंची हलचल तेज हो गई। शामली, मुजफ्फरनगर में लोकदल नेताओं ने बैठकें कीं और साफ कर दिया ये अदलाबदली नहीं चलेगी। अगर सीट लोकदल की होगी तो कैंडिडेट भी पार्टी का ही होगा। थाना भवन के लोकदल विधायक अशरफ ने तो यहां तक कह दिया कि पश्चिम यूपी में सीट नहीं मिलेगी तो क्या हमारी पार्टी पश्चिम बंगाल जाकर चुनाव लड़े। बस यहीं से जयंत भी उखड़ गए, दोनों सीटें अगर सपा को देकर वो अपने कार्यकर्ताओं को फेस करने की स्थिति में नहीं है। अखिलेश के सीट के साथ कैंडिडेट देने की जिद को लोकदल एक चालबाजी और अविश्वास की तरह देख रही है और इसी ने चीजें सबसे ज्यादा खराब की हैं।
सपा भी नहीं छोड़ सकती मुजफ्फरनगर, कैराना
राष्ट्रीय लोकदल मुजफ्फरनगर, कैराना छोड़ने के मूड में नहीं तो सपा भी मुश्किल में है। दरअसल हरेंद्र सपा के पास अकेले बड़े जाट नेता हैं, जो खुद विधायक और सांसद रहे हैं। उनके बेटे पंकज मलिक मौजूदा समय में सपा से विधायक हैं। हरेंद्र मलिक चुनाव लड़ने पर अड़े हुए हैं और उनको पार्टी किसी कीमत पर नाराज नहीं करना चाहती। कैराना में मुनव्वर हसन परिवार कई दशकों से चुनाव लड़ता आ रहा है और सपा की राजनीति भी इसी परिवार पर आकर टिकती रही है।
विधानसभा चुनाव के समय से ही कैराना विधायक नाहिद की बहन इकरा लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हैं। इस परिवार को टिकट के लिए मना करना भी अखिलेश के लिए मुश्किल भरा है। दोनों ही राष्ट्रीय अध्यक्ष अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को मना नहीं कर पा रहे है, जिसका नतीजा ये निकलता दिख रहा है कि अखिलेश और जयंत की राहें जुदा होती लग रही हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."