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November 22, 2024 5:20 pm

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धीमे-धीमे खून सोख लेती है ये परंपराएं गरीबों का…कांप उठेंगे आप इस खबर को पढकर

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इरफान अली लारी की रिपोर्ट

इंसानियत मर जाती है तो गुरुर पैदा होता है और जब गुरुर परंपरा बनकर इठलाता है तो गरीबी कराह उठती है… खबर पढकर आप भी ये मान लेंगे….

‘मेरी बड़ी मां का कोई देखनिहार नहीं था। बड़े पापा बहुत पहले चल बसे और उनके बाल-बच्चे समझ लीजिए हम लोग ही थे। वे शुरू से हमारे साथ रहीं। अंत घड़ी से सालभर पहले उन्हें फालिस (लकवा) मार गया। बड़ी मां की अंतिम इच्छा थी कि उनके मृत शरीर को बनारस ले जाया जाए। हम सब ने दो गाड़ी की और उन्हें ले गए। जौनपुर से आना-जाना ही हमारे लिए महंगा था। कर्ज लेकर उनकी आखिरी इच्छा पूरी की। फिर गांव लौटकर उनकी तेरहवीं में खूब पैसा खर्च किया।’

बड़ी मां की तेरहवीं के बाद अब उन पर एक लाख रुपए का कर्ज है। इस कर्ज ने उन्हें सूद के पैसों में उलझा रखा है, इस वजह से वो बीमार होने पर भी काम पर जाते हैं।

जौनपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं निरई कुमार। ईंट भट्ठा पर मजदूरी करने वाले निरई के पास पक्की छत वाला घर है। घर के अंदर की स्थिति अच्छी नहीं है। अपनी बड़ी मां के इलाज में कर्जदार हुए निरई कहते हैं, ‘बड़ी मां हमेशा कहती रहती थीं कि मुझे बनारस में जलाना और मृत्युभोज अच्छे से करना। हम भाइयों ने अपनी तरफ से कोई कमी नहीं की। जब उनकी मृत्यु हुई तब हम लोगों के पास पैसे नहीं थे। ग्राम प्रधान से पंद्रह हजार रुपए कर्ज लिया और उन्हें घाट लेकर गए। घाट पर सब काम निपटाने के बाद मेरे पास सिर्फ एक हजार रुपए बच पाए थे।’

तेरहवीं के काम-काज करने के लिए फिर से कर्ज लिया? निरई कुमार कहने लगे, ‘लेना ही पड़ा। बड़ी मां बोली थीं- धूमधाम से तेरहवीं नहीं करोगे तो मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। पिंडदान से लेकर पंडित भोज सब करना था। इसके लिए टेंट लगवाया, लाइट लगवाई और चार सौ लोगों का खाना हलवाई रखकर बनवाया। सात दिन तक गरुड़ पुराण की कथा हुई। इन सब काम को मिलाकर दो लाख का कर्ज हो गया।’

निरई कुमार अपने पैर की चोट और भाई के कैंसर का भी जिक्र करते हैं। दोनों भाइयों के इलाज में परिवार को न ही आयुष्मान योजना का फायदा हुआ है और न ही विधायक-सांसद की तरफ से कोई मदद नसीब हुई है।

कर्ज कैसे भर रहे हैं? 

इस सवाल को वापस सवाल में बदलकर वो कहते हैं, ‘भर कहां रहे हैं भइया! मेरे भाई को कैंसर हो गया। इस वजह से और कर्ज लेना पड़ा। कर्ज की वजह से दिमाग काम नहीं करता। कई बार सोचता हूं कि घर-परिवार सब छोड़कर कहीं चला जाऊं। यह भी संभव नहीं, जिसका लिया है उसे लौटाना तो होगा ही।’

निरई और उनके जैसे बिना पूंजी वाले लोग आज भी गांव में जमींदारों और धनाढ्यों से कर्ज लेते हैं। आड़ी-टेढ़ी किश्त बांधकर जमींदार अपनी तिजोरी भर रहे हैं। लछमिना भी उनमें से एक है।

बनारस के सेवापुरी की रहने वाली लछमिना कहती हैं, ‘हमार प्राणी (पति) के मरनी के कर्जा हम भर के ही मरब!’

यानी वो कह रही हैं कि अपने पति के मृत्युभोज का कर्ज भरने के बाद ही मैं मरूंगी।

आपके पति को क्या हुआ था? ‘शरीर सूज जाता था, लिवर में दिक्कत थी। उन्हें हेरिटेज हॉस्पिटल वाराणसी में दिखाया लेकिन नहीं बच पाए। तीस हजार कर्ज लेकर तेरहवीं की। एक लाख इलाज में खर्च हुए। दो साल हो गया है, मूल तक नहीं चुका पा रही।’

आप कर्ज कैसे चुकाएंगी?

लछमिना कहने लगी, ‘यह तो मेरा ईश्वर ही जानता है। समझ नहीं आता की अपनों की भूख शांत करें या कर्ज चुकाएं। मेरी दो बेटियां ही हैं। लड़का होता तो शायद पैसे भरता भी। समिति वालों से कर्ज उठाया था, कुछ महीने से सूद तक नहीं दिया है।’

लछमिना की मां और पति दोनों की मौत एक दिन के गैप में हो गई थी। उन्होंने दोनों का मृत्युभोज एक ही दिन कर दिया। शास्त्र के मुताबिक ऐसा करना सही है या नहीं, इसके लिए लछमिना ने अपने आस-पड़ोस के लोगों की राय लेना उचित समझा। कहती हैं, ‘कर्ज आस-पड़ोस से लेना था, मृत्युभोज में उन्हें ही बुलाना था। ऐसे में शास्त्रसम्मत राय लेकर करती भी क्या!’

मृत्युभोज करना इतना जरूरी था कि कर्ज लिया जाए? लक्ष्मिणा कहने लगी, ‘कैसी बातें कर रहे हो बेटा। मृत्युभोज न करती तो लोग क्या कहते! एक बात समझ लो, चाहे कुछ भी करो यह सब करना ही होगा। सबको बुलाना होता है, नियम पूरे करने होते हैं। अकेले हम ही समाज में थोडे़ न रहते हैं।’

ये बातें करते हुए लछमिना विश्वास से भरी हुई हैं। उनकी जिंदगी में पति और मां का एक साथ चल बसना जितना बड़ा सच है मृत्युभोज करना भी उतना ही। उनके मृत्युभोज न करने से पति की आत्मा को शांति नहीं मिलती। वो अपने पक्ष में कई तर्क गढ़ती हैं और कर्ज लेने को सही रास्ता बताती हैं।’

लछमिना के घर के सामने माधुरी बैठी हैं। मृत्युभोज करना जरूरी था यह मुझे समझाने के लिए वो माधुरी को आवाज देती हैं। वो मुझसे कहती हैं, ‘बबुआ। आपको माधुरी से भी बात करनी चाहिए। इनके पति बीते साल चल बसे हैं। इन्होंने भी गांव के ही एक पंडित जी से कर्ज लिया है जिसे वो भर नहीं पा रही।’

अब माधुरी मेरे सामने बैठी हैं। कहती हैं, ‘पहले पत्तल-दोना बनाती थी। अब मनरेगा में काम करती हूं। खर्च वहीं से चलता है। दोनों बेटियों की शादी कर दी है। अब अकेली हूं।’

पति की मृत्यु कैसे हुई?

माधुरी कहती हैं, ‘सांस फूलती थी उसकी। चालीस हजार की दवाई कराई। ईंट भट्ठे के मालिक से 50 हजार कर्ज लिए थे। इलाज के बीच में ही पैसे खत्म हो गए और पति मर गया। 

पति का इलाज पूरा नहीं करवाया आपने? माधुरी का जवाब था- ‘डॉक्टर प्रयास कर रहे थे लेकिन वो बचा नहीं। भाग कर उसी दिन गांव में पंडित जी से 10 रुपया सैकड़ा पर 20 हजार कर्ज लिए ईंट भट्ठे पर काम करने का कम पैसा ही मिलता है, लेकिन मैं धीरे-धीरे करके चुका रही हूं।’

माधुरी ने पति की मौत पर गांव के ही किसी कर्मकांडी पंडित से 20 हजार कर्ज लिया था। इसकी ब्याज दर तकरीबन 10% थी। यानी 20 हजार कर्ज के लिए हर महीने तकरीबन दो हजार की किश्त चुकानी पड़ रही है।

क्या यह मृत्युभोज करना इतना जरूरी है कि कर्ज लेकर किया ही जाए? ‘नहीं करेंगे तो मेरे पति की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी। उनका अगला जन्म नहीं हो पाएगा। आत्मा भटकेगी।’

माधुरी ने अपने पति की मौत के बाद मृत्युभोज के लिए कर्ज दस परसेंट के ब्याज पर लिया है। उनके मुताबिक नात-रिश्तेदारों को बुलाना जरूरी होता है। बाप-दादा करते आए हैं तो हमें भी करना ही होगा। अगर ऐसा वो नहीं करती तो लोग-समाज से उनके परिवार को निकाल दिया जाता।

मृत्युभोज के लिए रोज लोगों को कर्ज लेते देख रहा हूं, उन्हें समझाता हूं कि समाज की गलत प्रथा के लिए अपनी मुसीबत न बढ़ाएं। लेकिन जब पूर्वजों के मोक्ष की बात हो तो हमारी कौन सुनता, मरने के बाद तेरहवीं का भोज कराने से तो खानदान की इज्जत जो जुड़ी है।’

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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