रघु यादव मस्तूरी की रिपोर्ट
इस महीने की तीन तारीख़ की सुबह तक, छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 में से 27 सीटों पर कांग्रेस पार्टी के विधायकों का कब्ज़ा था।
लेकिन दिन चढ़ते तक तस्वीर बदल गई और विधानसभा चुनाव के परिणाम के साथ ही 27 विधायकों का यह आँकड़ा गिर कर 11 पर आ गया। भाजपा ने 17 और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने एक सीट जीत ली थी।
छत्तीसगढ़ का नक़्शा देखें तो 2018 में राज्य के एक छोर पर आदिवासी बहुल सरगुजा इलाक़े की सभी 14 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, वहीं दूसरे छोर पर, उपचुनाव के बाद आदिवासी बहुल बस्तर की सभी 12 सीटों पर भी कांग्रेस के विधायक काबिज़ थे।
ताज़ा परिणाम में बस्तर और सरगुजा संभाग की इन 26 में से केवल चार सीटों पर ही कांग्रेस जीत हासिल कर पाई।
राजनीतिक गलियारे में अब इस बात की चर्चा है कि 90 सीटों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा की जिन 30 फ़ीसदी आदिवासी सीटों के दम पर कांग्रेस ने ऐतिहासिक जनमत हासिल किया था, वहाँ ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस विपक्ष में बैठने के लिए मज़बूर हो गई।
कांग्रेस सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे टीएस सिंहदेव कहते हैं कि, “आलाकमान ने जो ज़िम्मेदारी सौंपी, हमने उसका निर्वाह करने की कोशिश की। लेकिन कहीं न कहीं हमसे चूक हुई। आदिवासी इलाक़ों में नाराज़गी को हम समझ नहीं पाए और उसका असर दूसरी सीटों पर भी हुआ। लेकिन जनता के मुद्दों पर हमारी लड़ाई जारी रहेगी।”
टीएस सिंहदेव छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल की सरकार के 11 में से उन नौ मंत्रियों में शामिल हैं, जिन्हें ताज़ा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
सिंहदेव मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री के फॉर्मूले के बाद भी उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के दूसरे प्रचारकों ने मुद्दा बनाया था।
कहा जाता है कि आपसी प्रतिद्वंद्विता में टीएस सिंहदेव के इलाक़े में अधिकांश सरकारी योजनाओं में उनकी ही सरकार ने अड़ंगे लगाए।
टीएस के ख़िलाफ़ कांग्रेसी विधायकों और सरकारी अफ़सरों को खड़ा कर दिया गया, जिसका हश्र ये हुआ कि सरगुजा से टीएस सिंहदेव तो हारे ही, दूसरी सीटों पर भी कांग्रेस साफ़ हो गई।
21 फ़ीसदी आदिवासी आबादी वाले पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में भी आदिवासी सीटों पर कांग्रेस को नुक़सान उठाना पड़ा है।
2018 के चुनाव में मध्य प्रदेश में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 में से 31 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीत कर आए थे।
लेकिन ताज़ा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को नौ सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा है और कांग्रेस को केवल 22 सीटें मिल पाई हैं जबकि 15 सीटों वाली भाजपा को इस बार 24 सीटें मिली हैं।
दोनों राज्यों के आँकड़े देखें तो आदिवासियों के लिए आरक्षित 76 सीटों में से भाजपा को 41 सीटें मिली हैं। 2018 में यह आँकड़ा महज 19 था। लेकिन 2018 में इनमें से 55 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 33 सीटों पर आ गई।
छत्तीसगढ़ में इन आदिवासी सीटों के वोट शेयर की बात करें तो पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस पार्टी को 3.4 फ़ीसदी वोटों का नुक़सान हुआ है और उसे 41.7 फ़ीसदी वोट मिले हैं।
इसके उलट, बीजेपी को पिछले चुनाव की तुलना में लगभग 11 फ़ीसदी वोटों का लाभ हुआ है और उसे 43.3 फ़ीसदी वोट मिले हैं।
2003 के चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 34 में से 25 सीटें जीत कर भाजपा ने पहली बार राज्य में अपनी सरकार बनाई थी। तब कांग्रेस को नौ सीटें मिली थीं।
इसके बाद 2008 के चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 में से 19 सीटें फिर भाजपा ने जीतीं और कांग्रेस को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
2013 के चुनाव में तो आदिवासियों ने कांग्रेस पर भरोसा जताया और कांग्रेस को 18 सीटे मिलीं। लेकिन राज्य के दूसरे हिस्सों में कांग्रेस का प्रदर्शन कमज़ोर रहा, जिसके कारण कांग्रेस सरकार बनाने से चूक गई।
2018 में 29 में से 27 आदिवासी सीटों के साथ सत्ता में आने के बाद भूपेश बघेल ने पहली बार किसानों को राजनीति का केंद्र बनाया।
दिसंबर 2018 में शपथ लेने वाले दिन ही किसानों की कर्ज़ माफ़ी और 2500 रुपये प्रति क्विंटल में धान ख़रीदी के अपने वादे पर कांग्रेस सरकार ने मुहर लगाई।
बाद में सिंचाई कर भी माफ़ किया गया। इस साल भी कर्ज़ माफ़ी और किसानों से 3200 रुपये प्रति क्विंटल में धान ख़रीदी का वादा कांग्रेस पार्टी ने किया था।
यह अनायास नहीं है कि समर्थन मूल्य से अधिक धान की क़ीमत देने का विरोध करने वाली भाजपा को, ताज़ा चुनाव में 3100 रुपये प्रति क्विंटल धान ख़रीदने का वादा करना पड़ा।
यहां तक कि अपने कार्यकाल 2016-17 व 2017-18 का धान का बकाया बोनस देने का भी वादा भाजपा को करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
लेकिन कांग्रेस का धान का मुद्दा अधिकांश आदिवासियों को इसलिए प्रभावित नहीं कर पाया क्योंकि इन इलाक़ों में खेती से कहीं अधिक, वनोपज आजीविका का साधन रहा है।
लेकिन वनोपज की क़ीमत बढ़ाने के बाद भी उनकी ख़रीदी की मात्रा को कम कर दिया गया।
तेंदूपत्ता से कमाई करने वाले आदिवासी इससे बेहद नाराज़ रहे कि कांग्रेस सरकार ने तेंदूपत्ता की क़ीमत तो ढाई हज़ार बोरे से बढ़ा कर चार हज़ार कर दी है लेकिन ख़रीदी की मात्रा कम कर दी है।
आरोप है कि आदिवासियों को खुले बाज़ार में तेंदूपत्ता बेचने से भी रोका गया, उन्हें प्रताड़ित किया गया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी उनके तेंदूपत्ता ज़ब्त किए गए।
छत्तीसगढ़ियावाद से कटे रहे आदिवासी इलाक़े
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल साढ़े चार साल तक, यहां तक कि चुनाव से कुछ सप्ताह पहले तक, लगातार छत्तीसगढ़िया अस्मिता और संस्कृति को बढ़ावा देने की कोशिश करते नज़र आए।
गेड़ी चढ़ने से लेकर भौंरा, लट्टू घुमाने, छत्तीसगढ़िया खेलों का ओलंपिक आयोजित करने और खान-पान से लेकर भाषा-बोली तक, उन्होंने एक छत्तीसगढ़िया आत्मगौरव को स्थापित करने में सफलता पाई।
छत्तीसगढ़ी में राजगीत की शुरुआत की। पहली बार छत्तीसगढ़ी त्योहारों पर अवकाश घोषित किए गए।
कांग्रेस पार्टी और सरकार ने उनकी छवि एक छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री की तरह गढ़ने की कोशिश की। हालत ये हो गई कि भाजपा के नेताओं को भी इस रास्ते पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ा।
लेकिन इस छत्तीसगढ़ियावाद का दूसरा पहलू ये रहा कि मैदानी इलाक़ों की छत्तीसगढ़िया पहचान से न तो बस्तर जुड़ पाया और ना ही सरगुजा।
छत्तीसगढ़ के मैदानी खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा की तुलना में बस्तर सर्वथा अलग रहा है।
छत्तीसगढ़ के पुरातत्व और संस्कृति पर बरसों से कार्यरत राहुल सिंह यह क़िस्सा सुनाना नहीं भूलते कि बस्तर के एक साहित्यकार ने सार्वजनिक मंच पर किसी मुद्दे पर कहा था कि ‘छत्तीसगढ़ राज्य के लोग, हम बस्तर वालों की बात नहीं सुनते।’
यही हाल सरगुजा का रहा, जहां की सरगुजिहा संस्कृति पर छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाक़ों के साथ-साथ, उसका एक अपनी ख़ासियत रही है।
रायपुर के एक संस्कृतिकर्मी कहते हैं, “भूपेश बघेल की इस कोशिश की सराहना की जानी चाहिए। उन्होंने पहली बार आम छत्तीसगढ़िया को हीनता के बोध से आत्मगौरव तक पहुंचाया लेकिन उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि वे इस छत्तीसगढ़ियावाद को बस्तर और सरगुजा की एक बड़ी आबादी से कनेक्ट नहीं कर पाए।”
ओबीसी राजनीति काम न आई
छत्तीसगढ़ में सत्ता में आते ही भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी राजनीति को मज़बूत करना शुरू किया।
सत्ता में आने के आठ महीने के भीतर ही भूपेश बघेल की सरकार ने राज्य में नई आरक्षण व्यवस्था लागू करने की घोषणा की।
इस नई व्यवस्था में अनुसूचित जाति के आरक्षण को 12 फ़ीसदी से बढ़ा कर 13 फ़ीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 14 फ़ीसदी से बढ़ाकर 27 फ़ीसदी कर दिया गया।
आर्थिक रूप से कमज़ोर सामान्य वर्ग के लोगों को 10 फ़ीसदी आरक्षण को जोड़ने के बाद छत्तीसगढ़ में आरक्षण का दायरा 82 फ़ीसदी तक जा पहुंचा।
लेकिन बाद में इस आरक्षण व्यवस्था पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी।
इसके बाद राज्य सरकार ने क्वांटिफाइएबल डेटा आयोग बना कर राज्य में ओबीसी जाति की गणना की।
नया आरक्षण विधेयक विधानसभा से पारित कर राज्यपाल को भेजा गया लेकिन जब राज्यपाल ने क्वांटिफाइएबल डेटा आयोग द्वारा एकत्र ओबीसी जाति के आंकड़े मांगे तो सरकार ने इसे देने से साफ़ इनकार कर दिया। यह विधेयक अब भी लंबित है।
भूपेश बघेल की इन कोशिशों से ओबीसी वर्ग कितना ख़ुश हुआ, इसे तो मैदानी इलाक़ों के आंकड़ों में समझा जा सकता है लेकिन आदिवासी बहुल राज्य की पहचान वाले छत्तीसगढ़ में यह धारणा एक बड़ी आदिवासी आबादी के भीतर घर कर गई कि 32 फ़ीसदी आबादी वाले आदिवासियों को सामाजिक, राजनीतिक मामले में हाशिए पर डाला जा रहा है और उसकी जगह ओबीसी को दी जा रही है।
ताज़ा चुनाव में भी आदिवासी इलाक़ों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी आदिवासी और वनवासी की परिभाषा के नाम पर तो भाजपा को घेरने की कोशिश करते रहे लेकिन इन इलाक़ों में आदिवासी अधिकारों की बजाय उनका ध्यान ओबीसी पर कहीं अधिक रहा।
सामाजिक कार्यकर्ता और एडीआर के राज्य संयोजक गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं, “आरक्षण के मसले पर आदिवासियों को भरोसे में नहीं लिया गया। यहां तक कि अनुसूचित जाति को भी इस आरक्षण व्यवस्था को लेकर नाराज़गी थी। आदिवासी संगठनों ने तो इसका खुल कर विरोध भी किया। लेकिन सरकार उन्हें समझा पाने में असफल रही।”
गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं कि राज्य सरकार ने वनाधिकार क़ानून के तहत व्यक्तिगत और सामुदायिक पट्टे तो बांटे लेकिन उस पर कब्ज़ा वन विभाग का ही बना रहा।
सॉफ़्ट हिंदुत्व का उलटा असर?
इसी तरह राम वनगमन पथ, गोबर ख़रीदी, रामायण महोत्सव, राम रथ यात्रा, मान प्रतियोगिता, भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए सम्मेलन जैसे आयोजनों में सहभागिता, कौशल्या माता मंदिर का सौंदर्यीकरण, राज्य भर में भगवान राम की विशालकाय मूर्तियों की स्थापना और सांप्रदायिक हिंसा के बाद हिंदू संगठनों के साथ खड़े होने की कोशिश को देख कर राज्य में यह आम धारणा बन गई थी कि कांग्रेस सरकार ने भाजपा से उसके सारे मुद्दे छीन लिए हैं। कांग्रेस पार्टी के नेता भी कई अवसरों पर यह दावा करते नज़र आए।
लेकिन बस्तर से लेकर सरगुजा तक, आदिवासी इलाक़ों में आदिवासी, हिंदू आदिवासी और ईसाई आदिवासी में बँटे वर्ग के बीच जब संघर्ष की स्थिति बनी तो राज्य सरकार इन मामलों में चुप्पी साधे रही।
रमन सिंह के 15 साल के शासनकाल की तुलना में, भूपेश बघेल के 5 साल के शासन काल में ऐसी हिंसक घटनाओं की संख्या तीन गुना से अधिक रही।
आदिवासी ईसाइयों और चर्चों पर होने वाले हमले, उनके दफ़न शवों को कब्रों से निकालने, ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों के सामाजिक बहिष्कार के शपथ समारोहों जैसे कई मुद्दे ऐसे रहे, जिससे कांग्रेस को अल्पसंख्यक वोटों का नुक़सान झेलना पड़ा।
इसके उलट इन आदिवासी इलाक़ों में भाजपा हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण में सफल रही।
माना जा रहा है कि न ईसाई आदिवासियों के वोट कांग्रेस को मिले और ना ही हिंदू वोटों का लाभ कांग्रेस उठा पाई।
आदिवासी संगठनों की नाराज़गी
सर्व आदिवासी समाज के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम का कहना है कि 2018 में आदिवासियों ने सरगुजा और बस्तर में कांग्रेस पार्टी को भरपूर वोट दिया था।
लेकिन जिन अपेक्षाओं के साथ आदिवासियों ने वोट दिया था, कांग्रेस उन अपेक्षाओं को पूरा कर पाने में पूरी तरह असफल रही।
नेताम का कहना है कि माओवाद के नाम पर आदिवासियों के दमन रोकने, प्राकृतिक संसाधनों की लूट रोकने और आदिवासियों के अधिकारों के संरक्षण को लेकर आदिवासियों ने भारी उम्मीदें पाल रखी थीं. भूपेश बघेल ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
सरकार से आदिवासियों की नाराज़गी को इससे समझा जा सकता है कि बस्तर के इलाक़े में विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लागू होने से पहले तक कम से कम 21 जगहों पर आदिवासी महीनों से प्रदर्शन कर रहे थे। इसी तरह राज्य के दूसरे छोर पर, हसदेव अरण्य के जंगल को बचाने के लिए आदिवासी दो साल से धरना दे रहे थे।
कांग्रेस सरकार ने किसी भी इलाक़े में प्रदर्शनकारियों से बात तक करने की कोशिश नहीं की। इन धरनास्थलों पर कांग्रेस का एक भी जनप्रतिनिधि नहीं पहुंचा।
हसदेव अरण्य में तो कोयला खदानों को रद्द करने का वादा राहुल गांधी ने 2018 के चुनाव से पहले किया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद भूपेश बघेल की सरकार ने इसी इलाक़े में नए खदानों की स्वीकृति जारी कर दी।
बस्तर के सिलगेर में पुलिस कैंप के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों पर फायरिंग में तीन लोगों की मौत के बाद कई महीनों तक आदिवासी प्रदर्शन करते रहे और उन्होंने सरकारी मुआवजा तक लेना स्वीकार नहीं किया और आंदोलन करते रहे।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."