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November 23, 2024 7:06 pm

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राष्ट्रीय प्रेस दिवस: कुकुरमुत्ते की तरह उग आए पत्रकारों की भीड़ में असल-नकल का बड़ा घालमेल

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अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट

झुन्नू लाल, एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त पत्रकार, ने जब लोक सम्पर्क विभाग से राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर एक फाइव स्टार होटल में आयोजित दोपहर भोज में शामिल होने का निमंत्रण प्राप्त किया, तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्हें अपने पत्रकार होने पर गर्व महसूस होने लगा। आखिरकार, उन्हें राज्य स्तर पर मान्यता प्राप्त है। यह अलग बात है कि उन्हें अपने संस्थान से महज़ नाममात्र का वेतन मिलता है। अगर उनकी पत्नी सरकारी नौकरी में न होतीं, तो घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता। लेकिन वह उन पत्रकारों में से नहीं हैं जो सचिवालय और लोक सम्पर्क विभाग के चक्कर काटते हैं या निजी संस्थानों से विज्ञापन जुटाने के लिए मशक्कत करते हैं। हां, सरकारी विभागों से स्वतः आ जाने वाले विज्ञापनों से उन्हें कुछ कमीशन जरूर मिल जाता है, जो उनकी थोड़ी बहुत आर्थिक मदद कर देता है।

जब उन्होंने इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए परिवहन व्यवस्था के बारे में जानने हेतु लोक सम्पर्क विभाग के पीआरओ को फोन किया, तो उन्हें बताया गया कि अगर वह चाहें तो उन्हें उनके घर से गाड़ी लेकर उठाया जा सकता है। यह सुनकर झुन्नू लाल पहले तो हंस पड़े, लेकिन तुरंत ही संजीदा होकर इस वाक्य का गहराई से अर्थ सोचने लगे। ‘घर से उठाने’ का मतलब क्या हो सकता है? आज के समय में, जहां सत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाने पर किसी भी पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता को उठाया जा सकता है, एफआईआर दर्ज की जा सकती है, या कभी-कभी तो उनकी हत्या भी करवाई जा सकती है—इस परिवेश में ‘उठाना’ शब्द बहुत अर्थपूर्ण हो गया है। उनके दिमाग में गौरी लंकेश, दाभोलकर, सिद्दीकी कप्पन, ज़ेवियर जैसे तमाम नाम कौंधने लगे, जो अपने सच की आवाज़ के लिए जान गंवा बैठे।

उन्होंने सोचा, “ऐसे माहौल में नेशनल प्रेस डे मनाने का क्या मतलब रह जाता है?” जब कलम पर इतनी बंदिशें लगाई जा चुकी हैं कि कुछ भी लिखने से पहले मीडिया हाउस का मार्केटिंग विभाग यह सुनिश्चित करता है कि कहीं वह खबर सरकार और विज्ञापनदाताओं के हितों के खिलाफ तो नहीं जा रही। कुछ साल पहले तक झुन्नू लाल किसी भी दिन एक नया स्कूप निकाल सकते थे। लेकिन आज, यदि वह एक ढंग की स्टोरी भी करना चाहें, तो अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अगर किसी तरह खबर छप भी जाती है, तो दूसरे ही दिन सरकारी सलाहकार और विभाग धमकाने के लिए तैयार रहते हैं। विज्ञापन तुरंत बंद कर दिए जाते हैं। अखबारों में खबरों का छपना रुक जाता है।

झुन्नू लाल के मन में सवाल उठने लगा, “क्या यह वही प्रेस है जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है? जब दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में निर्वाचित नेताओं द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता और उसके मौलिक अधिकारों पर हमला हो रहा है, तब क्या प्रेस केवल एक बिजनेस बनकर रह गई है?” अब प्रेस का मिशन समाज के हित की जगह अपने व्यापारिक हितों तक सीमित हो गया है। आम आदमी की आवाज़ उठाने वाला पत्रकारिता का पेशा अब सत्ता के तलवे चाटने में व्यस्त हो गया है। विरोध करने वाले पत्रकारों को तरह-तरह से डराया-धमकाया जाता है। उनके मन में विचार आया कि अब शायद प्रेस स्वतंत्रता की जगह सरकार के निर्देशों के अनुसार चलने वाला माध्यम बन गया है, जो यह बताती है कि सरकार के किस कदम की कैसे और कितनी प्रशंसा की जानी चाहिए।

उन्हें यह भी एहसास हुआ कि अब पत्रकारिता का ध्येय समाज के लिए नहीं बल्कि अपने निजी स्वार्थों के लिए काम करना हो गया है। अगर कोई पत्रकार सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए समझौते करता है, तो उसे कौन पूछेगा? और अगर वह कलम घिसना छोड़ दे, तो सरकारी आवास और अन्य सुविधाएं भी छिन जाएंगी। इसीलिए, अक्सर पत्रकार रिटायर होने के बाद भी कलम नहीं छोड़ते—उनकी लेखनी अब मिशन नहीं, बल्कि एक व्यवसाय बन चुकी है।

झुन्नू लाल को फिर से राष्ट्रीय प्रेस दिवस की याद आ गई। उन्होंने व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ सोचा, “यह कौन सा प्रेस दिवस है? वह जो दबाने का काम करता है या वह जो कपड़ों पर प्रेस करता है?” पिछले एक दशक में पत्रकारिता की स्वतंत्रता सुविधाओं और भय की भीड़ में कहीं खो गई है। वह अपने विचारों में खोए हुए थे कि तभी गेट के बाहर सरकारी गाड़ी आकर खड़ी हो गई। लेकिन अचानक, न जाने उनके मन में क्या विचार आया, उन्होंने फोन उठाकर आयोजन में शामिल होने में अपनी असमर्थता जताते हुए माफी मांग ली। गाड़ी अब किसी अन्य पत्रकार के घर के बाहर जाने के लिए तैयार खड़ी थी।

इस पूरी घटना ने झुन्नू लाल के भीतर एक गहरा प्रश्न छोड़ दिया—क्या प्रेस अब केवल नाम मात्र की स्वतंत्रता का प्रतीक बनकर रह गई है, या फिर यह किसी समय में सच का प्रहरी हुआ करती थी?

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