मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट
दरअसल विपक्ष में भी एक पक्ष था और दूसरा विपक्ष था। यह इंडी गठबन्धन बनते समय ही दिखाई दे रहा था। क्षेत्रीय दल कांग्रेस को खाकर अपना वजन बढ़ाना चाहते थे और कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को डकार कर अपना वजन बढ़ाना चाहती थी। यह ठीक है कि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर लगभग बिखर गई है।
यदि केवल सांसदों की संख्या के बल पर ही किसी दल का आकलन करना हो तो उसकी स्थिति भी लगभग किसी बड़े क्षेत्रीय दल के समान ही है। वैसे भी देश के विभिन्न राज्यों के क्षेत्रीय दल मोटे तौर पर कांग्रेस को हाशिए पर धकेल कर ही पैदा हुए हैं। लेकिन कांग्रेस के पक्ष में एक और तथ्य भी है।
बिखरी हुई कांग्रेस का मलबा लगभग सभी राज्यों में इधर-उधर बिखरा पड़ा है। कांग्रेस की इच्छा है कि किसी तरह इस मलबा से फिर से, कम से कम छोटा भवन पुन: बना लिया जाए। बाद में समय मिलने पर उसका विस्तार किया जा सकेगा। लेकिन अब बहुत सीमा तक इस ‘मलबा के मालिक’ के नाम के तौर पर क्षेत्रीय दलों का नाम चढ़ चुका है।
कांग्रेस समझ चुकी है कि वह लडक़र यह मलबा वापस नहीं ले सकती। उसने दूसरा रास्ता चुना कि किसी तरह क्षेत्रीय दलों से समझौता कर लिया जाए और उसी समझौते में से बहुत ही चतुराई से जितना मलबा वापस लिया जा सके, कम से कम उतना ले लिया जाए।
पैर रखने को जगह मिल जाए तो सिर छुपाने का जुगाड़ भी कर लिया जाएगा। लेकिन उसके लिए जो चतुर मिस्त्री/शिल्पी चाहिए, दुर्भाग्य से कांग्रेस के राज परिवार के पास इस समय वह नहीं है।
राहुल गान्धी को जबरदस्ती मिस्त्री का काम करने के लिए धकेला जा रहा है, लेकिन राहुल इसमें सफल हो नहीं रहे। जहां सीमेंट लगाना है, वहां ईंट लगा देते हैं, जहां लकड़ी का काम करना है, वहां शीशा लगाने लगते हैं। अब उनकी सहायता के लिए एक बुजुर्ग मल्लिकार्जुन को भी साथ लगाया गया है। वे बेचारे राहुल को लेकर गली गली घूम रहे हैं।
उधर पार्टी चिल्ला रही है, बाबा सिर पर चुनाव है, आप दोनों किस काम में लगे हुए होस लेकिन कोई सुने तब न। राहुल मस्त हैं। बंगाल में हलकान हो रहे हैं। बंगालियो, यदि इस बार भी न जागे तो इतिहास तुम्हें माफ नहीं करेगा।
क्षेत्रीय दलों का मसला दूसरी तरह का है। उनको कांग्रेस से भय नहीं है क्योंकि वे जानते हैं कि कांग्रेस अब उनके इलाके में दाखिल नहीं हो सकती। उनकी चिंता भाजपा से है। भाजपा ने जिस प्रकार उत्तरी भारत में जनता को लगभग साथ ले लिया है, उससे उन्हें अपने भविष्य की चिंता सताने लगी है। वे चाहते हैं कि उन्हें बचाने के लिए कांग्रेस उनकी मदद करे।
जाहिर है कि यदि कांग्रेस मदद करेगी तो बदले में भी कुछ चाहेगी ही। लेकिन क्षेत्रीय दल उसे वह ‘कुछ’ देने के लिए तैयार नहीं हैं। अलबत्ता यह जरूर कह रहे हैं कि अपने इलाके को छोड़ कर सारे हिंदुस्तान में वे कांग्रेस की मदद करने के लिए तैयार हैं। उदाहरण के लिए पंजाब में हम अकेले भी लड़ लेंगे, लेकिन मध्य प्रदेश में हम कांग्रेस से मिल कर लड़ेंगे।
इसका सीधा सा अर्थ यह है कि कांग्रेस अपने हिस्से की रोटी में से एक टुकड़ा आम आदमी पार्टी को दे दे, लेकिन पंजाब में उससे रोटी में हिस्सा न मांगे। इस प्रकार हर प्रदेश में टुकड़ा-टुकड़ा रोटी का इकट्ठा करके आम आदमी पार्टी पैन इंडिया पार्टी बनना चाहती है, लेकिन बदले में देने के लिए उसके पास कुछ है ही नहीं। जहां पंजाब में है, वहां उसकी इच्छा है कि कांग्रेस इस इलाके से दूर ही रहे। यही काम अखिलेश यादव कर रहे हैं। यही ममता कर रही है। साम्यवादियों के पास अब देने-लेने के लिए कुछ है ही नहीं। इसलिए वे कांग्रेस के शरीर में घुस कर अंदर से कब्जा करना चाहते हैं। शरीर बाहर से कांग्रेस का ही दिखाई देता रहे, लेकिन अन्दर आत्मा कम्युनिस्टों की कब्जा कर ले। वैसे वे यह प्रयोग पिछले लम्बे अरसे से कर रहे हैं। अबकी बार उनका अपना अस्तित्व ही इस प्रयोग के सफल होने पर निर्भर है। इस प्रयोग की सफलता के लिए वे वाममार्गी हरकतों पर उतर आए हैं। इसीलिए ममता बनर्जी ने हैरानी जाहिर करते हुए कहा था कि जब भी इंडी गठबंधन की मीटिंग होती है तो उसका नियंत्रण सीता राम येचुरी ही करते लगते हैं। इसी निराकार हालत को देख कर नीतीश बाबू ने एक और प्रयोग कर लेना चाहा। बिहार की राजनीति में वे धीरे-धीरे सिकुड़ते जा रहे थे। लालू का कुनबा और काम दोनों बढ़ते जा रहे थे। इस स्थिति में या तो लालू नीतीश बाबू को राजनीतिक तौर पर खा जाएंगे या फिर वे स्वत: ही प्रदेश की राजनीति के हाशिए पर चले जाएंगे। प्रदेश की राजनीति में वे चढ़ाव से उतार वाली स्थिति की ओर बढ़ रहे थे।
नीतीश बाबू संकट का उपयोग भी लाभदायक ढंग से करने में होशियार माने जाते हैं। उनको लगा यदि सभी विरोधी दलों को एक साथ बिठा लिया जाए और चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा आ जाए तो सम्भावनाओं के अपार द्वार खुल सकते हैं। भारतीय राजनीति में इस प्रकार की स्थिति पहले भी पैदा हो चुकी थी। उसी स्थिति में से देवेगौड़ा, चन्द्रशेखर, इन्द्र कुमार गुजराल, चरण सिंह तक प्रधानमंत्री बन गए थे। बस इस प्रकार की हालत में आपकी पार्टी के पास 25-30 सांसद होने चाहिए। इसका एक ही रास्ता नीतीश बाबू को दिखाई दिया। यदि नीतीश और लालू दोनों मिल जाएं तो बिहार में तीस-पैंतीस सीटों पर कब्जा कर सकते हैं। लालू को प्रधानमंत्री बनने की अब इस उम्र में सेहत के कारण तमन्ना नहीं है। लालू पुत्र बिहार के मुख्यमंत्री बन जाएं और नीतीश बाबू भारत के प्रधानमंत्री। लालू को भी यह सौदा बुरा नहीं लगा। नीतीश बाबू जब प्रधानमंत्री बनेंगे तब बनेंगे, लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश बाबू मुख्यमंत्री का ताज तेजस्वी के सिर पर रख कर दिल्ली चले जाएंगे। नीतीश बाबू भाजपा के एनडीए से निकल कर लालू के साथ चले गए और कांग्रेस व कम्युनिस्टों को साथ लेकर महागठबन्धन बना लिया। सभी विपक्षी दलों को एक साथ लाने के लिए दौड़-धूप भी शुरू कर दी। लालू भी अपने बच्चों सहित आगे-आगे चलने लगे। उनके दोनों हाथ घी में। नीतीश प्रधानमंत्री बनें या न बनें, उनका अपना बेटा तो मुख्यमंत्री बन ही रहा है। यह नीतीश और लालू की दौड़-धूप का नतीजा ही था कि पटना में भांति-भांति के राजनीतिक दल एक दरी पर बैठ कर सांझा फ्रंट बनाने की जुगतें लड़ाने लगे।
पटना में सभी को एक दरी पर लाकर बिठाने का श्रेय तो लालू-नीतीश को जाता है, लेकिन जब जमने का प्रश्न आया तो झगड़ा तय था। सामान सीमित था, खाने वाले ज्यादा थे। सभी अपनी अपनी थाली ढकने लगे और कस कर पकडऩे भी लगे। गणित के इस रहस्य की समझ तो सभी को आ गई थी कि जिसके पास 30-40 सांसद हो जाएंगे, उसके भाग्य में देवगौड़ा बनना हो सकता है। कांग्रेस को लगता था अपनी-अपनी थाली से हर कोई दो कौर निकाल कर भी उनकी थाली में डाल देगा तो उनकी हैसियत भी ऐसी हो जाएगी कि वे किसी मनमोहन सिंह को ढूंढने के काबिल हो जाएंगे। लेकिन दो कौर मांगने की कला भी तो आनी चाहिए। राहुल गान्धी आदेशात्मक लहजे में यह काम करने लगे। मुझे नहीं लगता मल्लिकार्जुन खडग़े की अहमियत पोस्टर से ज्यादा हो। अलबत्ता उनका काम राहुल गान्धी की स्वयं को ही नुकसान देने वाली उक्तियों की सकारात्मक व्याख्या कर देने भर तक सीमित हो गया। सबसे दयनीय स्थिति नीतीश बाबू की हुई। दरी पर बैठी मंडली ने उन पर फोकस किया नहीं और बंगाल में वे लालू के बच्चों के रहमो-करम पर सिमट गए। इसलिए उन्होंने इस चौथ में दरी से उठ जाना ही बेहतर समझा। ममता अभी तक बैठी तो दरी पर ही हैं, लेकिन वहीं बैठे-बैठे दूसरे दरीवानों को धमका रही हैं कि खबरदार किसी ने मेरी थाली की ओर आंख उठा कर भी देखा। मीडिया इसी को इंडी का बिखराव कहता है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."