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November 1, 2024 1:06 pm

बिलकिस बानो को सुप्रीम इंसाफ… 

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-मोहन द्विवेदी

बिलकिस बानो केस में सर्वोच्च अदालत के फैसले ने साबित कर दिया कि इंसाफ और कानून अभी जिंदा हैं। अपराधियों को मुक्त नहीं किया जा सकता। अपराधी और उनके सत्ताई आका कानून के सामने बौने हैं। अंतत: उन्हें कानून के सामने आत्म-समर्पण करना ही पड़ेगा। अपराधी और बलात्कारी लौट कर जेल में ही जाएंगे।

बिलकिस का माद्दा है कि वह अदालती लड़ाई लड़ती रही। उसके पास संसाधन भी पर्याप्त नहीं थे। वह मानसिक और भावनात्मक तौर पर ढह चुकी थी। 

दुष्कर्म गोधरा दंगों के दौर में किया गया था। बिलकिस तब गर्भवती थी। उसके बावजूद ‘मानवीय भेडिय़ों’ ने सामूहिक बलात्कार किया, उसकी तीन साला बेटी और अन्य परिजनों की हत्या कर दी। वे इनसान थे अथवा जानवर से बढक़र भी जानवर थे! कोई भी धर्म या संप्रदाय इतना जघन्य और बर्बर होने की सीख नहीं देता। 

बेशक बलात्कारी सजायाफ्ता तय किए गए और उन्हें 2008 में जेल में भी ठूंस दिया गया। बिलकिस और उसके परिवार का संघर्ष बेहद शोकाकुल और कठिन रहा। उनके लिए इंसाफ तब सिकुड़ता-सा लगा, जब 15 अगस्त, 2022 को सभी दरिंदों की रिहाई कर दी गई। वह गुजरात सरकार का निर्णय था। हालांकि इस संदर्भ में 1992 और 2014 के कानूनों के मद्देनजर वह रिहाई अवैध थी, क्योंकि वह गुजरात सरकार का अधिकार-क्षेत्र ही नहीं था। 

कानून की गलत व्याख्या ही नहीं की गई, बल्कि अदालत से भी तथ्य छिपाए गए और गलत जानकारी दी गई। यह गुजरात सरकार का न्यायिक अपराध था। क्या इनकी जवाबदेही तय नहीं की जानी चाहिए? 15 अगस्त देश का स्वतंत्रता दिवस होता है, लेकिन उसी दिन दरिंदगी वाले अपराधियों की न केवल सजा माफ की गई, बल्कि उन्हें सम्मानित रिहाई भी दी गई, मिष्ठान्न खिलाए गए और फूलों की माला पहनाई गई! यह सम्मान किसलिए दिया गया? 

क्या गोधरा के सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में एक धर्म-विशेष के लोगों द्वारा एक धर्म-विशेष की औरत की इज्जत तार-तार करने के लिए सम्मानित किया गया? 

न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां का कथन सटीक और मानवाधिकार के पक्ष में है कि कानून के राज को बचाना जरूरी है।

संविधान में दिए गए समता के मौलिक अधिकार का संरक्षण भी जरूरी है। यह न्यायिक निर्णय इन्हीं संदर्भों और संकल्पों में याद किया जाना चाहिए। 

बेशक गोधरा के दंगे गुजरात में भडक़े थे, लेकिन सजा महाराष्ट्र सरकार के अधिकार-क्षेत्र में दी गई थी, लिहाजा उसे ही ‘अभयदान’ की संवैधानिकता प्राप्त है। संयोग है कि अब गुजरात और महाराष्ट्र में भाजपा की ही सरकारें हैं। बेशक सर्वोच्च अदालत ने दो हफ्ते में जेल में आत्म-समर्पण का आदेश दिया है। अपराधियों की रिहाई को ‘अवैध’ करार देते हुए खारिज कर दिया है, लेकिन दुष्कर्मी अब भी पुनर्विचार याचिका 30 दिनों में दाखिल कर सकते हैं और महाराष्ट्र सरकार से ‘माफी’ की गुहार लगा सकते हैं। गुजरात से ट्रायल महाराष्ट्र को स्थानांतरित किया गया था, लिहाजा महाराष्ट्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। तब गुजरात में माहौल भी माकूल नहीं था। 

सवाल है कि सर्वोच्च अदालत की अन्य पीठ ने मई, 2022 में जो फैसला सुनाया था, उस पर गुजरात सरकार ने पुनर्विचार याचिका क्यों दाखिल नहीं की? उसी की गलत व्याख्या कर गुजरात सरकार ने दुष्कर्मी चेहरों को ‘मुक्ति’ दी थी। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च अदालत की भी कुछ गलती है। उसे जो जांचनुमा सवाल पूछने चाहिए थे, वे नहीं पूछे गए। 

एक सजायाफ्ता ने ही 2022 में याचिका लगाई थी। यदि तब कुछ सवाल किए होते, तो सुप्रीम अदालत को अपना ही एक अन्य फैसला बदलना नहीं पड़ता। सर्वोच्च अदालत के ही फैसले के बाद गुजरात सरकार ने दुष्कर्मियों की रिहाई का फैसला किया। बिलकिस की तरह हरेक नागरिक के मानवाधिकारों का सम्मान जरूर किया जाना चाहिए।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."