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November 5, 2024 7:31 pm

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एक गांव जहां शादी के लिए बूढ़ी हो जाती हैं लड़कियां…आखिर क्यों नहीं होती इनकी शादी ?

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पूनम कौशल की रिपोर्ट 

दिलनूर 26 साल की हैं। उनके 5 भाई हैं। किसी ने भी अब तक उनकी शादी के लिए कोई रिश्ता नहीं खोजा। दरअसल दिलनूर शेरशाहबादी समाज से आती हैं। इस समाज में शादी के लिए लड़की वालों के घर ‘पैगाम’ भेजने की परंपरा है।

अब तक दिलनूर के लिए ऐसा कोई पैगाम नहीं आया। बस इसी इंतजार में उनके भाई बैठे हैं कि कब कोई उनकी बहन से शादी करने की इच्छा जताएगा।

इस परंपरा के बारे में पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि आज के जमाने में कौन यह सब मानता है, लेकिन दिलनूर आपकी तरह नहीं सोचती। उन्हें इस प्रथा से कोई दिक्कत नहीं है।

वो कहती हैं, ‘मुझे यह परंपरा गलत नहीं लगती। अगर लड़की वाले खुद से रिश्ता मांगने जाते हैं तो लोग उन्हें गलत समझते हैं। लोग सोचते हैं कि लड़की ही चालू है, बदमाश है तभी इसके लिए लड़का खोज रहे हैं। अगर सही होती तो रिश्ता नहीं खोजना पड़ता।

लड़के वाले यह भी सोचते हैं कि इनके घर में कोई परेशानी होगी, तभी इन्हें हमारे दरवाजे तक आना पड़ा। वहीं अगर लड़के वाले खुद हमारे दरवाजे पर आएंगे तो कोई कुछ नहीं बोलेगा।’

दिलनूर ही नहीं, उनकी 40 साल की बहन आरजन बेगम की भी अब तक शादी नहीं हुई है। 30 साल की सफेदा खातून और 25 साल की उलमा खातून भी अब तक कुंवारी हैं।

एक तरफ नेपाल और दूसरी तरफ बांग्लादेश। बीच में है मुस्लिम बहुल आबादी वाला बिहार का जिला किशनगंज। बेरोजगारी और प्रवासन से जूझ रहे इस इलाके की एक और बड़ी समस्या है- अविवाहित बेटियां।

यहां के ग्रामीण इलाकों में शायद ही कोई ऐसा मोहल्ला होगा, जहां बेटियां शादी के इंतजार में न बैठी हों। एक उम्र बीत जाने के बाद ये बेटियां अपने ही परिवार के लिए बोझ बन गईं है। इनकी जिंदगी घर के एक कोने तक सिमट कर रह गई है।

किशनगंज बिहार के सीमांचल क्षेत्र में आता है। इस जिले की सीमा एक तरफ से पश्चिम बंगाल से लगी है और दूसरी तरफ से बांग्लादेश से सटी है। यही वजह है कि यहां के अधिकांश लोग बांग्ला भाषी हैं।

मैं बांस से बनी झुग्गी पर टिन की छत वाले एक घर में दाखिल होती हूं। आंगन में कुछ बकरियां बंधी हैं। 26 साल की दिलनूर की दुनिया यहीं तक सिमटी है।

 

वो बेहद शर्मीली हैं, बहुत कम बोलती हैं। मैंने जब अपने आने का कारण बताया तो शर्मा जाती हैं। मैं दोबारा उनसे बात करने की कोशिश करती हूं।

धीमी आवाज में कहती हैं- जब मैं बड़ी हो रही थी तो खुशी-खुशी मोहल्ले की शादियों में जाती थी। धीरे-धीरे मेरी सभी सहेलियों की शादी हो गई। सब अपने-अपने ससुराल चली गई। बस मैं ही अपनी शादी के लिए पैगाम का इंतजार करती रही। अब तक कोई रिश्ता नहीं आया।

अपने घर में दिलनूर सिर्फ अकेली कुंवारी नहीं है। उनकी बहन आरजन बेगम तो इसी साल 40 साल की हो गई हैं। अभी तक उनके लिए भी पैगाम नहीं आया है।

वो भी हमारी बातचीत के बीच आकर बैठ जाती हैं। मैं दोनों बहनों को गौर से देखती हूं। दिलनूर खुद को 26 और आरजन 40 साल की बताती हैं, लेकिन उनका चेहरा उम्र को नहीं छुपा पाता।

वहां मौजूद एक अधेड़ व्यक्ति बताते हैं कि इस इलाके में अगर कोई लड़की 25 साल की उम्र पार कर ले, तो ये मान लिया जाता है कि उसकी शादी की उम्र बीत गई है। दिलनूर को अभी पैगाम आने की कुछ उम्मीद है। इसलिए वो अपनी उम्र कुछ कम करके ही बताती हैं।

इन दोनों बहनों के माता-पिता को गुजरे 20 बरस हो गए हैं। वो अपने पीछे पांच बेटी और पांच बेटे छोड़ गए। तीन बेटियों की शादी हो गई है।

मैं बार-बार आरजन से सवाल करती हूं लेकिन वो खामोश रहती हैं। उनकी आंखें सब कुछ बयां कर रही हैं।

फिर मैं दिलनूर से पूछती हूं- तुम्हारा क्या खुश रहने का, शादी कर घर बसाने का मन नहीं करता है। वो सिर झुकाकर कहती हैं, ‘हम लोगों का कुछ भी मन नहीं करता। आपको नहीं पता हम जैसी लड़कियों का कोई मन नहीं होता।’

वो यह भी कहती है कि हम दोनों बहनों में ही कोई कमी होगी।

मैं उनसे पूछती हूं तुम्हें खुद में कमी क्यों लगती है। कहती हैं, ‘समाज ने खूबसूरती का जो पैमाना तय किया है उसमें हम दोनों खरी नहीं उतरती हैं। लोग बोलते हैं कि देखने में हम काली हैं। मेरी भाभी तक ताना मारती हैं कि कोई मर्द तुझ जैसी काली कलूटी से क्यों शादी करेगा, तेरे साथ तो कोई बकरा भी नहीं रहेगा।’

सलीके से दुपट्टा ओढ़े हुए दिलनूर अपने आप को संभालते हुए कहती हैं, ‘बड़ी बहन का सोचकर डर लगता है। अगर मेरा रिश्ता आया, शादी हो गई तो मेरी बड़ी बहन की देखभाल कौन करेगा। वो बहुत अकेली है। मैं उसका ध्यान रखती हूं, मुझे उससे बहुत लगाव है।’

किशनगंज के इस इलाके में अधिकतर लोग खेती पर निर्भर हैं। दिलनूर और आरजन अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बकरियां पालती हैं।

आरजन बेगम बाहर निकलती हैं तो तानें सुनने पड़ते हैं। मैं उनसे बात करने की दोबारा कोशिश करती हूं। मेरे हर सवाल का जवाब एक लंबी चुप्पी और बेबसी है।

वो बस इतना ही बोल पाती हैं, ‘रिश्ता नहीं आया तो शादी नहीं हुई।’

और थोड़ा कुरेदने पर वो फिर से दोहराती हैं, ‘मां नहीं है, बाबा नहीं है, रिश्ता नहीं आता है, तो शादी कैसे होगी। हर वक्त यही सोचते हैं कि कुछ दिन बाद क्या खाएंगे, बीमार पड़े तो कौन हमारा ध्यान रखेगा।’

मैं वहां से निकलने लगती हूं तो दोनों बहन यही कहती हैं, ‘आप भी अल्लाह से यही दुआ करना कि इस जिंदगी में तो हमें कुछ नहीं मिला। मरने के बाद जन्नत मिले।’

यहां से निकलने के बाद सिंघिया कोलामनी पंचायत की एक बस्ती में एक अधबने घर के बाहर 30 साल की सफेदा खातून और 25 साल की उलमा खातून से मेरी मुलाकात हुई।

सिर ढके हुए दोनों मेरे सामने चुपचाप खड़ी रहीं

मोइनुल भी दिलनूर की तरह इस नियम को सही बताते हैं। कहते हैं, ‘शेरशाहबादी जिंदगी भर घर में लड़की को बिठाकर रख लेंगे लेकिन रिश्ता लेकर नहीं जाएंगे।

अगर हम रिश्ता खोजने चले जाएंगे, तो लड़के वाले सोचेंगे कि इनके घर में बहनें ज्यादा है इसलिए बोझ समझकर दूसरे पर लादना चाहते हैं।’

जिस नियम की वजह से बहन की शादी नहीं हो रही उसे तोड़ने में क्या हिचक है? मेरे इस सवाल के जवाब में कहते हैं, ‘मैडम हम लोग गरीब आदमी हैं, हम मांग कर खा लेंगे, लेकिन कभी इस नियम को नहीं तोड़ेंगे। हमें भी इसी समाज में रहना है। हम गरीब लोगों के लिए इज्जत ही सब कुछ है।’

मैं सफेदा और उलमा से पूछती हूं कि शादी की उम्मीद है तो वो बस मुस्कुरा देती हैं।

मोइनुल कहते हैं, ‘हमने कुछ-कुछ लोगों को बोला है कि वो रिश्ता लेकर आएं, लेकिन गरीब की कोई मदद नहीं करता है। हमारे गांवों में ऐसा ही है। हर घर में लड़की बैठी है।’

शादी न होने की वजह सिर्फ रिश्ते का न आना ही नहीं है। गरीबी भी इसका एक बड़ा कारण है। यहां ‘अगुआ’ भी बीच में पड़कर रिश्ता करा देते हैं, लेकिन गरीब परिवारों के लिए कोई ‘अगुआ’ नहीं आता।

मोइनुल कहते हैं, ‘कोई अगुआ बात भी करता है तो सबसे पहले दहेज की बात करता है। बात पैसे से शुरू होती है तब रिश्ते पर आती है। जब पैसा ही नहीं है तो कोई रिश्ते की बात क्यों करेगा?’

सफेदा और उलमा पढ़ना चाहती थीं लेकिन स्कूल नहीं जा पाईं।

दोनों बांग्ला में कहती हैं, ‘पढ़-लिख लिए होते तो ऐसे बेबस न बैठे होते।’

मुझे बताया गया था कि लड़की के लिए रिश्ता न खोजने की परंपरा सिर्फ शेरशाहबादी मुसलमानों में ही नहीं है। गांवों में लोगों से मुलाकात करने के बाद पता चला कि सुरजापुरी मुसलमानों में भी ये आम बात है।

मैं एक ऐसे सुरजापुरी परिवार में गई, जहां 45 साल की एक बेटी की शादी नहीं हो पाई है। शर्म की वजह से वो कैमरे पर बात नहीं करतीं।

उनके भाई अहमद कहते हैं, ‘मेरी बहन हम चार भाइयों से बड़ी हैं। इनकी उम्र ज्यादा भले ही हो गई है, फिर भी हम इनके रिश्ते का इंतजार कर रहे हैं।’

अहमद के बड़े भाई नूर समद के विचार इस मामले में थोड़े अलग हैं। कहते हैं कि परिवारों पर बोझ बन रही ऐसी परंपराओं को अब तोड़ दिया जाना चाहिए।

नूर समद कहते हैं, ‘मेरी पांच बहनें हैं, चार की शादी हो गई है, एक की नहीं हो पाई है। ये देखने में कम खूबसूरत है और पढ़ी लिखी भी नहीं है। जो लड़कियां दिखने में जरा सी कमतर होती हैं उनके लिए रिश्ता ही नहीं आता। हम जैसे भाई भी सामाजिक शर्म की वजह से खोज नहीं पाते।’

समद इस सिस्टम में बदलाव आना चाहिए इस बात को स्वीकारते हैं। कहते हैं, ‘जैसे मेरी बहन अभी तक मायके में है, ऐसे किसी और लड़की को मायके में नहीं रहना चाहिए। हम इनकी शादी की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हमारा समाज ऐसा है कि अगर कोई खुद से कोशिश करता है तो उसे ताने सुनने पड़ते हैं।

इस बात की चिंता छोड़ कि दुनिया क्या कहेगी हमारे जैसे और जो परिवार हैं, जिनमें बेटियां घर में बैठी हैं, उन्हें खुद रिश्ता खोजने की पहल करनी चाहिए।’

समद को लगता है कि ये एक बहुत बड़ी समस्या है जिसके लिए समाज को आगे आना चाहिए। वो कहते हैं, ‘ऐसी लड़कियों के लिए समाज और सरकार को पहल करनी चाहिए। घर में कुंवारी बैठी लड़कियों वाले परिवारों के लिए सरकार की तरफ से भी कोई सहूलियत होनी चाहिए। बिहार सरकार और भारत सरकार को भी इस पर ध्यान देना चाहिए कि कोई लड़की कुंवारी नहीं रहे।’

वहीं स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता शफीक अहमद मानते हैं कि शादी न होने की वजह सिर्फ रिश्ता न आना ही नहीं है।

वो कहते हैं, ‘रंग, सुंदरता और गरीबी इन तीनों की वजह से कुछ लड़कियों से शादी नहीं हो पा रही है। यहां ऐसी लड़कियां बड़ी तादाद में हैं जिनकी उम्र चालीस पार कर गई हैं। एक ग्राम पंचायत में दस हजार के करीब आबादी होती है। हर पंचायत में कम से कम ऐसी 50-60 लड़कियां होंगी जिनकी शादी नहीं हो रही है।’

तहफीमुर्रहमान शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और किशनगंज में बोर्डिंग कॉन्वेंट स्कूल चलाते हैं। वो एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं।

वो कहते हैं, ‘पैगाम न आने की वजह से शादी न होना सिर्फ शेरशाहबादियों और सुरजापुरी समुदाय में नहीं। यहां के हिंदू समुदाय के बेटियों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।

यहां के सामुदायिक नेता ऐसे बिहेव करते हैं कि उन्हें इस समस्या के बारे में पता नहीं है। समाधान की बात तो दूर है, अभी तो हमने इस समस्या को स्वीकारा ही नहीं है।

हमें ये समझना होगा कि अगर अविवाहित महिलाओं की तादाद बढ़ेगी तो उनके उत्पीड़न की भी आशंका बढ़ जाएगी।’

लौटते हुए मेरी मुलाकात 15 साल के रहीम से होती है जो अपनी तीस साल की बहन की शादी को लेकर चिंतित हैं।

रहीम सुरजापुरी हैं। वे कहते हैं, ‘ये नियम अब बदलना चाहिए। पंचायत को हमारा साथ देना चाहिए। इंशाअल्लाह मैं अपनी बहन का रिश्ता खोजने की कोशिश करूंगा।’ (साभार)

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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