अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
मोदी पर गुस्से से आग बबूला प्रियंका गांधी सभी को मोदी के खिलाफ एकजुट होने की गुहार लगाती हैं। वही अपील जो अब तक नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे कांग्रेस से करते रहे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि राहुल के मसले पर अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी तक ने भाजपा के खिलाफ हमलावर स्टैंड लिया। इससे क्या माना जाए कि कांग्रेस से लड़कर राजनीति करने वाले ऐसे नेता थर्ड फ्रंट के बदले विपक्षी महागठबंधन की गठरी में घुस जाएंगे।
अभी कहना जल्दबाजी है लेकिन राहुल और अडानी ने एक मौका जरूर दिया है। हो सकता है ईडी, इनकम टैक्स से बड़ा डर फैल गया हो। ये सोचना स्वाभाविक है कि जब राहुल गांधी के साथ ऐसा हो सकता है तो किसी और के साथ भी हो ही सकता है। इसलिए सब एकसाथ हो जाएं। लेकिन एक साथ होने की कवायद में ही वीर सावरकर पर टिप्पणी कर राहुल गांधी फंस गए हैं। महाराष्ट्र में उनकी साझीदार शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे गुस्से में हैं।
सब मिलकर किसी एक के खिलाफ कब-कब आए। इसके लिए इतिहास देखना होगा। भाजपा तो केंद्र में 2014 से ताकतवर है। यानी नौ साल से। 90 का दशक गठबंधन काल था। उससे पहले तो कुछ वर्षों को छोड़ कांग्रेस महाताकतवर रही। बीजेपी को 303 सीटें पिछले इलेक्शन में मिली। कांग्रस तो 400 से ज्यादा सीटें पा चुकी है। फिर उसके खिलाफ गोलबंदी कब हुई। और क्या सारा विपक्ष साथ आया?
अगर देखें तो आजादी के बाद 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बन चुकी थी। लेकिन इसके दस साल बाद 1967 में जब विधानसभा और लोकसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस के खिलाफ पहली बार आज वाली विपक्षी एकता की धुन सुनाई दी। भारतीय क्रांति दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी , प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और जन संघ ने मिलकर मोर्चा बनाया।
बिहार, यूपी, राजस्थान, पंचाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, मद्रास और केरल में कांग्रेस हार गई। लोकसभा में कांग्रेस को इतिहास के बाद सबसे कम 284 सीटें मिलीं। यूपी में कम्युनिस्टों को मिलाकर संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी। चौधरी चरण सिंह सीएम बने। पर सरकार चली एक साल भी नहीं और फूट पड़ गई।
भाजपा जिस जन संघ से बनी थी उसे कांग्रेस विरोधी खेमे से आपत्ति नहीं रही। ये 1975 में इमरजेंसी से पहले गुजरात के ऐतिहासिक चुनाव परिणाम से भी साबित हुआ जिसमें कांग्रेस बुरी तरह हार गई। जनसंघ से भाजपा निकली तब भी कांग्रेस को हराने के लिए विपक्ष के साथ जाने में परहेज नहीं था। इसीलिए 1989 में भाजपा ने वीपी सिंह सरकार को सपोर्ट दिया था।
थर्ड फ्रंट से तौबा
जब भाजपा और कांग्रेस दोनों मजबूत होने लगे तब थर्ड फ्रंट पॉलिटिक्स सामने आती है। लेकिन बैसाखी फिर भी कांग्रेस की लगती है। 1996 में पहले एचडी देवगौड़ा और फिर 1997 में इंदर कुमार गुजराल के पीएम पद से इस्तीफे तक थर्ड फ्रंट ने सरकार चलाई लेकिन कांग्रेस की बैसाखी से। उसके बाद तो जनता ने तौबा कर लिया।
अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी। 1997 के बाद अब तक के 25 साल में सिर्फ तीन पीएम हुए हैं। इस बीच सीपीएम की अगुआई में 2009 में थर्ड फ्रंट का लिटमस टेस्ट हुआ जो बुरी तरह फेल साबित हुआ।
अब मोदी को हराने के लिए थर्ड फ्रंट का फॉरमेशन कितना कारगर होगा कहना मुश्किल है। हां, राहुल को हुई सजा ने इस बात की संभावना बढ़ा दी है कि कोई रीजनल पार्टी या थर्ड फ्रंट आपस में मिलकर नेता तय कर ले और कांग्रेस उसको सपोर्ट करे। लेकिन पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों की जमीनी हकीकत अलग है। यहां राज करने वाली पार्टी अगर कांग्रेस से लड़ती हुई नहीं दिखी तो उन्हें लेने के देने पड़ सकते हैं। अब मोदी के खिलाफ मुहिम के रीजनल फ्रंट के सामने चार चुनौतियां हैं।
गैर हिंदी पट्टी के राज्यों को लीजिए। डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, केसीआर की बीआरएस जैसी पार्टियां। ये भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के आधार पर खुद को बीजेपी के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व से लड़ने में ज्यादा सक्षम मानती हैं। ये सत्य भी है। लेकिन, अगर उन्हें भाजपा से लड़ना है तो राज्य की सीमा लांघनी होगी। और वहां उनके लिए कोई राजनीतिक जमीन नहीं है।
यूपी-बिहार का खेल
दस हिंदी राज्यों की 225 लोकसभा सीटों में लगभग 90 प्रतिशत सीटों पर भाजपा का कब्जा है। यूपी की 80 सीटों पर बुआ-बबुआ और यूपी के लड़के वाले सारे प्रयोग फेल हो चुके हैं। इसलिए अखिलेश यादव अब अपने मरहूम पिता मुलायम के रास्ते पर अकेले भाजपा से लड़ने के मूड में हैं। लेकिन उनको भी पता है कि मोदी को हराने के लिए कांग्रेस की जरूरत पड़ेगी।
कांग्रेस और भाजपा दोनों से लड़ने वाले दलों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला, राष्ट्रीय जनता दल और डीएमके जैसे दल जो कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन से कोई परहेज नहीं करते। दूसरा, आम आदमी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी जो कांग्रेस के साथ गठबंधन कर नहीं सकती और वैचारिक आधार पर बीजेपी के नजदीक भी दिखना नहीं चाहती। तीसरा, बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टी जिन्हें कांग्रेस या बीजेपी दोनों से न दोस्ती है न दुश्मनी।
कांग्रेस की कमजोरी
भाजपा के खिलाफ सीधे मुकाबले में कांग्रेस का रेकॉर्ड खराब होता जा रहा है। 2019 के चुनाव में 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई। दूसरी ओर ममता बनर्जी, स्टालिन, नवीन पटनायक जैसे नेताओं ने अपने बूते भाजपा के विजय रथ को रोक दिया।
अब इन चार सच्चाइयों के बीच रास्ता क्या है? मेरे हिसाब से ये रास्ता 1996 वाला ही है। जहां कांग्रेस से लड़ना है लड़ो और चुनाव के बाद दिल्ली आकर गुणा भाग करो। मुलायम सिंह यादव इसी रास्ते पर चलते थे। वो यूपी में कांग्रेस और भाजपा दोनों से लड़ते रहे। फिलहाल तो राहुल चुनाव लड़ नहीं सकते। इसलिए कांग्रेस और थर्ड फ्रंट वालों को टैक्टिकल अलायंस पर फोकस करना होगा।
डीएमके-आरजेडी जैसी पार्टी कांग्रेस के साथ लड़े और टीएमसी जैसी पार्टी राज्य में अपने बूते लड़े तभी बात बन सकती है। कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह का महागठबंधन 1967 या 1975 में हुआ वैसा मोदी के खिलाफ हो नहीं सकता।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."