दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
जिंदगी में आगे बढ़ने पर हर किसी के सामने मुसीबतें आती हैं। ये मुसीबतें या तो हमें तोड़ देती हैं या फिर हम सभी कठिनाईयों की दीवारें तोड़कर आगे बढ़ते हैं। यही लड़ाई तब और कठिन हो जाती है जब आपके सामने लैंगिक पहचान का संकट हो। समाज की स्वीकार्यता आपके लिए बहुत कम हो। एक टैबू आपका पीछा कर रहा हो, आपके पास संसाधनों का घोर संकट हो। ऐसी लड़ाई लड़ने वाले लोग देविका देवेंद्र एस मंगलामुखी जैसे होते हैं। जो ट्रांसजेंडर समुदाय में पैदा हुईं। बचपन में उनकी पहचान मर्द की थी लेकिन वो आत्मा से औरत थीं और नृत्य का हुनर लेकर पैदा हुई थीं। उन्होंने सारी मुसीबतों का सामना करते हुए खुद को निखारा और कई रिकॉर्ड अपने नाम किए। आइए उनसे ही उनकी कहानी को जानते हैं।
मेरी जिंदगी की कहानी मेरी मुट्ठी में दबे 14 रुपये से शुरू हुई थी। इन पैसों के अलावा भी घर से दूसरी चीज जो मैं साथ लाई थी वो थी नफरत। अपनों से मिली नफरत-साथ में तिरस्कार और बेदिली…मां की सवालिया आंखें हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर भी मानो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थीं। पिता का तमतमाया चेहरा बार-बार शरीर को हरारत दे रहा था, जैसे मैं किसी बुखार में तप रही होऊं।
मैं अपने घर से मर्द का जिस्म और औरत की आत्मा लेकर भागी थी। राजस्थान के धौलपुर इलाके में आर्मी के सूबेदार के घर मेरा जन्म हुआ था। घर में पहला बेटा होने पर माता-पिता की छाती चौड़ी हो गई थी। मेरा नाम रखा गया देवेंद्र। बचपन के वो सात-आठ साल मेरे लिए आज भी पूरे जीवन की कमाई हैं, जब मुझे सबका अनकंडीशनल प्यार मिला। पर, इस समाज में प्रेम की हजारों शर्ते हैं, उसी में शामिल है आपके वो होने की शर्त जो जमाना आपमें देखना चाहता है।
मैं एक फौजी का बेटा था तो जाहिर है मुझे घर में सभी एक ताकतवर मर्द के तौर पर बढ़ते देखना चाहते थे। लेकिन, हां लेकिन…यही एक लेकिन जो मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट है, मुझे मिले तमाम दर्द-तकलीफों की वजह है। मैं जिस्म से मर्द था लेकिन असल में मैं गलत जिस्म में था। मैं भीतर से लड़की था। मैं ये बात किसी को मनवाने की न हैसियत में था, न मुझमें नौ साल की उम्र में ऐसी कोई समझ आई थी, न ही मुझे ऐसा कोई पहलू ही पता था।
नौ साल का मैं, जेंडर पहचान से बेखबर बस बच्चों की खूबसूरत दुनिया में आसान जिंदगी जी रहा था लेकिन…एक और लेकिन मेरी जिंदगी में आ गया। इस खूबसूरत जिंदगी को मेरे एक करीबी रिश्तेदार ने दर्द की चादर ओढ़ा दी, जो अक्सर आज भी बुरे सपने की तरह मेरा पीछा करती है। वो दिन याद करके मेरा जिस्म पसीने से तरबतर हो जाता है और मेरी रूह छलनी हो जाती है। नौ साल की उम्र में मेरे करीबी रिश्तेदार ने जो कि 22-23 साल का था, मेरे साथ दुष्कर्म किया। उसने मुझे अकेला पाकर ऐसे दबोच लिया जैसे कोई भेड़िया अपने जबड़े में अपने शिकार को कस लेता है। एक दर्द की टीस मेरे जिस्म से उठी और मेरे जेहन को ‘पंगु’ कर दिया। जब मैंने कहा कि घर पर शिकायत करेंगे तो उसने कहा कि अगर ये बात मैंने घर में किसी को बताई तो वो मेरे माता-पिता को जान से मार देगा। मैं एक छोटा-सा बच्चा, इस धमकी के बाद पूरी तरह सहम गया। फिर भी मेरी मां ने मेरी आंखों में दर्द को पढ़ लिया। वो बहुत पूछती रहीं, लेकिन मैंने डर के मारे कुछ बताया नहीं।
सब बदल रहा था…
अब धीरे-धीरे ये दर्द कम हो रहा था पर डर पहले से ज्यादा बढ़ रहा था। साथ में बढ़ रहा था एक अजीब भ्रम। ये भ्रम अपनी पहचान को लेकर पनप रहा था। 12 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मेरे शरीर में हल्के बदलाव आ रहे थे। टीनेज में पहुंचने पर माता-पिता को मुझमें आर्मी पर्सनल का बड़ा बेटा दिख रहा था जो अपने छोटे भाई की जिम्मेदारी एक मर्द की तरह लेने को तैयार हो रहा था। वहीं मेरे भीतर कहीं छुपी एक लड़की थी जो कि अब जवान हो रही थी। बहुत सौम्य, सरल और प्यारी लड़की जो मर्दों के समाज में अपनी अस्मत बचाने के लिए सेफ्टी जोन में रहना पसंद कर रही थी। मुझे लड़कों के कपड़े अब बिल्कुल पसंद नहीं आते। जब मैं 14 साल की हुई तो मेरे हाव-भाव, चाल-ढाल, खान-पान सब लड़कियों का था। तब मैं नौवीं कक्षा में थी और प्रभाकर का डिप्लोमा भी कर रही थी। मैं एक कथक डांसर बनना चाहती थी, पर हर सपने पर एक घुटन तारी थी। अपने जेंडर को लेकर मेरी घुटन अब बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। बहुत हिम्मत जुटाकर एक रात मैंने मम्मी से कहा कि हमको ये कपड़े नहीं पहनने। हमसे ऐसे नहीं रहा जाता। मैं लड़का बनकर अब नहीं रह सकती। इस पर मां अजीब से क्रोध, घृणा और बेइज्जती के भाव से भर गईं।
उन्होंने कहा कि देखो, हमलोग ब्राह्मण परिवार के लोग हैं, आर्थोडॉक्स हैं। तुमको परिवार के नियम-कायदे मानने होंगे। नियम-कायदे मानोगे तो ठीक, नहीं मानोगे तो हम तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे। तुम यहां से जा सकते हो।
मैं उस रात बहुत रोई। रो-रोकर मेरा बुरा हाल हो गया। जब अपनी गुल्लक देखी तो उसमें महज 14 रुपये थे, लेकिन मेरे सामने अब कोई रास्ता नहीं बचा था। इसलिए उसी रात मैं घर से भाग गई। वहां से ट्रेन में बिना टिकट दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुंच गई। वहां स्टेशन पर अनजान लोगों को देखकर मन में हजार तरह के ख्याल आ रहे थे। बहुत डर लग रहा था। इस तरह पहला दिन रोने धोने में गया। फिर दूसरा दिन भी ऐसे ही भूखे प्यासे गुजर गया। पहले दिन बन मक्खन और चाय में वो 14 रुपये खर्च हो गए थे। लेकिन तीसरा दिन मेरे लिए नई उम्मीद लेकर आया। मैं स्टेशन पर बैठकर रो रही थी तभी मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा। देखा तो कुछ लोग वहां खड़े थे। वो दिल्ली के किन्नर समाज के लोग थे।
वहां से मेरी जर्नी किन्नर समाज में शुरू हो गई। मैंने भीख मांगना शुरू किया। मैं भीख मांगते-मांगते बड़ी हुई। मेरे बाल वहीं से बढ़े। साथ ही दुनिया को जानने का नजरिया वहीं से मिला। लेकिन कुछ दिनों में मुझे ऐसा लगा कि भिक्षावृत्ति और इन सबके जूठे बर्तन धो-धोकर मेरा कैसे गुजारा हो रहा है। इस नरक जिंदगी से अच्छा है, यहां से चली जाऊं। खैर जाती भी तो कहां, वहां से निकलकर पटपड़गंज दिल्ली की लालबत्ती यानी सिग्नल पर फिर मांगना शुरू किया। यहां मेरे मांगने का अंदाज अलग था। मैं यहां स्कूल में सीखे कथक की प्रैक्टिस करती थी और दर्शक लोग मुझे पैसे देकर चले जाते थे।
इसी दौरान एक पवित्र और खास दिन आया। इसका जिक्र करते हुए भी मेरी आंखें भर आती हैं। जब मैं एक दिन सिग्नल पर मांग रही थी, उसी दौरान मेरी पहली मुलाकात उस शख्सियत से हुई जो आगे चलकर मेरी मार्गदर्शक, मेरी गुरु मां बनीं। ये थीं लखनऊ घराने की जानी-मानी कथक नृत्यांगना और गुरु लच्छू महाराज की शिष्या कपिला राज शर्मा। वो उस समय लखनऊ कथक केंद्र की डायरेक्टर थीं। उन्होंने मुझे सिग्नल पर नाचते देखा तो पास बुलाया, बातचीत की और फिर अपना कार्ड हाथ में देते हुए कहा कि तुम अच्छा डांस कर सकती हो, अब मेरे पास आकर सीखो। मैं तुम्हें सिखाऊंगी।
मैं उस समय 15-16 साल की थी। मुझमें जरा-भी अक्ल नहीं थी। मैंने उनका कार्ड ले लिया और हां कह दिया। आगे कुछ नहीं सोचा और वहीं मांगती रही। खैर, दिन पार हुए, साल पार हुआ, तब घर में मम्मी से कभी-कभार थोड़ी बात हो जाती थी। उन्हें मेरे हाल का ज्यादा पता भी नहीं था। एक दिन मां ने मुझे फोन करके बताया कि तुम्हारे पापा इस दुनिया में नहीं रहे। मुझे बहुत दुख हुआ और मैं अपने घर पहुंची। वहां मैं लड़के के भेष में ही गई थी लेकिन मेरे बाल बड़े थे। वहां दूसरे दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने मुझे बहुत दुख पहुंचाया। चुपके से मेरे बाल काट दिए गए। साथ ही परिवार के लोगों ने फिर बुरा-भला सुनाया। मुझे ये बात बहुत बुरी लगी और मैंने कुछ बनने की ठान ली।
वहां से सीधे मैंने लखनऊ के लिए ट्रेन पकड़ी और गुरु मां के पास आ गई। वहां लखनऊ घराने की पद्धति के साथ नृत्य सीखना शुरू कर दिया। लेकिन मेरी बदकिस्मती और जमाने की बेरहमी ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। यहां मेरे साथ सीखने वाले मेरे गुरु भाई और गुरु बहनें मुझे कतई पसंद नहीं करते थे। वो मुझसे बुरा व्यहार करते, बुली करते और यहां तक कि एक दिन सीढ़ियों पर सरसों का तेल गिरा दिया ताकि मैं गिर जाऊं और पैर टूट जाए। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। एक दिन तो उन लोगों ने गुरु मां से सीधे सीधे कह दिया कि हम लोगों के साथ आप इस हिजड़े को नहीं सिखा सकतीं। ये किन्नर है, ये हमारे साथ डांस नहीं सीखेगा।
फिर वही हुआ जो समाज में होता है। ट्रांस जेंडर समुदाय पर सहानुभूति दिखाने वाले मिल जाएंगे लेकिन कोई साथ में पढ़ने-लिखने सीखने आ जाए तो ये उसका साथ नहीं देते। खैर मेरी जिंदगी अब यू टर्न ले ही चुकी थी। मैंने लखनऊ में आरजू फाउंडेशन एनजीओ ज्वाइन किया और पढ़ाई करने की ठान ली। मैंने खुद को समझाया कि देख देविका जीवन में कुछ करना है तो पढ़ाई करनी पड़ेगी और बहुत मेहनत से पढ़ना होगा। इसी प्रण के साथ दिल्ली आई और पटपड़गंज के फ्लोरेंस नाइटेंगल स्कूल में नाइट स्कूल ज्वाइन कर लिया। साथ ही डॉक्टर संजय गुप्ता एंडोक्रेनोलॉजिस्ट की सलाह से हार्मोन की दवा लेनी शुरू कर दी थी जो मुझे भीतर और बाहर दोनों रूप से बदल रही थीं। यहां दिन में मैं भीख मांगती और रात में पढ़ाई करती। यहां से मैंने दसवीं और फिर बारहवीं की पढ़ाई की। इसके बाद राजस्थान यूनिवर्सिटी से प्राइवेट ग्रेजुएशन किया।
ग्रेजुएशन के बाद मैं वापस लखनऊ अपनी गुरु के पास आ गई। मैं उनकी रसोई का काम करने लगी। उनके लिए खाना बनाती, काम करती, सेवा करती जिससे मुझे भी दो रोटी पेट भरने को मिल जाती। यहां गुरु से मैंने कथक को गंभीरता से सीखा। और मैं लखनऊ घराने की एक कथक नृत्यांगना बन चुकी थी। कुछ कथक के प्रोग्राम्स मुझे मिलने लगे थे और साथ ही एनजीओ के काम में भी मुझे इतना पैसा मिलने लगा था कि मैंने अपनी पढ़ाई आगे भी जारी रखी।
…और बनने लगे रिकॉर्ड
कहते हैं इंसान अगर ठान ले तो लोहे की दीवारों को भी पिघला सकता है। मैंने भी मन ही मन ठान लिया था सो मेरे नाम के साथ तमाम रिकॉर्ड बनने लगे। पहला रिकॉर्ड बना दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस से पोस्ट डॉक्टरेट इन इंग्लि्श लिट्रेचर करने वाली पहली ट्रांसजेंडर होने का। मैंने मिरांडा हाउस से पोस्ट डॉक्टरेट किया, इसके बाद मैं राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई मंचों पर जाकर अपनी नाट्य प्रस्तुति देने लगी। मेरे काम को पहचान मिली और मैं राष्ट्रीय सम्मान- राष्ट्रीय मीरा सम्मान पाने वाली पहली ट्रांसजेंडर कथक नृत्यांगना बनी। इसके बाद 2014 में मैंने अपना ऑपरेशन कराया और पूरी तरह फीमेल बन गई। आज मेरे पहचान पत्र से लेकर आधार कार्ड और पासपोर्ट हर डॉक्यूमेंट में मैं फीमेल हूं। मेरा पूरा नाम देविका देवेंद्र एस मंगलामुखी है।
पैतृक संपत्ति पर हक के लिए की लड़ाई
मैंने शिक्षा पाकर सीखा कि इंसान को अपने हक और सम्मान के लिए हर लड़ाई लड़नी चाहिए। इसीलिए मैंने अपनी पैतृक संपत्ति पर मालिकाना हक के लिए परिवार से मुकदमा लड़ा, फिर मुझे मेरा हक मिला। साथ ही मेरा ये मामला नजीर बना और राजस्थान कोर्ट के निर्देश पर किसी भी ट्रांसजेंडर को उसकी पैतृक सम्पत्ति से बेदखल न करने का कानून बना। भले ही मैं अपने पैतृक घर पर ही अब रह रही हूं, लेकिन परिवार ने मुझे आज भी नहीं अपनाया है, वो लोग मुझसे नफरत करते हैं। मेरी पहचान के कारण उन्होंने मुझे कभी नहीं अपनाया हालांकि आसपास के लोगों ने मुझे अपना मान लिया है। वो मुझे एक महिला के तौर एक्सेप्ट कर चुके हैं। अब मैं भविष्य में ट्रांसजेंडर बच्चों के लिए कथक केंद्र खोलना चाहती हूं ताकि उन्हें मेरी तरह संघर्ष भरी जिंदगी न जीनी पड़े।
कहां-कहां है नाम
मैं आईसीसीआर की इम्पैनल्ड कलाकार हूं, साथ ही दूरदर्शन की भी लिस्टेड कलाकार हूं। मैं उत्तर प्रदेश ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड में स्टेट एक्जीक्यूटिव मेंबर एडवाइजर हूं। मैंने न सिर्फ खजुराहो महोत्सव, स्वप्न सुंदरी महोत्सव, ताज महोत्सव, मैसूर दशहरा उत्सव आदि में शिरकत की बल्कि विदेशों में भी कई बार प्रस्तुतियां दे चुकी हूं। मैं समानता का सम्मान नाम से एनजीओ भी चला रही हूं जिसके जरिये ट्रांसजेंडर के अधिकारों के लिए लड़ रही हूं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."