रिफत अज़ीज़ की रिपोर्ट
झील सी गहरी आंखें, तीखे नैन-नक्श और चेहरे पर गजब का नूर। खूबसूरती ऐसी कि इन्हें हिंदी सिनेमा की गॉडेस ऑफ मून कहा जाता था। ये थीं वनमाला देवी। असली नाम था सुशीला पंवार। खुद इनकी जिंदगी किसी फिल्म से कम नहीं थी। बचपन जितना ऐश-ओ-आराम से भरा था, जवानी उतनी ही चुनौतियों वाली रही। और, चुनौती कोई बाहरी नहीं थी, खुद इनके पिता ही थे।
बीते जमाने की सफलतम और बेहद खूबसूरत अभिनेत्री वनमाला को लेकर अगर आज की पीढ़ी से पूछा जाए तो शायद ही कोई उनके बारे में कुछ बता पाए। लेकिन मध्य प्रदेश और मालवा वासियों को ये जानकर हैरानी और गर्व होगा कि उज्जैन में जन्मी सुशीला पवार ने एक जमाने में फिल्मी परदे पर अपनी ऐसी धाक जमाई थी कि उस जमाने के पृथ्वीराज कपूर से लेकर सोहराब मोदी, मोतीलाल जैसे दिग्गज अभिनेता उनके साथ काम करना अपना सौभाग्य समझते थे। वी शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकार ने उनको लेकर मराठी और हिंदी की सफलतम फिल्में बनाई।
सिंधिया राज्य के समय उज्जैन के कलेक्टर रहे बापूराव पवार के घर जन्मी वनमाला के बचपन के कुछ दिन तो उज्जैन में बीते फिर उनके पिता का स्थानांतरण ग्वालियर होने के बाद उनकी शिक्षा ग्वालियर में हुई। इनकी माताजी का नाम सीता देवी था। उनकी चार बहनें और दो भाई थे। बापूराव पवार सिंधिया राज्य के एक रौबदार अधिकारी थे और उन्हें सिंधिया राज्य की ओर से कर्नल व राव बहादुर की उपाधि दी गई थी। उनके ही परिवार के आनंद राव पवार 2006 में मध्य प्रदेश में पुलिस महानिदेशक बने और इसी पद से सेवा निवृत्त हुए। श्री आनंद राव पवार वनमाला के भतीजे हैं।
वे जीवन के हर क्षण में अपने शहर उज्जैन को गर्व से याद करती रही। वनमाला उस उज्जैन में अपना जन्म होना सौभाग्य मानती थी जिस अवंतिका नगरी में कालिदास जैसा महान कवि हुआ। उन्होंने अपना नाम सुशीला देवी से बदलकर वनमाला रख लिया था और वे एक समर्थ, सशक्त, लोकप्रियता की तमाम उँचाईयाँ छूने के बाद साध्वी बनकर वृंदावन चली गई। फिर उन्होंने अपने अँतिम दिन ग्वालियर में बिताए। लम्बे समय तक कैंसर से पीड़ित वनमाला का निधन 92 वर्ष की आयु में 29 मई, 2007 को ग्वालियर में हो गया। 29 मई, 1971 को उनके प्रिय अभिनेता पृथ्वीराज कपूर का भी निधन हुआ था। जीवन के अंतिम समय तक वे कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं और नाथद्वारा के श्रीनाथजी की प्रतिमा पर लगने वाले चंदन को सूँघकर अपने दिन की शुरुआत करती थी।
वनमाला के अभिनय से लेकर उनके अभिनेत्री बनने के कई किस्से हैं। ये वह दौर था जब भारतीय फिल्मों में लड़कियों का काम करना हेय दृष्टि से देखा जता था। उस दौर में खूबसूरती के तमाम आयामों के शिखर को छूने वाली वनमाला एक ताजी हवा के झोंके की तरह चमकदार फिल्मी परदे पर उभरी। दर्शकों को हँसाती रुलाती और गुदगुदाती भी रही और झोकझोरते हुए अपने अभिनय से अपना दीवाना बनाती रही।
वनमाला देवी अपने जमाने की सबसे पढ़ी-लिखी एक्ट्रेस थीं, जिन्होंने डबल एम.ए. किया था। पिता ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के करीबी थे तो इन्हें वैसी सुविधाएं बचपन से मिलीं जैसी रॉयल फैमिलीज में होती हैं। पढ़-लिखकर ये फिल्मों में आ गईं और यहीं से जिंदगी पलटी। पिता सख्त मिजाज थे, वे खिलाफ हो गए और परिवार से बेदखल कर दिया। इनकी फिल्मों को ग्वालियर में बैन कर दिया गया और इनके वहां आने पर भी रोक लगा दी गई। पिता को इनसे इतनी नफरत हो गई कि जब उन्होंने पहली बार वनमाला को थिएटर के पर्दे पर देखा तो गोली चला दी। पिता के लिए इन्होंने फिल्में छोड़ दीं, लेकिन दुनियादारी में नहीं लौटीं।
आज “जिंदगी एक सफर” में उसी वनमाला की कहानी जिसका बचपन महलों में गुजरा, जवानी फिल्मों में, फिर बाकी जिंदगी वृंदावन में….
23 मई 1915 को सुशीला देवी का जन्म उज्जैन, मध्यप्रदेश में 4 बहनों, दो भाई के बीच हुआ, जो बाद में वनमाला देवी नाम से पहचानी गईं। इनके पिता कर्नल रायबहादुर बापूराव आनंदराव पंवार ब्रिटिश हुकूमत में मालवा जिले और शिवपुरी के कलेक्टर थे। पिता का ट्रांसफर हुआ तो पूरा परिवार उज्जैन से ग्वालियर आ गया। ग्वालियर की रॉयल फैमिली के वे करीबी थे, जिंदगी तमाम ऐशो-आराम से भरी हुई थी।
पिता ने वनमाला का दाखिला शहर के नामी सरदार डॉटर्स स्कूल (दी सिंधिया स्कूल) में करवाया, जहां उन्होंने घुड़सवारी, स्विमिंग, शूटिंग, पोलो और फेंसिंग की ट्रेनिंग भी ली। दरअसल, ये शहर का सबसे बड़ा स्कूल था, जहां ज्यादातर रॉयल फैमिली के बच्चे ही पढ़ते थे। इनके पिता आजादी के बाद ग्वालियर के राजा स्व. माधवराव सिंधिया के बनाए ट्रस्ट के मेंबर भी रहे।
मुंबई जाकर एम.ए. में एडमिशन ले लिया। 1935 में उनकी मां सीता देवी का निधन हुआ तो वो पढ़ाई बीच में ही छोड़कर ग्वालियर वापस आ गईं। घर में मां की कमी खलने लगी तो वनमाला अपनी मौसी के पास पुणे चली गईं।
उनकी मौसी पुणे के अगरकर हाई स्कूल की प्रिंसिपल थीं, जिसे मराठी थिएटर के नामी आर्टिस्ट आचार्य आत्रे ने शुरू किया था। समय काटने के लिए वनमाला भी इसी स्कूल में पढ़ाने लगीं।
मराठी आर्टिस्ट आचार्य आत्रे के स्कूल में उस जमाने में सिनेमा से जुड़ी कई हस्तियों का आना-जाना था। गहरी झील सी आंखों वाली वनमाला की खूबसूरती के चर्चे पहले ही पूरे कॉलेज में थे। दिग्गज फिल्ममेकर बाबूराव पेंढारकर, मास्टर विनायक और वी. शांताराम भी अक्सर स्कूल आते रहते थे। इन सभी ने स्कूल में कभी ना कभी वनमाला को देखा था।
कुछ फिल्ममेकर्स ने उन्हें अपना असिस्टेंट भी बनाना चाहा, लेकिन वनमाला हर बार इनकार करती रहीं। दरअसल, उस समय महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। वहीं ऊंचे घराने की लड़कियों के लिए पाबंदियां और सख्त थीं।
एक दिन सभी फिल्ममेकर्स ने मिलकर उन्हें समझाया कि वे फिल्मी दुनिया में खूब नाम कमा सकती हैं। वनमाला मान गईं। 1936 में उन्होंने मराठी फिल्म लपांडव साइन कर ली।
पहली फिल्म लपांडव के प्रीमियर में हिंदी सिनेमा के नामी फिल्ममेकर सोहराब मोदी की नजर इन पर पड़ी। वो सुंदरता से ऐसा प्रभावित हुए कि उन्हें अपनी हीरोइन बनाने का फैसला कर लिया।
दरअसल, उस समय सोहराब अपनी फिल्म सिकंदर के लिए हीरोइन की तलाश में थे, जो इस प्रीमियर में वनमाला पर खत्म हो गई। सिकंदर से वनमाला हिंदी सिनेमा में आईं। इस हिस्टॉरिकल फिल्म में रुखसाना बनीं वनमाला के साथ पृथ्वीराज कपूर ने एलेक्जेंडर और सोहराब मोदी ने पोरस की अहम भूमिका निभाई।
फिल्म रिलीज हुई और वनमाला देशभर में रातों-रात स्टार बन गईं। पृथ्वीराज और सोहराब जैसे दिग्गज कलाकार होने के बावजूद दर्शकों में सिर्फ वनमाला की खूबसूरती और अभिनय के चर्चे थे।
ब्रिटिश कैन्टोन्मेंट एरिया में लगा पहली फिल्म पर बैन
जब 1941 में फिल्म सिकंदर की रिलीज से पहले ही दूसरा विश्व युद्ध छिड़ चुका था, वहीं महात्मा गांधी अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन की तैयारी कर रहे थे। जिससे राजनीतिक तनाव की स्थिति बनी हुई थी।
फिल्म देशप्रेम पर थी, जिसमें ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई सीन थे। पहले तो बॉम्बे सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पास कर दिया, फिर इसे कई क्षेत्रों में बैन कर दिया गया। सालों तक फिल्म की चर्चा रही और आजादी के बाद 1961 में इसे दोबारा रिलीज किया गया।
पहली फिल्म देखते ही पिता ने पर्दे पर चला दी गोलियां
वनमाला के पिता रायबहादुर बापूराव बेहद सख्त मिजाज थे। ऊंचा घराना, जहां की महिलाएं तो दूर, पुरुष भी कभी फिल्मों का हिस्सा नहीं रहे। जब सिकंदर फिल्म रिलीज हुई उसी समय वनमाला के पिता ग्वालियर के रीगल सिनेमा में फिल्म देखने पहुंचे।
जैसे ही उन्होंने अपनी बेटी को पर्दे पर देखा तो बिना कुछ सोचे ही जेब में रखी पिस्तौल निकाली और स्क्रीन पर दिख रही बेटी की तरफ निशाना कर दाग दिया। पर्दा फट गया और सिनेमाघर में भगदड़ मच गई।
1942 तक भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो चुका था। अंग्रेज, इस आंदोलन का हिस्सा बने लोगों को रोकने के लिए जेल में बंद करते तो कभी सीधे गोली मार देते। इस आंदोलन में अरुणा आसिफ अली, अच्युत पटवर्धन और आचार्य नरेंद्र भी भागीदार थे। जब ब्रिटिश हुकूमत की पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने निकली तो वनमाला ने उन्हें अपने घर पर पनाह दी और कई दिनों तक पुलिस से छुपाकर रखा।
फिल्मों में आईं तो अपने परिवार से मिलने शहर जाने पर लगा प्रतिबंध
जैसे-जैसे वनमाला फिल्मों में कामयाब होने लगीं तो ग्वालियर में उनका खूब विरोध किया गया। इस विरोध में उनके पिता और शाही परिवार के कई लोग जुड़े थे। वनमाला अपने परिवार को मनाने के लिए उनसे मिलना चाहती थीं, लेकिन नाराज पिता ने शहर में दाखिल होने पर पाबंदी लगा दी।
परिवार वालों ने उनसे सारे रिश्ते तोड़ लिए और मिलना-जुलना भी पूरी तरह बंद कर दिया। गुस्सा इस कदर था कि शाही परिवार और सरकारी जोर से बेटी वनमाला की सभी फिल्में ग्वालियर में बैन करवा दी गईं। ना कोई फिल्म देखता, ना ही परिवार की तरफ उंगलियां उठतीं।
जब घरवालों से सारे रिश्ते टूट गए तो वनमाला से रहा नहीं गया। पिता बापूराव सुलह को तैयार नहीं थे। जब मामले की चर्चा शहर भर में बढ़ने लगी तो बापूराव के करीबी दोस्त और ग्वालियर के राजपरिवार ने उन्हें समझाया। गुजरात के स्टेट ऑफ सचिन के नवाब हैदर अली भी वनमाला और उनके पिता के बीच सुलह कराने के पक्ष में थे।
जैसे-तैसे वनमाला ने पिता से संपर्क किया और घर वापस आने की बात कही। नामी लोगों के दबाव में पिता राजी तो हुए, लेकिन बड़ी शर्त रख दी। शर्त थी, अगर घर वापस आना है तो फिल्में छोड़नी पड़ेंगीं और फिल्मी दुनिया से जुड़े हर व्यक्ति से संबंध तोड़ना होगा।
जब परिवार की तरफ से दबाव बढ़ने लगा तो वनमाला को आखिरकार झुकना ही पड़ा। बुलंदियों, कई बड़ी फिल्में और लाखों चाहने वालों को छोड़कर वनमाला ने पिता और परिवार को चुना। इंडस्ट्री छोड़ दी और घर लौट आईं।
आखिरी फिल्म देखे बिना छोड़ दिया मुंबई शहर
1953 की फिल्म श्यामची आई उनकी आखिरी मराठी फिल्म और अंगारे उनकी आखिरी हिंदी फिल्म रही। फिल्म अंगारे साल 1954 में रिलीज हुई, लेकिन इसकी रिलीज से पहले ही वनमाला को सपनों का शहर मुंबई छोड़कर घरवालों के पास ग्वालियर आना पड़ा। ग्वालियर में इनकी फिल्में बैन होने के कारण वनमाला ने अपनी आखिरी फिल्म देखी ही नहीं।
पहला नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली श्यामची आई फिल्म 20वीं शताब्दी की सबसे लोकप्रिय मराठी नॉवेल श्यामची आई पर आधारित है, जिसके लेखक साने गुरुजी हैं। जैसे ही वनमाला ने ये नॉवेल पढ़ा तो उनकी आंखों से आंसू निकल पड़े। उन्होंने तुरंत इस नॉवेल पर फिल्म बनाने का फैसला किया और जल्द-से-जल्द इसके राइट्स खरीद लिए।
घर लौटीं तो संन्यासिनी बनकर काटी जिंदगी
वनमाला को जन्म के समय सुशीला देवी नाम मिला था, जो फिल्मों में आने के बाद बदल गया था। जब पिता दोबारा घर ले आए तो वनमाला फिर सुशीला बनकर रहने लगीं। ग्वालियर आकर ना सिर्फ सुशीला ने फिल्में छोड़ दीं बल्कि जीवन का हर सुख, हर मोह त्याग दिया और मथुरा-वृंदावन में एक साध्वी बनकर जीवन जीने लगीं। शादी भी नहीं की।
वनमाला भारतीय संगीत और कला को आगे बढ़ाना चाहती थीं तो उन्होंने वृन्दावन में ही शास्त्रीय नृत्य और गायन के लिए हरिदास कला संस्थान नाम का एक स्कूल शुरू कर दिया। कई सामाजिक कार्यों में भी वनमाला अपने बुढ़ापे के दिनों तक शामिल रहीं और छत्रपति शिवाजी नेशनल मेमोरियल कमेटी की सदस्य भी रहीं।
वनमाला दीदी के पिता से संबंध अच्छे थे, लेकिन जैसे ही वो फिल्मों में गईं तो पिता ने सारे रिश्ते तोड़ लिए। उनका मानना था कि राजघराने की लड़की स्टेज पर नाच कैसे सकती है। पुराने जमाने के लोगों का यही ख्याल होता था। वो कहती थीं कि पिता के श्राप की वजह से ही मैं कभी खुश नहीं रह सकी।
ग्लैमरस लाइफ छोड़कर अचानक साध्वी बनना उनके लिए मुश्किल फैसला था। सितारों से भरी दुनिया छोड़कर एकदम साधुओं की तरह जीवन जीना। हल्के रंग की साड़ी और टीका। इतना सुंदर कलर होता था कि उस कलर का टीका मैंने कभी किसी पर देखा ही नहीं। जमीन छिन जाने के बाद वो कभी वापस वृंदावन नहीं आईं। उन्हें कभी परिवार का सहारा नहीं मिला। उनकी सारी संपत्ति उनके घरवालों ने रख ली।
लोगों ने उनके साथ हमेशा धोखा किया
वनमाला हमेशा से एक संगीत महाविद्यालय खोलना चाहती थीं। जयपुर के एक शख्स (हितित हिंदी) थे, जो उन्हें महाविद्यालय खुलवाने का प्रलोभन दिया करते थे। वनमाला जी ने उन्हें सितार, गिटार, चांदी के सेट दिए, लेकिन कभी महाविद्यालय नहीं खुलवाया। वो बहुत सीधी थीं और हर कोई उन्हें धोखा दे देता था।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."