सीमा किरण की रिपोर्ट
मैं भारत हूं, आजा़द भारत, आपके सपनों का भारत। आज आज़ादी के 75 साल पूरे हो चुके हैं…लेकिन आज़ादी की वो पहली सुबह मुझे अभी भी याद है। बिस्मिल्लाह खां की शहनाई से निकले राग भैरवी के सुर आज भी कानों में गूंज रहे हैं। उसी शहनाई से तो 1947 के अगस्त की 15वीं तारीख शुरू हुई थी। आज मुझसे सुनिए….आजा़दी की वो पहली सुबह कैसी थी।
14 अगस्त की मध्यरात्रि संसद भवन में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आवाज गूंज रही थी। वे कह रहे थे – इस वक्त जब पूरी दुनिया नींद के आगोश में सो रही है, हिंदुस्तान एक नई जिंदगी और एक नई आज़ादी के वातावरण में अपनी आंखें खोल रहा है। इधर नेहरू संसद भवन के अंदर बोल रहे थे और उसी समय बाहर मूसलाधार बारिश में हजारों भारतीय आजादी का जश्न मना रहे थे। 200 साल की गुलामी के बाद सभी को आजाद भारत के पहले सूर्योदय का इंतजार था।
इस सबसे दूर आम भारतीयों के बापू कलकत्ता के बेलियाघाट में उपवास धारण किए बैठे थे। उनकी चिंता कुछ और थी। आजादी के दिन उन्होंने जश्न के किसी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया। पंडित नेहरू के बुलावे पर भी दिल्ली नहीं आए। क्योंकि बंटवारे के बाद बंगाल और पंजाब में अमन छिन गया था। लेकिन वो दिन सारी बलाएं दूर करने आया था, इसलिए दोपहर होते-होते कलकत्ता के भयानक दंगाग्रस्त इलाकों में शांति और भाईचारा होने लगा। इससे बापू को शांति मिली और उन्होंने देश से अपने दिल की बात कहने का फैसला किया। बापू को सुनने के लिए बेलियाघाट के रास बगान मैदान में तीस हजार लोगों की भारी भीड़ जमा हो गई। बापू ने कहा- हिंदुओं और मुसलमानों… दोनों समुदायों ने हिंसा का जहर पिया है, अब सब बीत चुका है, तो उन्हें दोस्ती का अमृत इससे भी मीठा लगेगा।
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शाम को दिल्ली की सड़कों पर लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा था। 5 बजे इंडिया गेट के पास प्रिंसिस पार्क में गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन को भारत काे तिरंगा झंडा फहराना था। अनुमान था कि वहां 30 हजार लोग आएंगे, लेकिन 5 लाख लोग आ पहुंचे थे। माउंटबेटन की बग्घी के चारों ओर इतनी भीड़ थी कि वे अपनी बग्घी से उतरने का सोच भी नहीं सकते थे। जब प्रधानमंत्री नेहरू तिरंगा फहराने के लिए आगे बढ़ रहे थे तब आसमान में एक इंद्रधनुष छा गया। खुशी, उत्साह और उम्मीद से भरे सात रंगों और सातों सुरों ने जश्न के उत्साह को आसमान पर चढ़ा दिया था।
चारों तरफ आनंद था, उस दिन पंडित नेहरू ने जो कहा था वो मुझे आज भी याद है…लोग आते हैं, जाते हैं, और गुजरते हैं…लेकिन मुल्क और कौमें अमर रहती हैं। वो पहला दिन था…जब अंग्रेजों की वो लाठी टूट चुकी थी जो तिरंगा फहराने वालों की पीठ पर पड़ा करती थी। असमानता के वो सारे दरवाजे बंद हाे चुके थे…जहां लिखा था-भारतीयों का प्रवेश वर्जित है। गुलामी की काली स्याह रातों की कोख से भारत में समानता के सूरज ने जन्म लिया था। इस सूरज ने सत्य और अहिंसा की रोशनी दुनियाभर में पहुंचाई है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."