अनिल अनूप
गांव में थे तो कुएं पर नहाना होता था। चूंकि खुले में नहाते थे तो स्वाभाविक तौर पर अण्डर गारमेंट्स पहन कर नहाना होता था। इससे एक हया, शर्म और संकोच का पर्दा दिमाग पर पड़ा रहता था। जीवन भी थोड़ा-बहुत अनुशासन में था। फिर शहर में आना हो गया तो मैं हम्माम में भी अण्डर गारमेंट्स पहन कर ही काफी दिनों तक नहाता रहा। एक दिन मेरे प्रिय मित्र अमोलक जी आए और मुझे अकेला पाकर बोले- ‘अनूप, हमने सुना है तुम हम्माम में भी कपड़े पहन कर नहा रहे हो?’ मैंने कहा- ‘हाँ, तो क्या हो गया?’ वे बोले-‘हो कैसे नहीं गया। शहर में रह रहे हो तो शहर का सलीका सीखो। हम्माम में तो सब नंगे हैं और निर्वसन होकर ही नहाते हैं। भाई मेरे तक तो बात आ गई, कोई बात नहीं, लेकिन पास-पड़ोस में बात फैलेगी तो लोग तुम्हारी मजाक बनाएंगे। भाई हम्माम में अंदर हो, दरवाजा बंद है और तुमने कपड़े पहन रखे हैं। है न हास्यास्पद बात। मैं आज तुमसे कहे जा रहा हूँ, कल से कपड़े उतार कर नहाना। फिर देखना तुम में कितने परिवर्तन होते हैं।’
अमोलक जी की बात दिमाग में जंच गई कि यार हम्माम में कपड़ों का क्या लफड़ा? और फिर नंगई के तो अपने मजे हैं। दूसरे दिन हम्माम में गया तो डरते-डरते निर्वसन हुआ। इसके तीन-चार दिन बाद तो मैं निर्भय होकर साबुन लगा कर नहाने लगा। मुझे भी लगा कि हम्माम में कपड़े पहनना कितना असभ्य तरीका था। इसके बाद मैं बिंदास, मुंहफट, जवाब देने वाला तथा मनोबल से सराबोर हो गया। शर्म-हया सब जाती रही। बड़े-छोटों का लिहाज तथा सभ्य तरीकों को त्याग कर मैं किसी से क्या कह देता, किसी से लड़ लेता, बेवजह घर में चीखता-चिल्लाता और इतना निर्भीक हो गया कि डिप्रेशन की जो गोली लेता था, उसकी आदत छूट गई तथा मैं बिंदासपूर्वक बेमजा बातों पर भी दांत फाडऩे लगा। पंद्रह-बीस दिन बाद अमोलक जी फिर आए और आते ही बोले-
‘अब बताओ कैसा महसूस कर रहे हो?’
मैंने कहा-‘अमोलक भाई, आपने तो गज़ब का सूत्र दिया। जीने का मजा आ गया। किसी से भय, शर्म और संकोच सब खत्म हो गया तथा आत्म विश्वास इतना आ गया है कि पड़ौसी तक डरने लगे हैं। लोग कहने लगे हैं, इससे बात मत करो वरना अभी यह नंगईपन पर उतर आएगा तथा लेने के देने पड़ जाएंगे।’
अमोलक जी खुलकर हंसने के बाद बोले-
‘अब थोड़ा अपना दायरा बड़ा करो। सभा-संगोष्ठियों में जाना सीखो और भाषण देना प्रारंभ करो। फिर बताना नंगई के और कितने फायदे हुए।’
यह कह कर वे फिर अन्तर्ध्यान हो गए। मैंने अब भाषण देना प्रारम्भ किया। बेतुकी बातें करता, उस पर भी तालियां बजती और लोग खूब हंसते। इसका सीधा-सीधा फायदा यह हुआ कि लोग मुझे कार्यक्रमों में भाषण देने के लिए अब खुद बुलाने लगे। मैं कहीं अध्यक्षता करता तो कहीं मुख्य अतिथि बन जाता। इस तरह हौसला आफजाई इतनी जबरदस्त हुई कि राजनेताओं में उठ-बैठ शुरू होने से मेरा जीवन राजनीति में रंगने और जमने लगा। अपनी पार्टी के युवा मोर्चे का मैं विद इन नो टाइम प्रदेश अध्यक्ष बन गया। पार्टी में धाक और साख जम गई। अखबारों तथा मीडिया में मेरे वक्तव्य छपने और बोले जाने लगे। अमोलक जी यह देखकर बहुत खुश हुए और एक दिन वे फिर अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को लेकर मेरे यहां आ गए। और आते ही बोले-
‘अब ठीक रहा अनूप। अब काम की बात सुनो। ये अमुकराम जी हैं। यार इनका तबादला घर से बहुत दूर हो गया है। ये तो लो बीस हजार के नोट तथा मंत्री से कहकर इनका तबादला निरस्त कराओ।’
मैंने नोट कुर्ते की जेब में रखकर कहा-
‘यह तो मेरे बायें हाथ का खेल है। कल की तारीख में इनका तबादला कैंसिल हो जाएगा।’ वे एप्लीकेशन देकर चले गए।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."