अनिल अनूप
‘काली’ डॉक्यूमेंट्री का पोस्टर सार्वजनिक किया गया है, जो घोर आपत्तिजनक और अपमानजनक है। पोस्टर में मां काली को धूम्रपान करते दिखाया गया है और एक हाथ में समलैंगिक समुदाय का झंडा थमाया गया है। इस चरित्र चित्रण का मकसद और अभिव्यक्ति के मंसूबे क्या हो सकते हैं?…..
रचनात्मकता बेलगाम नहीं होती। उसकी भी हदें, परिधियां और मायने होते हैं। ऐसा सृजन मौलिक और स्वीकार्य नहीं हो सकता, जो अश्लील, अभद्र और किसी समुदाय की आस्थाओं को आहत करने वाला हो। रचनात्मकता आत्ममुग्धता तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए। प्रयोग भी दूसरों की भावनाओं का सम्मान करते हुए किए जाने चाहिए। यह धार्मिक भावनाओं के उबाल, उन्माद और उत्तेजनाओं का दौर है। देश में आग-सी लगी है। ज़हर फैलाया जा रहा है। इंसान इंसान को ही मारने पर आमादा है। इस दौर ने ‘सरकलम’ तक की पराकाष्ठा छू ली है। धमकियां तो चेहरा चमकाने का फैशन बन चुकी हैं। इसी दौरान ‘काली’ डॉक्यूमेंट्री का पोस्टर सार्वजनिक किया गया है, जो घोर आपत्तिजनक और अपमानजनक है। पोस्टर में मां काली को धूम्रपान करते दिखाया गया है और एक हाथ में समलैंगिक समुदाय का झंडा थमाया गया है। इस चरित्र चित्रण का मकसद और अभिव्यक्ति के मंसूबे क्या हो सकते हैं? फिल्म निर्देशक लीना मणिमेकलई मूलतः तमिलनाडु की हैं, लेकिन कनाडा में रहती हैं। वह मां काली की संवेदनशीलता और मौजूदा हालात से जरूर वाकिफ होंगी। उन्होंने वृत्तचित्र बनाने से पहले कमोबेश इतना अध्ययन तो किया होगा कि मां काली के देवत्व का क्या स्थान है?
करोड़ों लोगों की आस्था में मां काली दैवीय हैं और उनकी पूजा की जाती है। देवी मां का अपमान किया गया है, तो बहुसंख्यक हिंदुओं को भी अपमानित किया गया है, लेकिन फिर भी हिंदू इतना सहिष्णु है कि किसी ने फिल्मकार का ‘सरकलम’ करने की धमकी तक नहीं दी है। कनाडा में भी हिंदुओं की आबादी कम नहीं है। प्रतिक्रिया उनमें से भी आ सकती है। सवाल यह है कि मां काली का यह रूप दिखाने में कौन-सी रचनात्मकता निहित है? हिंदू देवी-देवताओं के विकृत, अश्लील रूपांकन भी सामने आते रहे हैं। अपने दौर के प्रख्यात एवं विवादास्पद कलाकार एमएफ हुसैन ने हिंदू देवियों के अश्लील चित्र बनाए थे। मामला इतना गंभीर था कि अदालत को गैर जमानती वारंट जारी करने पड़े। सरकार ने तो उन्हें ‘देशनिकाला’ ही दे दिया। जि़ंदगी के आखिरी पड़ाव में उन्हें कतर सरीखे इस्लामी देश में शरण लेनी पड़ी। आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ऐसी कला विकृत मानसिकता की अभिव्यक्ति ही हो सकती है। कला स्वान्तः सुखाय ही नहीं होनी चाहिए। ‘काली’ डॉक्यूमेंट्री का संदर्भ ताज़ा है, लेकिन ‘पीके’ फिल्म में हिंदू भगवानों पर अपमानजनक टिप्पणियां कराई गई थीं। आमिर खान ने वह किरदार निभाया था।
‘लूडो’ फिल्म में हिंदू देवी-देवताओं को सड़क पर नाचते दिखाया गया और अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल किया गया। एक वेब सीरिज ‘तांडव’ में भी हमारी आस्थाओं का मज़ाक उड़ाया गया। हैरानी है कि ‘काली’ के संदर्भ में बॉलीवुड के तमाम महानायक और सुपर स्टार खामोश हैं। हमारा ही मज़ाक उड़ाते हैं और हमीं से करोड़ों रुपए के मुनाफे कमाते हैं! क्या विरोधाभास है, कैसी दयनीय स्थितियां हैं हिंदुओं की! यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। जो हमारी आस्थाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं, उनका बहिष्कार करो! हालांकि फिल्मकार और अन्य जिम्मेदार लोगों के खिलाफ देश के कई हिस्सों में पुलिस ने प्राथमिकियां दर्ज की हैं। यह सिर्फ कानूनी औपचारिकता है। कनाडावासी के खिलाफ दिल्ली-उप्र पुलिस का क्या अधिकार-क्षेत्र हो सकता है और वह कितना प्रभावी होगा? कनाडा में भारतीय उच्चायोग ने अपना विरोध दर्ज कराया है, लेकिन टोरंटो फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों ने फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं की है और न ही डॉक्यूमेंट्री पर पाबंदी थोपी है। हमारा मानना है कि भारत सरकार के स्तर पर सख्त विरोध दर्ज कराया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी कनाडा के प्रधानमंत्री से बात करें कि भारत में मां काली की क्या धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतिष्ठा है। यदि हमारे देवी-देवताओं और भगवानों के सम्मान सुरक्षित नहीं हैं, उनकी गरिमा को बार-बार दाग़दार किया जा रहा है, आम आदमी की आस्थाओं का मज़ाक उड़ाया जा रहा है, तो फिर महान देश के तौर पर भारत को कौन स्वीकार करेगा? विश्व-गुरु बनने के बयान तो महज अख़बारी साबित होते रहेंगे। यह हिंदुओं की आस्था का सवाल है, अतः इससे खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जा सकती।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."