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19 January 2025 2:42 pm

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‘खामोशियां गुनगुनाने लगी’ : एक ऐसा शायर जिसने गीत लिखे तो वो मिसाल बन गए ; मजरुह सुल्तानपुरी

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-अनिल अनूप

आज बेहतरीन शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की 22वीं पुण्यतिथि है। मजरूह सुल्तानपुरी के गीत हर पीढ़ी में उतनी ही शिद्दत से सुने जाते हैं जितनी शिद्दत से लोगों ने तब सुना था जब वो पहली बार रिलीज हुआ था। उनके गाने लोगों के आम जीवन में उसी तरह बसे हुए हैं जिस तरह उनके काम।

मज़रुह सुल्तानपुरी का पूरी नाम ‘असरार उल हसन ख़ान’ था। मजरुह की कलम की स्याही नज्मों और ग़ज़लों के रूप में जब लोगों तक पहुंची तो उर्दू शायरी को नई ऊंचाई तो मिली ही साथ ही उन्होंने रूमानियत को भी नया रंग और ताजगी दी। कहते हैं फिल्मों में गीत लेखन के लिये मज़रुह को ज़िगर मुरादाबादी ने बड़ी मुश्किल से तैयार किया था।

6 दशक तक मजरूह ने फिल्म इंडस्ट्री को बेहतरीन गाने दिए हैं। उनकी एक कविता के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें जेल भेज दिया था। मजरूह से माफी और जेल में से किसी एक को चुनने के लिए कहा गया, पर मजरूह को अपनी आजाद कविता को किसी जंजीर में नहीं जकड़ना था तो उन्होंने खुद जेल में रहना सही समझा। मजरूह ऐसे पहले गीतकार थे जिन्हें गीत लिखने के लिए दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड दिया गया था। तो चलिए आज मजरूह की 22 वीं पुण्यतिथि पर उनके 80 सालों के सफर को याद करते हैं।

पिता पुलिस में, बेटे को शायरी का शौक

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म एक मुस्लिम राजपूत फैमिली में 1 अक्टूबर 1919 में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में हुआ था। उनके माता-पिता ने उनका नाम असरारुल हसन खान रखा था जो उनके शायर बनने के बाद मजरूह सुल्तानपुरी बन गया। उनके पिता पुलिस में थे जो इंग्लिश पढ़ने के सख्त खिलाफ थे। मजरूह शेरों शायरी का भी बचपन से शौक रखते थे लेकिन परिवार को ये बिल्कुल पसंद नहीं था। लिहाजा मजरूह को उनके पिता ने मदरसे में भेज दिया। जिसके बाद मजरूह ने डार्स ए निजामी में पढ़ाई की। ये अरेबिक और पर्शियन लैंग्वेज में 7 साल तक चली। जिसके बाद मजरूह ने लखनऊ के तामील-उल-तीब में यूनानी मेडिसिन की पढ़ाई की।

प्यार ने बनाया शायर

मजरूह यूनानी की पढ़ाई पूरी कर हकीम बन चुके थे। इसी बीच लोगों की नब्ज नापते-नापते वो एक तहसीलदार की बेटी को दिल दे बैठे। लेकिन ये बात उस लड़की के रसूखदार पिता को नागवार गुजरी। जिसके बाद दोनों को अलग होना पड़ा। लेकिन ये इश्क मजरूह को शायर बना गया।

हकीम का काम कर रहे मजरूह लोगों की नाड़ियां देखने में दिलचस्पी कम ही लेते थे। एक दिन मजरूह सुल्तानपुर में हो रहे मुशायरे में पहुंचे जहां मजरूह ने अपनी शायरी भी सुनाई जो लोगों ने उनकी शायरी पर खूब वाहवाही की। बस लोगों की वाहवाही मजरूह को भा गई।

जिगर मुरादाबादी ने बनाया शागिर्द

साल 1941 में एक बार मजरूह सुल्तानपुरी की मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हो गई। जिगर मुरादाबादी ने इस नौजवान को एक मुशायरे में सुना और अपना शागिर्द बना लिया। फिर क्या था मजरूह सुल्तानपुरी ने हकीम का काम छोड़ा और अपना पूरा समय शेर-ओ-शायरी को देने लगे। जिगर मुरादाबादी के शागिर्द होने का एक सौभाग्य उन्हें ये मिला कि काफी समय तक सुल्तानपुरी की लेखनी में जिगर मुरादाबादी का असर दिखता रहा।

इसी बीच मजरूह सुल्तानपुरी एक मुशायरे के लिए मुंबई आए। यहां उनकी शायरियों के लिए उन्हें खूब सराहना मिली। इस मुशायरे में उस जमाने के नामी फिल्म निर्माता और निर्देशक अब्दुल रशीद कारदार भी आए थे। जिन्हें एआर कारदार के नाम से जाना जाता था। कारदार को भी मजरूह सुल्तानपुरी के शेर और नज्म पसंद आईं। उन्होंने तभी मजरूह के सामने ये पेशकश रख डाली कि आप मेरी फिल्म के गीत लिखिए। हालांकि, उस समय मजरूह को फिल्म में गीत लिखना अच्छा काम नहीं लगता था सो उन्होंने इससे इंकार कर दिया।

कैसे मिली पहली फिल्म शाहजहां

इसके बाद 1944 में एआर कारदार एक फिल्म बना रहे थे। कारदार की इस फिल्म का नाम था शाहजहां। इस फिल्म का संगीत दे रहे थे नौशाद साहब और गीत लिखने का काम मशहूर लेखक डीएन मधोक को दिया गया था। मधोक ने नौशाद साहब के साथ हुए मनमुटाव के कारण ये फिल्म बीच में ही छोड़ दी। अब कारदार और नौशाद दोनों परेशान कि फिल्म के गाने किससे लिखवाएं। इसी बीच एआर कारदार को जिगर मुरादाबादी का नाम याद आया। उन्होंने जिगर मुरादाबादी से मुलाकात कर इस गाने को लिखने के लिए कहा और साइनिंग अमाउंट दे दिया। फिल्मों में सिचुएशन के हिसाब से गाने लिखे जाते थे और जिगर को सिचुएशन के हिसाब से लिखना नहीं आता था। लिहाजा जिगर ने एक लेटर कारदार साहब को भेज दिया और इस लेटर में लिखा कि, आपकी धुन और स्थिति से मैं गीत नहीं लिख पाऊंगा। अगर मेरी किताब से अपको कोई गीत पसंद आता है तो उसे आप रख लीजिए।

जिगर मुरादाबादी के इंकार के बाद अब फिर से कारदार साहब के आगे परेशानी खड़ी थी। वो दूसरे शायर की तलाश में जुट गए। तलाश के दौरान उनके दिमाग में नाम आया जिगर मुरादाबादी के शागिर्द मजरूह सुल्तानपुरी का। एआर कारदार ने एक बार फिर से जिगर मुरादाबादी से संपर्क किया और उनसे कहा कि अगर आप मेरी फिल्म में गाने नहीं लिख सकते तो कोई बात नहीं लेकिन आप मजरूह से कहिए कि मेरी फिल्म में गाने लिख दे। मजरूह से पूछने पर मजरूह ने एक बार फिर कारदार को इंकार कर दिया। उन्होंने जिगर मुरादाबादी से कहा जब आप गीत नहीं लिखना चाहते तो मैं क्यू लिखूं? मैंने भी कभी सिचुएशन के हिसाब से गीत नहीं लिखा है। तब जिगर मुरादाबादी ने सुल्तानपुरी को समझाया कि जिंदगी अच्छे से जीनी है तो दौलत जरूरी है।

जिगर की ये बात मजरूह को समझ में आ गई। जिसके बाद मजरूह ने इस फिल्म में गीत लिखने के लिए हांमी भर दी और सिचुएशन जानने के बाद एक रात में ही गाना लिख दिया।

सुल्तानपुरी के गाने बने केएल सहगल की पहचान

कारदार ने सुल्तानपुरी द्वारा लिखा ये गीत पढ़ा और खुशी से उछलने लगे और कहने लगे बस यही चाहिए था। ये गीत था- ‘कर लीजिए चलकर मेरी जन्नत के नजारे, जन्नत ये बनाई है मोहब्बत के सहारे…’ इसी गीत के बाद मजरूह की फिल्म इंडस्ट्री में जगह बन चुकी थी। इस फिल्म में मजरूह के दो गाने बहुत फेमस हुए एक था ‘गम ए दिल मुस्तकिल कितना नाजुक है दिल’ और दूसरा था ‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे’। ये गाने केएल सहगल ने गाए थे जो उनकी पहचान बन गए।

इस फिल्म के बाद फिल्म अंदाज के लिए मजरूह के लिखे गाने काफी लोकप्रिय हुए जिसके बाद उन्होंने कई हिट गाने लिखे। केएल सेहगल से लेकर उन्होंने नई पीढ़ी शाहरुख खान, आमिर खान तक के लिए गाने लिखे। आपने फिल्म कभी हां कभी ना देखी हो उसमें एक गाना ‘ए काश के हम’ सुना होगा। ये गाना मजरूह सुल्तानपुरी ने ही लिखा था।

नेहरू के खिलाफ कविता लिखी और 2 साल जेल में रहे

मजरूह बंबई यानी आज के मुंबई में मजदूरों की एक हड़ताल में गए हुए थे। इसी में मजरूह ने ऐसी कविता पढ़ी कि नेहरू सरकार आगबबूला हो गई।

तत्कालीन गवर्नर मोरारजी देसाई ने अभिनेता बलराज साहनी और अन्य लोगों के साथ मजरूह सुल्तानपुरी को भी ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया। जिसके बाद मजरूह को अपनी कविता के लिए माफी मांगने के लिए कहा गया जिसके एवज में मजरूह को जेल से रिहा करने के लिए कहा गया। मजरूह का मन अपनी कविता को कैद में रखकर खुद को रिहा करने का नहीं माना। उनके हिसाब से उनकी कलम से बड़ा कद किसी का नहीं था। मजरूह ने माफी मांगने से इंकार कर दिया और उन्हें सन् 1949 में उन्हें 2 साल की जेल हो गई। ये मजरूह का इंकलाबी अंदाज था।

जेल में रहने के दौरान हुई पहली बेटी

जब मजरूह जेल में बंद थे तब उनकी पहली बेटी हुई। परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। इस दौरान मजरूह सुल्तानपुरी ने जेल में रहते हुए कुछ फिल्मों में गीत लिखने की हामी भरी और उनसे मिले पैसे परिवार को पंहुचा दिए। मजरूह 2 साल बाद 1951 के करीब जेल से बाहर आए। जिसके बाद सन् 2000 तक उन्होंने गीत लिखे। संगीतकार नौशाद और फिल्म निर्देशक नासिर हुसैन के साथ उनकी जोड़ी कमाल करती रही। उन्होंने 6 दशक तक हिंदी सिनेमा को बेहतरीन गीत दिए।

पहले राइटर जिन्हें मिला दादसाहेब फाल्के अवॉर्ड

मजरूह ऐसे पहले गीतकार हैं जिन्हें 1993 में दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया है। मजरूह अपने समय के सबसे पॉपुलर गजल राइटर में से एक थे। उन्हें गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए बेस्ट लिरिक्स के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा जा चुका है।

80 की उम्र में हुई मौत

मजरूह फेफड़ो की बीमारी से जूझ रहे थे इस दौरान उन्हें कई बार निमोनिया भी हो चुका था। जिसके चलते 24 मई सन् 2000 को उनकी मौत हो गई। मजरूह की याद में सुल्तानपुर में एक बगीचा बनाया गया जिसका नाम रखा गया मजरूह सुल्तानपुरी उद्यान।

लिखे 2 हजार से ज्यादा गाने

मजरूह ने लगभग 250 फिल्मों के लिए गाने लिखे हैं। उन्होंने अपने करियर में 2 हजार से ज्यादा गाने लिखे हैं। जिसमें से ज्यादातर गाने हिट रहे हैं। मजरूह ने मरते दम तक अपनी इस कला से लोगों का मनोरंजन करना नहीं छोड़ा। उन्होंने आखिरी बार फिल्म वन टू का फोर के लिए गाना लिखा था जो शाहरुख खान स्टारर थी। ये फिल्म उनकी मौत के बाद 2001 में रिलीज हुई थी। जिसमें उनका गाना ‘खामोशियां गुनगुनाने लगी’ काफी पॉपुलर हुआ था।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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