अनिल अनूप
शायरी शुरू की तो पिताजी ने बड़ा डांटा। बोले-‘बरखुरदार कोई अच्छा काम करो। यह बीमारी ठीक नहीं, लत लग गई तो छूटेगी नहीं। पिताजी के कथन की अनदेखी करके मैं गुपचुप में शायरी करने लगा। कविताएं लिखने लगा। प्रेमभरी वे कविताएं आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। एक दिन पिताजी ने मुझे फिर कविता करते रंगे हाथों पकड़ लिया। आग बबूला हो गए। बोले-‘तुम अभी भी यह काम कर रहे हो? मैंने तुम्हें रोका था। बेटा जीवन भर रोओगे, न घर के रहोगे न घाट के। मैं फिर कहता हूं कि कविता से मुंह मोड़ लो। हम खाते-पीते लोग हैं, हमें यह काम शोभा नहीं देता। अभी तुम्हारा शादी-ब्याह भी नहीं हुआ है। कल यह बात फैल गई तो तुम्हारा विवाह होना जटिल हो जाएगा। लिखने का ही शौक है तो सुलेख लिखो, तुम्हारा हस्तलेख भी सुंदर नहीं है। मैंने कहा-‘पिताजी, कविता मेरी नस-नस में समा गई है। मुझे नहीं लगता कि मैं इसे छोड़ पाऊंगा। कविता मेरे दिल का चैन है। मैंने इसे छोड़ा तो सब चौपट हो जाएगा।
पिताजी फिर बिगड़े, बोले-‘तुम्हारे दिन शुभ नहीं लगते बेटा! यह नशा है और नशा कोई भी हो, खराब ही होता है। मेरी बूढ़ी होती आंखें तुम्हें खुश देखना चाहती हैं। यदि तुमने इसे छोड़ा तो मैं चैन से मर सकूंगा। कविता हमारे बाप-दादों ने नहीं लिखी, तुम्हें यह मर्ज कैसे लग गया, मेरी समझ से परे है। मैं बोला-‘पिताश्री यह लाइलाज मर्ज है। यह मैंने खुद पाला है। इसलिए दंड का भागीदार भी मैं ही बनूंगा। आप चिंता न करें, कविता बड़े काम की चीज है। मैंने इसे यों ही नहीं अपनाया है। इसके बड़े फायदे हैं।Ó ‘फायदे! कविता के भला क्या फायदे हो सकते हैं? पिताजी ने पूछा। मैंने कहा-‘कवि से अनचाहे लोग नहीं मिलते हैं। खासतौर पर मेहमानों का आवागमन प्रतिबंधित रहता है। आने वाले को पता होता है कि उस घर में एक कवि है, जिसके यहां गए तो खैर नहीं। मैंने ऐसी-ऐसी बोरपूर्ण कविताएं लिख रखी हैं कि उनका पाठ करने पर मनुष्य ही नहीं, पशु तक भी सामने नहीं टिक सकते हैं। आप कहें तो एक कविता बतौर बानगी आपके सामने पेश करूं? पिताजी सकपका गए, बोले-‘देखो बेटा, तुमने कविताएं लिख लीं वो तो ठीक है, लेकिन उसे घर में हस्तेमाल करना ठीक नहीं है-तुमने जो उबाऊ कविताएं रची हैं, उनका प्रयोग अतिथियों के आगमन पर ही उचित रहेगा।
इसलिए अनचाही भीड़ को घर में आने से नियंत्रित करने का कविता, नायाब नुस्खा बकौल तुम्हारे पास है तो फिर ठीक है, तुम कविताएं जमकर लिखो। मुझे बस यही तो संदेह था कि कहीं तुम्हारे कविता करने से श्रोताओं की भीड़ तो घर में नहीं घुसी रहेगी? आज मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जाओ तुम कविताएं लिखो, जब कविता इतनी माकूल चीज़ है तो इसे अपनाए रहो। बस फिर क्या था, मेरा हौंसला बढ़ता गया और मैं कविता के फील्ड में आगे से आगे निकलता गया। हालांकि पाठ करते समय अनेक बार मुझे सड़े गले टमाटर, अंडों का जरूर सामना करना पड़ा-लेकिन मैंने कभी इस बात की परवाह नहीं की तथा कविता का एकालाप जारी रखा। घर में मेहमानों के आगमन पर पिताजी मेरा हस्तेमाल करने लगे। चंद वर्षो में तो हालात इतने खुशहाल हो गए कि मेहमान हमारे यहां फटकने तक से कतराने लगे। कुछ ढीठ मेहमानों ने तो यहां तक षडय़ंत्र किया कि पिताजी मुझे घर से निकाल दें, पिताजी और मेरे मध्य तो एक आपसी समझ विकसित हो चुकी थी। घंटे-दो घंटे के मेहमानों तक को मैंने उबाऊपूर्ण लंबी कविताओं से धराशायी किया। यह भी प्रचार हुआ कि अमुक शर्मा साहब का लड़का पागल हो गया है तथा वे उसका इलाज भी नहीं कराते।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."