चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
श्मशान यानी जिंदगी की आखिरी मंजिल। और चिता…यानी जिंदगी का आखिरी सच. पर जरा सोचें….अगर इसी श्मशान में उसी चिता के करीब कोई महफिल सजा बैठे और शुरू हो जाए डांस तो आप क्या कहेंगे…
खामोश, ग़मगीन, उदास और बीचबीच में चिताओं की लकड़ियों के चटखने की आवाज अमूमन किसी भी श्मशान का मंज़र या माहौल कुछ ऐसा ही होता है।
इंसान की जिंदगी का अंत महाश्मशान पर अंतिम संस्कार के साथ हो जाता है। लिहाजा वहां का माहौल भी गमगीन बना रहता है। इसके उलट काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट का अलग ही नजारा देखने को मिला, जहां काशी के घाट पर नगरवधुएं पहुंचीं और बाबा भोलेनाथ के सामने नृत्यांजलि पेश की। इस दौरान उन्होंने जलती चिताओं के बीच महफिल सजाई।
महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच डीजे की तेज आवाज पर ठुमके लगे और जमकर नोट भी उड़े। कोई इसे सही मान रहा था तो कोई गलत और इसी परंपरा को 378 सालों से लगातार बनारस में निभाया जा रहा है।
महोत्सव के बारे में महाश्मशान नाथ मंदिर के व्यवस्थापक गुलशन कपूर ने बताया कि यह परम्परा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। राजा मानसिंह ने जब बाबा महाश्मशान नाथ के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था। तब मंदिर में बाबा को संगीतांजलि और नृत्यांजलि देने के लिए कोई भी कलाकार आने को तैयार नहीं हुआ था। राजा मानसिंह काफी दुखी हुए और यह संदेश उस जमाने में धीरे-धीरे पूरे नगर में फैलते हुए काशी की नगर वधुओं तक भी जा पहुंचा।
नगर वधूओं ने डरते-डरते अपना यह संदेश राजा मानसिंह तक भिजवाया कि यह मौका अगर उन्हें मिलता हैं तो काशी की सभी नगर वधूएं अपने आराध्य संगीत के जनक नटराज श्मशाननाथ को अपनी भावाजंली प्रस्तुत कर सकती हैं। यह संदेश पाकर राजा मानसिंह काफी प्रसन्न हुए और ससम्मान नगरवधुओं को आमंत्रित किया और तब से यह परंपरा चली आ रही हैं।
वहीं दूसरी ओर नगरवधुओं की मन में आया कि अगर वह इस परंपरा को निरंतर बढ़ाती हैं तो उनको इस नरकिय जीवन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। इसलिए आज सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद भी यह परम्परा जीवित है और बिना बुलाए यह नगरवधूएं कहीं भी रहे चैत्र नवरात्रि के सप्तमी को यह काशी के मणिकर्णिका धाम स्वयं आ जाती हैं।
यही वजह है कि आज इतने सालों से लगातार जलती चिताओं के बीच होने वाला यह कार्यक्रम अनवरत रूप से जारी है। यहां आने वाले लोग इस कार्यक्रम को देखकर आश्चर्यचकित होते हैं। कुछ लोगों का कहना था कि वहां श्मशान पर इस तरह का आयोजन अपने आप में पहली बार दिखाई दिया। जहां पर हमेशा दुख-दर्द और लोगों को अपनों से बिछड़ने का गम सताता हो वहां इस तरह से जलती चिताओं के बीच महफिल सजना शायद काशी में ही संभव है।
यहां आने वाली कोई भी नगर वधु पैसा नहीं लेती बल्कि मन्नत का चढ़ावा अर्पित करके जाती है। कलकत्ता, बिहार, मऊ, दिल्ली, मुंबई समेत भारत के कई स्थानों से बीस से ऊपर नगरवधुएं यहां आती हैं।
आखिर क्यूं यहां नगरवधु जलती चिताओं के बीच नाचती-गाती है
चैत्र नवरात्रि अष्टमी को आती है ये रात दरअसल ये 350 साल पुरानी एक पराम्परा है जिसमें वैश्याएं पूरी रात यहां जलती चिताओ के पास नाचती है और थिरकती है। साल में एक बार एक साथ चिता और महफिल दोनों का ही गवाह बनता है काशी का मणिकर्णिका घाट। चैत्र नवरात्रि अष्टमी को सजती है इस घाट पर मस्ती में सराबोर एक चौंका देने वाली महफ़िल। एक ऐसी महफ़िल जो जितना डराती है उससे कहीं ज्यादा हैरान करती है।
क्या है इस महफिल का सच
दरअसल चिताओं के करीब नाच रहीं लड़कियां शहर की बदनाम गलियों की नगर वधु होती हैं। कल की नगरवधु यानी आज की तवायफ। पर इन्हें ना तो यहां जबरन लाया जाता है ना ही इन्हें इन्हे पैसों के दम पर बुलाया जाता है। काशी के जिस मणिकर्णिका घाट पर मौत के बाद मोक्ष की तलाश में मुर्दों को लाया जाता है वहीं पर ये तमाम नगरवधुएं जीते जी मोक्ष हासिल करने आती हैं। वो मोक्ष जो इन्हें अगले जन्म में नगरवधू ना बनने का यकीन दिलाता है। इन्हें यकीन है कि अगर इस एक रात ये जी भरके यूं ही नाचेंगी तो फिर अगले जन्म में इन्हें नगरवधू का कलंक नहीं झेलना पड़ेगा।
सैकड़ों साल पुरानी है यह परम्परा काशी के इस घाट पर ये सबकुछ अचानक यूं ही नहीं शुरू हो गया। बल्कि इसके पीछे एक बेहद पुरानी परंपरा है। श्मशान के सन्नाटे के बीच नगरवधुओं के डांस की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."