चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
काशी वैसे तो विश्व विख्यात है लेकिन परंपराओं का अनूठापन इस शहर की ओर लेागों को बरबस अपनी ओर खींच ही लेता है।
मोक्ष की नगरी काशी में मृत्यु भी उत्सव है लिहाजा इसे राग विराग की नगरी कहा जाता है। मौत की तकलीफ पर जहां रंगारंग कार्यक्रमों की धूम हो, जहां होली पर चिता भस्म का उल्लास हो, जहां महाश्मशान पर रातें घुघरुओं की छनक से रंगीन हो उठें समझिए वह स्थल काशी है। नवरात्र की सप्तमी काशी के लिए अनोखे आयोजन भी लेकर आती है।
नवरात्र में सप्तमी के मौके पर मणिकर्णिका घाट पर नगरवधुओं की अनोखी नृत्यांजलि काशी को राग विराग की नगरी होने का तमगा ही नहीं बल्कि जीवंतता का अहसास भी कराती है।
भूतभावन भगवान शिव की नगरी जहां मृत्यु उत्सव है तो मृत्यु मोक्ष का यहां मार्ग भी माना जाता है। मान्यता है कि यहां मशाननाथ के रुप में स्वयं भगवान शिव विराजमान हैं और हर चिता को मोक्ष का मार्ग भी वह स्वयं दिखाते हैंं।
यहां चिताओं की होली भी होती है तो चिताओं के बीच दीवाली की रौनक भी यहां एकाकार होती है। काशी में एक परंपरा ऐसी भी है जो यहां धधकती चिताओं के बीच गणिकाओं के नृत्य के बिना पूरी नहीं होती। काशी की इस अनूठी परंपरा को निहारने और देर रात तक अपनी आंखों में संजोने दूर दराज से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग चैत्र नवरात्र में सप्तमी की रात को यहां बरबस ही खिंचे चले आते हैं।
सदियों से इस दिन काशी के ख्यात मणिकर्णिका घाट पर घुंघरू बांधकर नृत्य करने और काशी के रक्षक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए धधकती चिताओं के बीच झूमकर नाचती गणिकाओं का दूर दराज से यहां प्रतिभा का दर्शन होता है।
यहां एक तरफ जलती चिताओं के शोले इस अनोखी रात में आसमान से एकाकार होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर घुंघरू और तबले की जुगलबंदी के बीच पैरों के ताल पर रात परवान चढ़ती है तो परवाने भी यहां नोट लुटाने चले आते हैं।
मौत का सन्नाटा भी इस घाट पर नृत्यांजलि की रौनक तले उत्सवी स्वरुप जब अख्तियार कर लेता है तो परंपराएं भी देर रात तक परवान चढ़ती हैं। धधकती चिताओं का मातम महाश्मशान को इस दौरान जहां विराग की उत्कंठा को तोड़ता है तो दूसरी ओर इस रात नगरवधुओं की घुंघरू की झंकार से रागों की नेमत रात भर कुछ इस तरह चिताओं के बीच उभरती है मानो जीवन और मृत्यु यहां आकर एकबारगी एकाकार हो गए हों।
काशी का यह अनोखा उत्सव है राग विराग का जहां देर रात तक तबले की थाप और झंकृत होते की आवाज के बीच अपना सुध-बुध खोकर नाचती नगरवधुओं से महाश्मशान भी इस अनोखी रात के लिए महाश्मशान पर एक रात के लिए मानो जीवंत हो उठता है।
मोक्ष के कामना की नृत्यांजलि : पुरानी मान्यता है कि बाबा मशाननाथ को समर्पित इस घाट पर कभी चिताएं ठंडी ही नही हुईं। नगर वधुओं के नृत्य के बीच मंच के पीछे उठती आग की ऊंची लपटें इस परंपरा की हर साल एक नई इबारत गढ़ती हैं। जीवन के आखिरी मुकाम यानि मणिकर्णिका के इस पवित्र घाट पर रात भर नाचती गणिकाओं की नृत्यांजलि के माध्यम से यह कामना भी होती है कि मोक्ष के बाद उन्हें इससे मुक्ति भी मिले।
आयोजन से जुडे लोग भी मानते हैं कि शिव को समर्पित गणिकाओं की यह भावपूर्ण नृत्यांजलि मोक्ष की कामना से भी युक्त होती है। दरअसल शिव की स्तुति में रात भर झूमकर नाचें गायें मगर इस रात की चांदनी के बाद वर्षभर का अंधियारा ही नसीब में आता है। यहां पर इन नगर वधुओं की यह वार्षिक प्रस्तुति स्वतः स्फूर्त परंपरा आधारित है जिसकी मान्यता अब काशी से अतिरिक्त वैश्विक भी होती जा रही है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."