विवेक चौबे की रिपोर्ट
गृह कारा एवं आपदा प्रबंधन विभाग की गृह पत्रिका ‘सरहुल’ झारखंड की जेलों में रहने वाले बंदियों के सृजन व विचारों का संगम है। इस पत्रिका में अपनी कहानी, कविता, लेख, विचार व पेंटिंग के माध्यम से बंदियों ने कानून व्यवस्था को जहां कटघरे में खड़ा किया, वहीं अपराध से बचने का संदेश भी दिया है।
बंदियों ने खुद ही लिखा, पन्ने पर सजाया और रांची के होटवार स्थित बिरसा मुंडा केंद्रीय कारा के ही प्रिंटिंग प्रेस में इस सरहुल पत्रिका का प्रकाशन भी किया। इस पत्रिका के संपादक राज्य की जेलों के बंदी कल्याण पदाधिकारी कमलजीत सिंह हैं। परामर्श मंडल में भी निदेशक प्रशासन सहित दोनों सहायक कारा महानिरीक्षक हैं। बंदियों की यह पत्रिका पहली बार प्रकाशित हुई है। इसे बेहतर अंक बताया जा रहा है। इस पत्रिका के वार्षिक प्रकाशन की योजना बनाई गई है।
बंदियों की पत्रिका सरहुल चर्चा में है। इसमें एक विचाराधीन बंदी प्रवीण कुमार साह ने समाज से भटके हुए युवाओं के लिए ‘अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं’ शीर्षक से लेख दिया है। महिला सजावार बंदी आशा मिश्रा ने कविता के माध्यम से कानून व्यवस्था पर ‘लाचार परिंदा’ शीर्षक से हमला बोला है। लिखा है कि कानून के पिंजड़े में लाचार परिंदा है, क्या यह दिखायेगा, कानून तो अंधा है…। हर मोड़ पर शातिर है, अपराध का डेरा है।
इस पत्रिका में एक बंदी सुभाष चंद्र बाउरी ने दलितों पर विशेष सामग्री दी है। कानून के प्रति जागरूकता व बेहतर जीवनशैली के लिए भी है पर्याप्त सामग्री इस पत्रिका में कानून के प्रति जागरूकता व बेहतर जीवनशैली के लिए भी पर्याप्त सामग्री है। इसमें हतोत्साहित बंदियों को साहस दिलाने संबंधित सामग्री तो है ही, डायन कुप्रथा, पीड़ित कल्याण कोष की उपयोगिता, प्रोबेशन से संबंधित जानकारियां, असमय कारा मुक्ति तथा जनसाधारण के लिए सूचना प्रोबेशन आफ आफेंडर्स एक्ट की भी जानकारी दी गई है।
सरहुल पत्रिका में बंदियों की लिखी गई सामग्री उनके जीवन के अनुभव का दर्शन कराती है। एक बंदी नरेश प्रसाद यादव ने ‘कभी ऐसा सोचा न था’, विचाराधीन बंदी सुखदेव महतो ने ‘एक अनुभव जेल का’, बंदी गुरुदेव नायक ने ‘शिक्षा से बढ़कर कोई धन नहीं’ सजावार बंदी गोविंद झा ने बेवकूफ को दो रुपिया दे दें, दे न उचित ज्ञान और विचाराधीन बंदी जगदीश महतो ने छोटा सा एक सपना, छोटा सा एक परिवार शीर्षक से अपने दिल की आवाज को शब्दों का रूप दिया है।
सरकारी पत्रिका ‘सरहुल’ के संपादक बंदी कल्याण पदाधिकारी कमलजीत सिंह ने कहा कि इस पत्रिका के माध्यम से पत्थर की दीवारों में कैद उन इंसानों की बात हो रही है, जो कहानियां, कविताएं चित्र आदि लेकर आए हैं। बंदियों की ये रचनाएं यह बताती हैं कि पत्थर की दीवारों के उस पार रहने वालों का भी दिल धड़कता है। संवेदनाएं स्पंदित होती हैं और वे भी सपने संजोते हैं… मुक्ति के सपने देखते हैं। झारखंड के परिप्रेक्ष्य में इस पत्रिका का नाम ‘सरहुल’ से बेहतर कोई नहीं हो सकता था, इसलिए यह नाम दिया गया। इसे राज्यपाल, मुख्यमंत्री, गृह कारा एवं आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव व आइजी जेल का भी प्रोत्साहन मिला है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."