-अनिल अनूप
हरियाणा में 5 अक्तूबर 2024 में विधानसभा की 90 सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे। 5 अक्तूबर को वोट डाले जाएंगे और 8 अक्टूबर को वोटों की गिनती होगी। मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल 3 नवंबर 2024 को खत्म हो रहा है। पिछले 10 साल से हरियाणा में बीजेपी की सरकार है। 2014 में पहली बार बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। 2019 में वह अकेले दम पर बहुमत से दूर रही, मगर दुष्यंत चौटाला की जेजेपी के साथ सरकार बनाने में सफल रही। लोकसभा चुनाव से पहले 12 मार्च 2024 को बीजेपी और जेजेपी का गठबंधन टूट गया। मनोहर लाल खट्टर ने मुख्यमंत्री पद छोड़कर केंद्र की राजनीति में कदम रख दिया। ओबीसी बिरादरी के नायब सिंह सैनी ने नए मुख्यमंत्री बने। हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 काफी रोमांचक रहेगा। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 5 सीटों का नुकसान हुआ था, जबकि कांग्रेस 10 साल बाद 5 सीटें जीत गईं। इस बीच इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन का ऐलान किया है। इनेलो-बसपा गठबंधन ने अभय सिंह चौटाला को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया है।
हरियाणा में भाजपा टिकट वितरण के दौरान जो असंतोष देखने को मिल रहा है, उसे सिर्फ असंतोष कहना गलत होगा, इसे बगावत कहना अधिक उचित है। जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों की लिस्ट जारी होती गई, वैसे-वैसे पार्टी के अंदर विरोध के स्वर भी उठने लगे। कांग्रेस, जो दस साल बाद सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है, भाजपा की इस स्थिति का मजाक उड़ाने से पीछे नहीं हट रही। हालांकि, कांग्रेस खुद भी हरियाणा में गुटबाजी का शिकार रही है, इसलिए इस बार वह उम्मीदवारों के चयन में काफी सतर्कता बरत रही है।
विधायकों के टिकट कटने से असंतोष
हरियाणा में भाजपा इस बार एक नई तरह की बगावत का सामना कर रही है, जो पहले शायद ही कभी देखने को मिली हो। पार्टी ने चार मंत्रियों समेत 15 मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए हैं, जो सामान्य घटना नहीं है। पिछली बार हरियाणा विधानसभा में भाजपा को 90 में से 40 सीटें मिली थीं, यानी इस बार एक-तिहाई से अधिक विधायकों के टिकट काट दिए गए हैं। हालांकि, इस तरह की रणनीति भाजपा के लिए दूसरे राज्यों में सफल रही है, फिर भी हरियाणा में इसका प्रभाव अलग हो सकता है।
सत्ता विरोधी भावना की चुनौती
भाजपा ने सत्ता विरोधी भावना को कम करने के लिए यह कदम उठाया होगा, क्योंकि दस साल के शासन के बाद सत्ता विरोधी भावना का उभरना सामान्य है। लेकिन सिर्फ चेहरों को बदलने से यह समस्या हल हो जाएगी, ऐसा मानना भी सही नहीं है। सत्ता विरोधी भावना सरकार के खिलाफ होती है, लेकिन इसका सबसे बड़ा खामियाजा स्थानीय विधायक को उठाना पड़ता है। जनता और कार्यकर्ता विधायक से उम्मीदें रखते हैं, और जब वे पूरी नहीं होतीं, तो नाराजगी बढ़ती है, जो या तो टिकट कटने या चुनावी हार में बदल जाती है।
टिकट कटने पर नेताओं की प्रतिक्रिया
टिकट कटने के बाद नेता निराश होते हैं और कई बार पार्टी पर आरोप लगाते हैं या अन्य विकल्प तलाशने लगते हैं। कुछ नेता तो कैमरे के सामने रोते हुए भी देखे गए, जो इस बार का एक नया ट्रेंड है। ये नेता निर्दलीय या अन्य दलों से चुनाव लड़ने का विचार कर रहे हैं, लेकिन सहानुभूति कितनी मिलेगी, यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे। भाजपा के फैसलों का बचाव तब और मुश्किल हो जाता है, जब पार्टी बाहरी लोगों या अन्य दलों से आए नेताओं को उम्मीदवार बना देती है। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य मंत्री बनवारी लाल के काम से असंतोष था, तो उन्हें पहले ही मंत्रिमंडल से हटाया जा सकता था, लेकिन उनके स्वास्थ्य निदेशक को नौकरी छोड़ते ही उनकी जगह टिकट देना कई सवाल खड़े करता है।
मुख्यमंत्री की सीट में बदलाव
मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की सीट बदलने का मुद्दा भी चर्चा में है। खट्टर ने दस साल में अपनी सीट चौथी बार बदली है, जो पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह चर्चा का विषय बना हुआ है। इसके अलावा, निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह चौटाला को पहले मंत्री बनाया गया, फिर लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया गया, और अब उनकी परंपरागत सीट से टिकट नहीं दिया गया, जिससे पार्टी के अंदर नाराजगी और बढ़ गई है।
दलबदलुओं पर भरोसा
भाजपा पर आरोप लग रहे हैं कि वह दलबदलुओं पर ज्यादा भरोसा कर रही है। उदाहरण के लिए, सोनीपत के सांसद रमेश कौशिक का टिकट काटा गया, लेकिन उनके भाई को गन्नौर से टिकट दिया गया। यह सवाल उठता है कि क्या पार्टी में कोई निष्ठावान नेता नहीं था जिसे टिकट दिया जा सके? इसी तरह, कांग्रेस से आईं किरण चौधरी की बेटी श्रुति चौधरी को भी टिकट दे दिया गया, जिससे पार्टी पर परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगे हैं।
राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह की नाराजगी
केंद्रीय राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह की बेटी आरती को भी इस बार टिकट दिया गया है, लेकिन इंद्रजीत सिंह अपनी उपेक्षा को लेकर नाराज हैं। वे केंद्र सरकार में सबसे लंबे समय तक राज्य मंत्री रहने का रिकॉर्ड बना चुके हैं, लेकिन अब मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना अधूरा ही दिख रहा है। उनका मानना है कि अगर अहीरवाल इलाके का पूरा समर्थन नहीं मिला होता, तो मनोहर लाल दो बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। हालांकि, भाजपा में उनकी इस इच्छा को पूरा होता नहीं देखा जा रहा है, क्योंकि पार्टी ने पहले ही मनोहर लाल को मुख्यमंत्री पद के लिए तय कर लिया है।
पार्टी के सामने चुनौती
भाजपा की यह आंतरिक कलह उसके लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। हरियाणा जैसे राजनीतिक रूप से सजग राज्य में सत्ता की हैट्रिक बनाना अपने आप में कठिन कार्य है, और अगर पार्टी के अंदर अंतर्कलह और भितरघात की स्थिति बनी रहती है, तो भाजपा के लिए यह राह और भी मुश्किल हो जाएगी।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."