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November 21, 2024 11:56 pm

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हालात ए कश्मीर….छह साल से असेंबली भंग और जम्मू आतंकवाद का नया ठिकाना बना,…

15 पाठकों ने अब तक पढा

अरमान अली की रिपोर्ट

“अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाए जाने के पांच साल पूरे, छह साल से असेंबली भंग और जम्मू आतंकवाद का नया ठिकाना बना, पुनर्गठन कानून में फेरबदल से विधायिका हुई पंगु, चुनावों का इंतजार”

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के पांच साल 5 अगस्त को पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी जश्न मनाने की तैयारी में है। इसे वे ‘एक ऐतिहासिक गलती को दुरुस्त’ करना कहते रहे हैं। वे इस जश्न में कुछ दावे करेंगे, जैसे कश्मीर घाटी में ‘पत्थरबाजी की घटनाएं खत्म’ हो गईं, अलगाववादी गति‍वि‍धियां कम हो गईं और पर्यटन में इजाफा हो गया। ऐसे दावों के बीच वे बड़ी आसानी से भुला देंगे कि कश्मीर में छिटपुट गोलीबारी की घटनाएं वापस उभर चुकी हैं, यहां की विधानसभा छह साल से भंग पड़ी है और दो दशक तक शांत रहा जम्मू क्षेत्र पूरी तरह आतंकवाद की चपेट में आ चुका है। 

हाल ही में संपन्न हुए आम चुनावों में भाजपा ने तय किया था कि वह कश्मीर की तीन सीटों पर अपने प्रत्याशी नहीं उतारेगी। इस फैसले को आड़े हाथों लेते हुए नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि भाजपा को डर है कहीं इन सीटों पर उसके प्रत्याशियों की जमानत न जब्त हो जाए। भाजपा ने लद्दाख में अपना उम्मीदवार उतारा था। वहां वह तीसरे स्थान पर रहा। 

पार्टी का दावा है कि जम्मू और कश्मीर को बांट कर लद्दाख को उसने कश्मीर के ‘वर्चस्व’ से मुक्त मुक्त करवा दिया है, लेकिन अब लद्दाख से भी पूर्ण राज्य के दरजे की बहाली और उन गारंटियों की आवाजें उठने लगी हैं, जो अनुच्छेद 370 के तहत कभी मिले हुए थे।

लद्दाख में पर्यावरणविद सोनम वांगचुक का अनशन छह महीने से सुर्खियां बना हुआ है। वे छठवीं अनुसूची और पूर्ण राज्य के दरजे की मांग कर रहे हैं। कुछ और नेता इन मांगों के पूरा न होने की सूरत में 5 अगस्त, 2019 के पहले वाली स्थिति बहाल करने को कह रहे हैं। 

इस बीच आम चुनावों में उत्तरी कश्मीर के नेता इंजीनियर राशिद की जीत हुई, जो यूएपीए के तहत जेल में बंद हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यह चुनाव परिणाम 2019 से केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में लागू की गई नीतियों के खिलाफ यहां के लोगों के असंतोष को दिखलाता है।

बीते बरसों में क्या बदला

श्रीनगर में एक पुराना बाजार है महाराजगंज, जहां की फिजा यहां आने वाले लोगों को दूसरे ही दौर में ले जाती है। यहां खरीदार उतने नहीं होते फिर भी दुकानदारों के हौसले बुलंद हैं। डोगरा शासन में इसे श्री रनबीर गंज कहा जाता था। बाद में महाराजा के नाम पर इसका नामकरण कर दिया गया। बंटवारे से पहले यह एक बड़ा थोक बाजार हुआ करता था जहां लाहौर, कराची, अमृतसर, रावलपिंडी, काशगर और मध्य एशिया से व्यापारी आया करते थे।

यहां तमाम किस्म की चीजें मिलती थीं। जैसे कश्मीरी शिल्प, तांबा, केसर, कपड़े, सूखे मेवे, गहने, मसाले और नक्काशीदार लकड़ी। आजकल इस बाजार की सड़क बन रही है और पुरानी इमारतों का पुनरोद्धार किया जा रहा है। नए-नए रेस्‍तरां खुल रहे हैं और पुराने मकानों की जगह नए भवन खड़े किए जा रहे हैं। उधर, नए श्रीनगर में मॉल तेजी से सिर उठा रहे हैं, जिससे शहर का नक्शा बदल रहा है। लगता है रिहायशी इलाकों की पुरानी रौनक लुप्त होती जा रही है। हर इलाका अब बाजार लगता है।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बीते कुछ बरसों में सैलानियों की संख्या‍ में अप्रत्याशित इजाफा हुआ है। पर्यटन में इजाफे ने इस क्षेत्र को बदल कर रख दिया है। होटलों में भीड़ है, कमरे नहीं मिलते। अब लोग शादियों के लिए यहां आने लगे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक कैबिनेट मंत्री के बेटे की शादी डल झील के किनारे होटल ललित पैलेस में हुई। आयोजन में यूपी के सभी मंत्री पहुंचे थे।

धीरे-धीरे जहां पुराने शहर के भीतर नया शहर आकार ले रहा है, वहीं श्रीनगर का नया इलाका बहुमंजिला भवनों और मॉल से पटता जा रहा है। महाराजगंज के ताजे हालात के बारे में एक दुकानदार से हमने पूछा, तो उन्होंने भी वही जवाब दिया जो आजकल कश्मीर में हर कोई दे रहा है, ‘‘मेरे पास कहने को कुछ नहीं है।’’ फिर उन्होंने अपना एक सवाल दाग दिया, ‘‘असेंबली चुनाव कब होगा?”  

जम्मू और कश्मीर में 2023 में पर्यटन में अचानक उछाल आया था जब सैलानियों की संख्या 2.11 करोड़ पार कर गई थी। इससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली। इस साल सरकार को उम्मीद है कि सैलानियों की संख्या और ज्यादा होगी।

इसके अलावा कश्मीर के क्षेत्र में पचास से ज्यादा फिल्मों की शूटिंग हुई। सरकार ने शूटिंग के लिए 350 से ज्यादा मंजूरियां जारी की हैं। पिछले ही माह एसकेआइसीसी में जम्मू और कश्‍मीर पर्यटन विकास कॉन्क्लेव में बॉलीवुड की कई हस्तियों इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज, कबीर खान और संजय सूरी ने हिस्सा लिया। यह सब यहां स्थिरता और पर्यटन को बढ़ावा देने के सरकारी प्रयासों को दिखाता है।

इन तमाम बदलावों के साथ 5 अगस्त, 2019 के बाद से सुरक्षा भी चाक-चौबंद रही है। लेकिन इन वर्षों में अस्थायी सुरक्षा बंकरों में कहीं कोई कमी नहीं आई है। बल्कि अब की बार अमरनाथ यात्रा के चलते इनमें इजाफा ही हुआ है। यह यात्रा 29 जून को शुरू हुई थी। तब से सरकार ने सड़कों पर आवागमन बंद कर दिया और राजमार्गों पर सुरक्षा बढ़ा दी। सेना, सीआरपीएफ, पुलिस और बीएसएफ आधुनिक असलहे और वाहन लेकर श्रीनगर के राजमार्ग पर गश्त करते देखे जा सकते हैं। सबसे अहम चौराहों पर पुलिस और सुरक्षाबल तैनात है।

श्रीनगर के लाल चौक में यह सुरक्षा व्य‍वस्था और चौकस दिखती है। यहां चौकन्ने सीआरपीएफ के जवान आने-जाने वालों पर निगाह रखते हैं। वे सेल्फी लेने वालों पर भी निगरानी रखते हैं। पुलिस अफसर भी सतर्क रहते हैं। वाहनों, सड़कों और चौराहों पर सुरक्षा बल तैनात हैं। हालांकि सैलानियों की आमद और अपेक्षाकृत शांति के चलते इनकी मौजूदगी धुंधली ही रहती है। कहें तो कश्मीर में जिंदगी इस तरह चल रही है, जैसे पूरे इलाके को किसी शांति ने अपने आगोश में लपेट रखा हो।

यह मौजूदा टकरावों को छुपाने की एक तरकीब है, वरना इस साल जम्मू क्षेत्र लगातार हमलों का शिकार होता रहा है। 2021 से ही जम्मू में 55 सुरक्षाबल के जवान मारे जा चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस क्षेत्र में सिलसिलेवार हमले हुए हैं। इसके बावजूद जम्मू् में उतनी सुरक्षा नहीं है जितनी कश्मीर में है। 

घाटी में हाइटेक जासूसी कैमरे लगा दिए गए हैं। पिछले कुछ बरस में दुकानदारों को अपने यहां सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया गया है। श्रीनगर-अनंतनाग रोड पर लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है ताकि पहले सुरक्षा वाहन और यात्री निकल सके। घाटी से निकलकर जम्मू की ओर बढ़ते ही सुरक्षा व्यवस्था घटी हुई दिखती है। आप जम्मूु-श्रीनगर हाइवे पकड़ें या राजौरी और पूंछ से घाटी को जोड़ने वाली मुगल रोड, जम्मू में कश्मीर के मुकाबले काफी कम तैनाती मिलेगी।

कटरा से रनसू के बीच 9 जुलाई को आतंकवादियों ने शिव खोरी के तीर्थयात्रियों से भरी बस पर हमला किया था। इस रोड पर केवल एक चेकपोस्ट है और करीब 60 किलोमीटर तक एक भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाबल नहीं दिखता। प्रधानमंत्री मोदी जब शपथ लेने जा रहे थे उस वक्त हुए हमले में नौ तीर्थयात्री मारे गए थे और 31 घायल हुए थे। मारे गए लोगों में बस का चालक और खलासी भी था। 

रनसू के लोग कहते हैं कि बस अगर खाई में नहीं गिरी होती तो आतंकवादी सारे यात्रियों को मार डालते। उनके अनुसार चालक और खलासी को गोली लगने के कारण बस के खाई में गिरने के बाद भी आतंकवादी उनके ऊपर गोली चलाते रहे थे। जम्मू क्षेत्र में 9 जून के हमले के बाद से ऐसे आतंकी हमलों में इजाफा हुआ है। रियासी, कठुआ और डोडा के जंगलों में कई मुठभेड़े हुई हैं। इनमें कम से कम 10 सुरक्षाबल मारे गए और कई को चोट आई।

सरकार कहती है कि नियंत्रण रेखा ‘एलओसी’ के आसपास करीब साठ से सत्तर आतंकवादी ‘सक्रिय’ हैं। पुलिस महानिदेशक रश्मिरंजन स्वाईं के मुताबिक पाकिस्तान अब भी जम्मू और कश्मीर में घुसपैठिए और सामग्री भेज रहा है, हालांकि उसकी क्षमता घटी है। वे दावा करते हैं कि भारत के सुरक्षाबल दुश्मन का कामयाब होना ‘बहुत मुश्किल’ कर देंगे। स्वाईं को दोहरी जिम्मेदारी मिली हुई है। वे पुलिस के साथ साआइडी के भी मुखिया हैं।

रणनीति क्या है

जम्मू और कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा का कहना है कि दुश्मन की ओर से जम्मू के क्षेत्र में आतंकवाद को दोबारा उभारने की कोशिशों का जवाब सुरक्षाबल ‘कश्मीर मॉडल’ से देंगे। सिन्हा ने बताया, ‘‘जम्मू के लोगों ने कभी आतंकवाद का पक्ष नहीं लिया बल्कि उसके खिलाफ खड़े रहे हैं। पिछले चार-पांच साल के दौरान जम्मू और कश्मीर में काफी बड़े बदलाव हुए हैं। कश्मीर के दस जिलों में अमन चैन कायम है। यहां युवा लड़के-लड़कियां कृषि के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी अपने भविष्य को गढ़ रहे हैं।’’

वे कहते हैं, ‘‘हमारा पड़ोसी यहां के अमन चैन को पचा नहीं पा रहा, इसीलिए जम्मूू में आतंकवाद को उभारने की कोशिशें की जा रही हैं। हम ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं होने देंगे और जम्मू से आतंकवाद को उखाड़ फेंकने के लिए कश्मीर मॉडल अपनाएंगे।’’

पिछले दिनों सिन्हा ने सेना प्रमुख और सुरक्षा व कानून अनुपालक एजेंसियों के विभिन्न प्रमुखों के साथ एक उच्चस्तरीय बैठक की अध्यक्षता करके जम्मू के सुरक्षा हालात का जायजा लिया था। चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल उपेंद्र द्विवेदी, डीजी बीएसएफ, डीजी सीआरपीएफ और डीजीपी, जम्मू और कश्मीर के साथ खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों, सीआरपीएफ और राज्य पुलिस ने इस बैठक में हिस्सा लिया।

लाल चौकः जुलाई 2024 

गौरतलब है कि इसी साल मार्च में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि केंद्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा) को हटाने जा रहा है। उन्होंने कहा था, ‘‘हमारी योजना सैन्‍य टुकडि़यों को हटाने और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी पूरी तरह जम्मू और कश्मीर पुलिस के जिम्मे कर देने की है। हम लोग पुलिस को सशक्त कर रहे हैं, जो किसी भी मुठभेड़ में अग्रिम मोर्चे पर होती है। हम इस प्रस्ताव पर विचार करेंगे (आफ्सपा को हटाने पर)। हालात सामान्य किए जा रहे हैं।’’

इस घोषणा ने जम्मू और कश्मीर में हलचल मचा दी थी। यहां लंबे समय से आफ्सपा कानून एक अहम मुद्दा रहा है क्योंकि इसकी धारा 3 के अंतर्गत तनावग्रस्त क्षेत्रों में तैनात सैन्य बलों को दंड से छूट मिली होती है। अमित शाह की इस घोषणा को उमर अब्दुल्ला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की मुखिया महबूबा मुफ्ती ने चुनावी स्टंट करार दिया था, तो भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और राज्य प्रभारी तरुण चुग ने इसका स्वागत करते हुए कहा था कि केंद्र चरणबद्ध ढंग से आफ्सपा को हटाने को तैयार है। चुग ने अब्दुल्ला और मुफ्ती पर आरोप लगाया था कि वे ‘‘दुष्प्रचार के लिए इसका राजनीतिकरण कर रहे हैं।’’

आफ्सपा को जम्मू और कश्मीर में 10 सितंबर, 1990 को लागू किया गया था। इसके तहत इस क्षेत्र को तनावग्रस्त घोषित करने के लिए राज्य सरकार की एक अधिसूचना जारी हुई थी। संसद में कानून पारित होने के बाद अधिसूचना आई थी। इसके बाद 10 अगस्त, 2001 को यह प्रावधान विस्तारित करके जम्मू क्षेत्र पर भी लागू कर दिया गया। 

बीते आम चुनाव के प्रचार अभियान में आफ्सपा और बंदियों की रिहाई अहम मुद्दा रहे हैं। लोगों ने काफी बढ़-चढ़ कर वोट भी किया, जिससे चुनाव आयोग खुद अचरज में आ गया जब उसने 27 मई को कहा कि यह ‘‘भारत की चुनावी राजनीति में एक बड़ी छलांग है।’’ आयोग के अनुसार बीते 35 वर्ष में यह इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा मतदान था।

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने इस मतदान दर को ‘सशक्त लोकतांत्रिक भावना और क्षेत्र के लोगों के साथ नागरिक संलग्नता की गवाही’ करार दिया। ‘जम्मू और कश्मीर में शांतिपूर्ण मतदान’ से उत्साहित कुमार ने कहा कि ‘‘जम्मू और कश्मीर के लोगों की सक्रिय भागीदारी आगामी विधानसभा चुनाव के लिए सकारात्मक संकेत है।’’ इस बयान के बाद यहां के राजनीतिक दल उम्मीद कर रहे थे कि असेंबली चुनाव करवा दिए जाएंगे, लेकिन चुनाव आयोग ने अब तक अपना मुंह नहीं खोला है। जम्मू और कश्मीर में 2018 से ही विधानसभा भंग है जब पीडीपी और भाजपा की संयुक्त सरकार गिर गई थी।   

आफ्सपा हटाने से शत्रु एजेंट अध्यादेश तक

एक ओर राजनीतिक दलों को उम्मीद थी कि अंतत: चुनाव की तारीखों की घोषणा होगी, दूसरी ओर सिलसिलेवार हुए आतंकी हमलों ने जम्मू के हालात को अचानक बदल डाला। जून में 9 से 12 तारीख के बीच चार आतंकी हमले रियासी, डोडा और कठुआ में हुए जिनमें दस लोगों की जान चली गई। इसमें शिव खोरी मंदिर से लौट रहे सात तीर्थयात्री भी शामिल थे और एक सीआरपीएफ का जवान भी मारा गया था। कई घायल हुए थे। 24 जून को पुलिस ने ऐलान किया कि अब वह शत्रु एजेंट अध्यादेश (ईएओ) का इस्तेमाल कर के आतंकियों को मदद देने वाले संदिग्धों से निपटेगी।

पुलिस महानिदेशक स्वाईं ने कहा, ‘‘हम ऐसे आतंकी हमलों की जांच एनआइए और एसआइए जैसी पेशेवर एजेंसियों से करवाने पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इन हमलों में मदद करने और उकसाने वालों को शत्रु एजेंट अध्यादेश के अंतर्गत दुश्मन माना जाएगा और वैसा ही बरताव किया जाएगा।’’ उन्होंने आगे बताया, ‘‘शत्रु एजेंट अध्यादेश के तहत सजा या तो उम्र कैद की होती है या मौत की, और कोई विकल्प नहीं होता।’’ एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की मानें तो हालिया आतंकी हमलों के बाद ईएओ को लागू करना जरूरी हो गया था। उन्होंने बताया कि 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद ‘सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) और शत्रु एजेंट अध्या‍देश जैसे अच्छे कानून’ बचा लिए गए थे।

जम्मूू और कश्मीर का पीएसए ऐसा कानून है जिसके तहत किसी को भी लंबी अवधि तक हिरासत में रखने का अधिकार प्रशासन को दिया गया है, यदि वह उसकी नजर में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। 2011 में उमर अब्दुल्ला की सरकार ने पीएसए में संशोधन करते हुए हिरासत की अवधि को उन लोगों के लिए एक साल से घटाकर तीन महीना कर दिया था जो कानून व्यवस्था को भंग करते हैं। राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा माने गए तत्वों के लिए हिरासत की अवधि दो साल से घटाकर छह माह कर दी गई थी।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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