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24 February 2025 12:10 am

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आठ साल में तीन ठांव, नहीं टिके स्वामी के पांव… बडा उथल पुथल भरा सफर रहा स्वामी जी का…

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

लखनऊ: स्वामी प्रसाद मौर्य ने मंगलवार को समाजवादी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा दिया। पिछले लगभग आठ साल में यह तीसरा ठांव है, जहां से स्वामी ने पांव निकाले हैं। हर बार पार्टी छोड़ने की वजहें एक सी गिनाई गईं और जिस दल ने छोड़ा उनके ओर से स्वामी पर लगने वाले आरोप भी एक जैसे ही रहे हैं। 

हालांकि, अब स्वामी खुद अपनी पार्टी बना रहे हैं तो ‘भटकने’ का सिलसिला शायद रुक जाए। लगभग 20 साल तक बसपा में राजनीति करने के बाद 2016 की गर्मियों में स्वामी ने मायावती को तेवर दिखाते हुए बसपा से इस्तीफा दे दिया था। 

बसपा में उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष, सरकार में मंत्री, विधान परिषद में नेता सदन से लेकर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तक का अहम ओहदा पाया। यहां तक कि 2007 में चुनाव हारने के बाद भी मायावती ने उन्हें सरकार में राजस्व मंत्री बनाया और विधान परिषद भेजा।

बसपा से मोहभंग होने के बाद स्वामी 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा में आए। पडरौना से विधायक व योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। बेटी संघमित्रा मौर्य को भी 2019 में बदायूं से लोकसभा का टिकट मिला और वह संसद पहुंच गईं। 

हालांकि, 22 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जनवरी की सर्दियों में स्वामी का मिजाज सरकार व भाजपा को लेकर गर्म हो गया। पिछड़ों, किसानों, नौजवानों की चिंता का हवाला देकर वह सपा में चले आए। बेटी अभी भी भाजपा में ही हैं।

कद भी, पद भी, विवाद भी

स्वामी की अखिलेश ने धूमधाम से ज्वाइनिंग कराई थी। सपा की सीटों को दोगुना बढ़ाने का दावा कर रहे स्वामी प्रसाद मौर्य हालांकि फाजिलनगर से अपनी ही सीट पर हार गए और उनके साथ आए कुछ और विधायकों को भी हार का सामना करना पड़ा। हार के बाद अखिलेश ने स्वामी को संगठन में महासचिव बनाने के साथ ही एमएलसी बनाकर उच्च सदन भी भेजा। हालांकि, धार्मिक मुद्दों पर स्वामी के विवादों को लेकर सपा के भीतर लगातार सवाल उठे, लेकिन, अखिलेश ने एकाध मौकों को छोड़कर उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

पीडीए को चुनावी मुद्दा बना रही सपा पर भी पिछड़ा, दलित विरोधी होने का आरोप लगा स्वामी नई राह पर निकल गए हैं। पहले भी स्वामी का सियासी सफर दल-बदल से भरा रहा है। 1980 में लोकदल से सियासत शुरू करने वाले स्वामी ने 1991 में जनता दल का दामन थाम लिया था। 1996 में जनता दल व सपा का समझौता हुआ तो स्वामी बसपाई हो गए।

चिंता को लेकर दावे अपने-अपने

पिछले छह सालों में स्वामी के हृदय परिवर्तन को उनकी पूर्ववर्ती पार्टियों ने पारिवारिक महत्वाकांक्षा से ही जोड़ा है। बसपा से विदाई के समय उसकी प्रमुख मायावती का आरोप था कि स्वामी बेटे-बेटी के लिए टिकट मांग रहे थे, नहीं मिल तो सुर बदल गए। 2017 में भाजपा ने स्वामी को पड़रौना व बेटे उत्कृष्ट मौर्य को ऊंचाहार से टिकट भी दिया था, लेकिन, उत्कृष्ट हार गए। 2022 में भाजपा का भी आरोप था कि स्वामी फिर बेटे के लिए टिकट चाह रहे थे। हालांकि, सपा में आने के बाद स्वामी ही चुनाव में उतरे थे। इस बार भी सपा से अंदरखाने आरोप अपनों के समायोजन के लिए दबाव बनाने का ही है। स्वामी इन आरोपों को निराधार बताते हैं।

अब अगला ठिकाना क्या होगा?

स्वामी प्रसाद मौर्य खुद ऐलान कर चुके हैं कि 22 फरवरी को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में वह अपनी पार्टी का ऐलान करेंगे। माना जा रहा है कि साहब सिंह धनगर की राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी को ही नए सिरे से लांच करने की तैयारी है। इससे पहले भी स्वामी ने बहुजन लोकतांत्रिक मंच बनाया था लेकिन भाजपा में शामिल होने के बाद यह मंच ‘धराशायी’ हो गया। 

फिलहाल, आगामी लोकसभा चुनाव में स्वामी की तैयारी पार्टी मुखिया के तौर पर उम्मीदवार उतारने की है। चर्चा यह भी है कि सपा व कांग्रेस के रिश्ते जिस तरह से तल्ख हो रहे हैं, स्वामी अपनी नई पार्टी के जरिए कांग्रेस के गठबंधन का भी हिस्सा हो सकते हैं। हालांकि, यूपी की सियासत में जिस तरह से ‘यू टर्न’ हो रहे हैं, उसमें कोई भी संभावना अंतिम नहीं है।

जाते-जाते कह गए

20 फरवरी 2024, सपा से इस्तीफा देने के बाद: अखिलेश यादव रास्ते से भटक गए हैं। यहां तक कि नेताजी मुलायम सिंह यादव की विचारधारा का भी मजाक उड़ा रहे हैं। वह खुद को सेक्युलर कहते हैं, लेकिन, वास्तव में वह भी मनुवादी व्यवस्था का शिकार हैं।

11 जनवरी 2022, मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद: दलित, पिछड़े, किसान, बेरोजगार विरोधी रवैये के कारण मैंने भाजपा सरकार से इस्तीफा दिया है। सरकार में अगर मैं इनकी आवाज न उठा पाऊं तो रहने का क्या फायदा? सपा से सामाजिक न्याय की लड़ाई आगे बढ़ाने की उम्मीद है।

22 जून 2016, बसपा छोड़ने के बाद: मायावती को पैसों की भूख है। वह दलितों के वोटों का सौदा कर रही हैं। पिछड़े वर्ग के लोगों का टिकट जिस तरह से काटा जा रहा है उससे लगता है कि मायावती भाजपा से मिलीभगत कर ओबीसी वोटों को उसके खेमे में भेजना चाहती हैं।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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